वर्तमान समय में विकास की तमाम कहानियां गढ़ने एवं लिखने के बावजूद मानव अभी तक यह समझ नहीं पा रहा है कि आखिर उससे गलतियां कहां हो रही हैं? हिंदुस्तान में मशहूर उद्योगपति धीरू भाई अंबानी ने एक नारा दिया था कि ‘कर लो दुनिया मुट्ठी में।’ अपनी कला, बुद्धि एवं क्षमता के बल पर विश्व के तमाम लोगों ने दुनिया को अपनी मुट्ठी में कर लिया और अधिकांश लोगों ने यह समझ लिया कि जिसके पास पैसा है, उसके लिए ही सब कुछ है और पूरी दुनिया उसी के लिए बनी है। ऊपर से विज्ञान ने इस बात को और अधिक स्थापित करने का कार्य किया किन्तु विगत डेढ़ वर्षों के कार्यकाल में जिन्होंने पूरी दुनिया को अपनी मुट्ठी में कर लिया था, उनकी भी समझ में आ गया कि वास्तव में जैसा वे समझते एवं सोचते रहे हैं, वैसा ही सब कुछ नहीं है। इसके अलावा भी बहुत कुछ है। आखिर वह बहुत कुछ क्या है, इसे अब और अधिक समझने एवं समझाने की आवश्कयता है।
दरअसल, कोई भी व्यक्ति कितना ही अधिक ज्ञानी क्यों न हो जाये किन्तु ज्ञान अर्जन की कोई भी सीमा नहीं है। ज्ञान के साथ जब अनुभव जुड़ जाता है तो उससे घर-परिवार एवं समाज को कुछ मिलता ही है। ऋषियों-मुनियों एवं सामान्य मानव में कुछ बुनियादी भेद होता है। ऋषि-मुनि अपनी दिव्य दृष्टि से यह देख लेते हैं कि भविष्य में क्या होने वाला है और उसी के मुताबिक वे उस समस्या के निदान में लग जाते हैं किन्तु मानव वह कार्य नहीं कर पाता है। वैसे, मानव भी यदि चाहे तो ऋषियों-मुनियों से कुछ ज्ञान प्राप्त कर समाज को बदलने, समझने-समझाने की दिशा में अग्रसर हो सकता है। जिन लोगों को लगता था कि यदि वे बीमार होंगे तो अच्छे से अच्छे डाॅक्टर से एवं अस्पताल में इलाज करवा लेंगे किन्तु कोरोनाकाल में मौत का ऐसा मंजर देखने को मिला कि रुपया-पैसा सब कुछ धरा का धरा रह गया। मानव का भरोषा पैसे से कम होकर प्रकृति यानी ईश्वर पर बढ़ गया।
प्रकृति ने बड़े से बड़े लोगों को यह एहसास करा दिया कि प्रकृति यानी क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा (पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश, वायु) ही जीवन का मुख्य आधार है। इन पंच तत्वों के साथ ज्यादती मनुष्य का जीवन नरक बनाने के लिए पर्याप्त है। प्राचीनकाल में गुरुकुलों में गुरु बच्चों को प्रकृति की पूरी शिक्षा देते थे और बताते थे कि प्रकृति के आगे मनुष्य कुछ भी नहीं है। प्रकृति ने हमें मुफ्त में सब कुछ दिया है।
यदि मानव सही तरीके से प्रकृति का संरक्षण-संवर्धन करे एवं प्रकृति से उतना ही ग्रहण करे जितनी कि उसे आवश्यकता है तो कोई समस्या ही नहीं उत्पन्न होगी। प्रकृति के साथ मिल-मिलाकर कैसे रहा जाये, इसे स्वयं समझना है और अन्य लोगों को भी समझाने की आवश्यकता है। यह समझाने के लिए कोई भी गुरु किसी भी रूप में मिले, उसका सम्मान करें और जितना भी संभव हो सके, ग्रहण करने की कोशिश करें।
दरअसल, लोगों को अब बिना किसी लाग-लपेट के यह समझ जाना चाहिए कि प्रकृति ने हमें समझने का अवसर दिया है। यदि प्रकृति का इशारा मानव नहीं समझ पाया तो आगे चलकर और भी समस्या उत्पन्न होगी। ज्ञान की बातें हमारे धर्म-शास्त्रों, वेदों-पुराणों एवं अन्य गं्रथों में पर्वों, व्रतों, धार्मिक मान्यताओं एवं रीति-रिवाजों के रूप में विद्यमान हैं और समाज में वर्षों से प्रचलित रही हैं।
आज आवश्यकता इस बात की है कि अपने इन्हीं पर्वों, व्रतों, रीति-रिवाजों का और अधिक ज्ञान प्राप्त किया जाये और अन्य लोगों को भी इसकी जानकारी दी जाये। अपने देश में ऋतु परिवर्तन के समय बहुत व्यापक स्तर पर लोग बीमार पड़ते थे और आज भी पड़ते हैं। ऋतु परिवर्तन से उत्पन्न मौसमी बीमारियों से कैसे बचा जाये, हमारे शास्त्रों में इसकी बिधिवत व्याख्या की गई है। यदि हम उन जानकारियों को जानने एवं समझने का प्रयास करें तो मौसमी बीमाारियों से न स्वयं बचा जा सकता है बल्कि अन्य लोगों को भी बचाया जा सकता है। इस संबंध में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि ऐसी जानकारियों से युवा पीढ़ी को अवगत कराने की नितांत आवश्यकता है।
विगत चार-पांच वर्ष के काल खंड पर नजर डाली जाये तो यह मालूम पड़ेगा कि भारत सहित पूरे विश्व में प्राकृतिक आपदाओं की बाढ़ सी आई है। उत्तराखण्ड के केदारनाथ में घटित घटना का यदि विश्लेषण किया जाये तो यह अपने आप समझ में आ जायेगा कि कहीं न कहीं मानव से बहुत बड़ी चूक हुई है। यूरापीय देशों में भी हाल-फिलहाल के वर्षों में प्राकृतिक आपदाएं बहुत अधिक संख्या में आई हैं। नदियों के किनारे यदि होटल एवं मकान बनेंगे तो बाढ़ आने से कौन रोक सकता है? नदियों का पेटा यदि पटता जायेगा तो बरसात का पानी बाढ़ के रूप में सामने आयेगा ही। पेड़-पौधों की अनवरत कटाई होगी तो सूखा एवं गर्मी बढ़ेगी तथा वातावरण में आक्सीजन की कमी होगी ही।
कोरोनाकाल की दूसरी लहर में देखने को मिला कि आक्सीजन की कमी से बहुत से कोरोना पीड़ितों की जान चली गई किन्तु इससे इस बात की चर्चा प्रारंभ हो गई कि वे कौन-कौन से पेड़ हैं जो आक्सीजन के प्रमुख रूप से स्रोत्र हैं। इन बातों को जब समझने का प्रयास किया गया तो पता चला कि पीपल, बरगद, नीम, महुआ आदि के पेड़ों से आक्सीजन बहुत प्रचुर मात्रा में मिलती है। इससे यह भी जानकारी मिली कि हमारे पूर्वज इन पेड़ों की पूजा करते थे और इन्हीं पेड़ों की छाया में विश्राम किया करते थे। वैज्ञानिक युग में कृत्रिम रूप से आक्सीजन की व्यवस्था चाहे कितनी भी कर ली जाये किन्तु कृत्रिम आक्सीजन प्राकृतिक रूप से मिलने वाली आक्सीजन की जगह नहीं ले सकती है।
आज हम सभी को यह ज्ञात हो रहा है कि हमारे पूर्वज पेड़ों की पूजा समय-समय पर इसीलिए करते थे कि इससे पेड़-पौधों का संरक्षण एवं संवर्धन होता रहे जिससे न तो आक्सीजन की कमी होगी और न ही सूखे की स्थिति आयेगी और इन पेड़ों के माध्यम से गर्मी से भी राहत मिल सकेगी। पेड़ों के साथ हमारे पूर्वज, नदियों, पहाड़ों एवं धरती माता की भी पूजा किसी न किसी रूप में करते रहते थे। इसका सीधा-सा आशय था कि पंच तत्वों का संरक्षण-संवर्धन होता रहे क्योंकि व्यक्ति का जीवन पूरी तरह प्रकृति यानी पंच तत्वों पर ही निर्भर है।
कोरोना से नजरिया तो बदला किन्तु लापरवाही उतनी की उतनी ही… | Careless in Corona
प्रकृति ने हमें सब कुछ मुफ्त में दिया है किन्तु हम सभी को एक बात का ध्यान हमेशा रखना चाहिए कि मुफ्त में कुछ मिलने का आशय यह कदापि नहीं है कि उसे लूट लिया जाये। वास्तव में देखा जाये तो मनुष्य ने प्रकृति यानी पंच तत्वों को बेवजह लूटने का काम किया है। मानव ने प्रकृति से सिर्फ उतना ही लिया होता जितनी कि उसको आवश्यकता थी तो कृत्रिम रूप से आक्सीजन लेने की जरूरत नहीं पड़ती। पहाड़ों पर विकास कार्य तो हुए हैं किन्तु उसकी कीमत भूस्खलन और पानी की कमी के रूप में देखने को मिल रही है। जगह-जगह पहाड़ कटने से पानी के स्रोत भी नष्ट हो रहे हैं। नदियों पर बांध बनाकर बिजली पैदा तो की जा रही है किन्तु उससे नदियों की बहने वाली अनवरत धारा भी प्रवाहित हो रही है। कुल मिलाकर कहने का आशय यह है कि विकास और प्रकृति के संरक्षण-संवर्धन में संतुलन बना रहना चाहिए यानी प्रकृति का जो चक्र है वह किसी भी रूप में प्रभावित नहीं होना चाहिए। इस बात को हम सभी को समझने और समझाने की आवश्यकता है।
कोरोनाकाल में कोरोना से बचने एवं उसकी रोकथाम के जो भी उपाय बताये गये, वह सब हमारी सनातन संस्कृति में पहले से ही विद्यमान हैं। साफ-सफाई को हमारी सनातन संस्कृति में बहुत पहले से ही प्रमुखता दी गई है। दीपावली पर्व तो मुख्य रूप से सफाई का ही पर्व है। घर का कोई भी कोना सफाई से वंचित न रह जाये, दीपावली में इस बात का विशेष रूप से ध्यान रखा जाता है। लोगों का आपस में ताल-मेल बना रहे और मिलना-जुलना होता रहे, इसके लिए विभिन्न प्रकार के पर्व बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहते हैं। नवरात्र में सर्वत्र पूजा-पाठ, जागरण, भंडारा, हवन आदि इसलिए किया जाता है कि यह ऋतु परिवर्तन का समय होता है, लोगों को यह पता चल जाये कि हमें संभल कर रहना है और क्या खाना है, क्या नहीं, इस बात को समझने-समझाने की आवश्यकता है।
नवरात्र के दिनों में हवन करने से एक लाभ यह होता है कि वातावरण में उत्पन्न हानिकारक कीटाणु नष्ट हो जाते हैं, जिससे बीमारियों से बचाव में मदद मिलती है। कोरोनाकाल में दैहिक दूरी का पालन करने की बात की जा रही है, इसकी व्याख्या हमारी सनातन संस्कृति में बहुत पहले से ही विद्यमान है और यह बहुत पहले से ही हम लोगों को बताया जा रहा है कि यदि किसी को सर्दी-जुकाम है तो खांसते एवं छींकते समय मुंह पर रूमाल रख लें और भीड़-भाड़ से थोड़ा दूर रहें। हमारी सनातन संस्कृति में प्राचीन काल से ही प्रचलित रहा है कि एक व्यक्ति को किसी दूसरे व्यक्ति का जूठा नहीं खाना चाहिए क्योंकि इससे संक्रमण बढ़ता है।
यह सब लिखने का मुख्य मकसद यही है कि यदि हम अपनी सनातन संस्कृति के बारे में पूरी तरह जान जायेंगे तो हम स्वयं उस पर अमल तो करेंगे ही, इसके साथ ही अन्य लोगों को भी सनातन संस्कृति को अमल में लाने के लिए प्रेरित भी करेंगे। हम दूसरों को तभी प्रेरित कर पायेंगे, जब हमें उसकी जानकारी पूर्व रूप से स्वयं होगी। आज आवश्यकता इस बात की है कि अपनी गौरवमयी संस्कृति के बारे में युवा पीढ़ी को पूरी तरह अवगत कराया जाये जिससे न सिर्फ अपने को बीमारियों से बचाया जा सकेगा बल्कि अन्य लोगों को भी बीमारियों से बचने के लिए जागरूक किया जा सकेगा।
जिस समय एलोपैथ का कोई अस्तित्व नहीं था, उस समय भी लोग बीमार पड़ते थे और ठीक भी होते थे। यह अलग बात है कि पहले लोग प्रकृति के करीब रहने के कारण कम बीमार पड़ते थे और यदि पड़ते थे तो प्रकृतिप्रदत्त जड़ी-बूटियों, पेड़-पौधों आदि के द्वारा तैयार की दवाइयों से पुनः स्वस्थ भी हो जाते थे। एलौपैथ के माध्यम से अधिकांश बीमारियों को सिर्फ नियंत्रण में रखा जा सकता है किन्तु आयुर्वेद एवं अन्य चिकित्सा पद्धतियों के माध्यम से बीमारियों को न सिर्फ जड़ से समाप्त किया जा सकता है, अपितु यह भी कहा जाता है कि व्यक्ति यदि सनातन जीवनशैली को अपना ले तो काफी हद तक बीमारियों से बचा भी जा सकता है। आयुर्वेद का तो स्पष्ट रूप से मानना है कि यदि भोजनालय को औषधालय में तब्दील कर दिया जाये तो तमाम बीमारियों से न सिर्फ बचा जा सकेगा बल्कि रोग प्रतिरोधक क्षमता को भी पूर्ण रूप से मजबूत किया जा सकेगा।
भारतीय सनातन संस्कृति में बहुत से संस्कारों की व्याख्या की गई है किन्तु इनमें सोलह संस्कार प्रमुख हैं। इन सोलह संस्कारों में जो भी विधान बताये गये हैं, वे पूर्णतया वैज्ञानिक शोध पर खरा उतरते हैं। इन संस्कारों के माध्यम से मनुष्य का जीवन स्वस्थ, निरोग, अनुशासित एवं प्रकृति के अनुरूप बनता है। यह सब लिखने के पीछे मेरा आशय मात्र इतना ही है कि हम अपनी गौरवमयी विरासत को अच्छी तरह जानें और समझें। स्वयं अच्छी तरह समझने के बाद समाज में अन्य लोगों के बीच उसका प्रचार-प्रसार करें। यह सब किये बिना राष्ट्र एवं समाज का कल्याण संभव नहीं है। यही रास्ता भारत को विश्व गुरु बनाने के मार्ग पर भी अग्रसर करेगा। इस रास्ते पर जितनी जल्दी बढ़ लिया जाये, उतना ही उचित एवं उत्तम कार्य होगा। द
– अरूण कुमार जैन (इंजीनियर)