सनातन धर्म और संस्कृति के अनुसार किसी भी मंदिर में स्थापित देवी या देवता की मूर्ति को मदिरापान करवाये जाने के कोई भी पौराणिक साक्ष्य या प्रमाण उपलब्ध नहीं है। इसलिए सनातन धर्म से संबंधित मंदिरों में हमारे देवी-देवताओं की मूर्तियों को प्रसाद के तौर पर मदिरापान कब, क्यों, किसने और कैसे पिलाना प्रारंभ करवाया या किया यह कहना थोड़ा मुश्किल है।
जबकि आज हमारे देश में ऐसे अनेकों मंदिरों के बारे में देखने को और सूनने को मिल जाता है कि कौन-कौन से मंदिरों में देवी और देवताओं की मूर्तियों को शराब चढ़ाई जाती है। ऐसे मंदिरों के आसपास या फिर स्थानीय स्तर इन कुप्रथाओं के संबंध में कई प्रकार की मनघडंत मान्यताएं भी अपने आप ही उत्पन्न हो चुकी हैं।
जबकि, कई जानकार लोगों का मानना है कि किसी भी मंदिर में देवी या देवता की किसी भी मूर्ति को जो मदिरापान करवाया जाता है वह वास्तव में मदिरा नहीं बल्कि सोम रस होना चाहिए। लेकिन, हमारी आस्था पर चोट करने वालों ने इसे सोम रस को ही मदिरा कहना शुरू कर दिया और अब उसी मदिरा को देवी-देवताओं पर भी अर्पित किया लगा है।
इसमें यदि कोई सामान्य सा व्यक्ति भी अपने मन से सोचे कि अगर आप किसी भी मंदिर में जूते या चप्पल पहन कर प्रवेश करने को भी उस पवित्र स्थान का अपमान समझते हैं तो फिर इस प्रकार की कुप्रथा को भला कैसे स्वीकार सकते हैं। किसी भी मंदिर के भीतर प्रवेश करने के बाद कोई भी सच्चा और धर्मनिष्ठ व्यक्ति ना तो वहां पान खाता है और ना बीड़ी या सिगरेट वगैरह का प्रयोग करता है तो फिर उसी मंदिर के भीतर जाकर उस देवी या देवता की मूर्ति को भला शराब कैसे पिला सकता है।
उदाहरण के तौर पर यदि हम ऐसे मंदिरों की बात करें तो उनमें सबसे पहले स्थान पर भगवान भैरोनाथ जी के मंदिर की बात आती है। और भगवान भैरानाथ जी का यह मंदिर फिर चाहे उज्जैन में हो या फिर दिल्ली में, श्रद्धालुओं के कान में भैरो मंदिर या भैरो बाबा का नाम सुनते ही उनके प्रसाद यानी शराब का चित्र बन जाता है। उसी तरह राजस्थान के नागौर जिले में स्थित भुवाल काली मंदिर का भी चित्र उभर आता है। भुवाल काली के इस मंदिर में भी माता को मदिरा का सेवन करवाया जाता है।
ठीक इसी तरह का एक अन्य मंदिर जो कवलका माता मंदिर के नाम से उज्जैन के नजदीकी रतलाम जिला मुख्यालय से लगभग 30 किलोमीटर की दूरी पर सातरुंडा गांव में बताया जाता है। इस मंदिर में भी प्रसाद के रूप में माता को मदिरा चढ़ाई जाती है। यहां कवलका माता के साथ-साथ काल भैरव और काली मां को भी मदिरा पान करवाये जाने की परंपरा है।
उज्जैन में स्थित 24 खंभे वाली माता के मंदिर में तो बकायदा ढोल-नगाड़ों के साथ कलेक्टर के द्वारा अन्य प्रशासनिक अधिकारियों की मौजूदगी में वर्ष में एक बार माता मंदिर में मदिरा का प्रसाद चढ़ाकर नगर पूजन की शुरुआत की जाती है। इस अवसर पर बड़ी संख्या में स्थानिय श्रद्धालु और भक्तगण पूजन और आरती में शामिल होते हैं। और तो और, स्थानिय लोगों में यह मान्यता भी बन चुकी है कि सम्राट विक्रमादित्य जब भी इन देवियों की आराधना करने के लिए आया करते थे तो वे स्वयं अपने हाथों से इन देवियों को मदिरा का सेवन करवाया करते थे। जबकि सच्चाई तो यह है कि उस दौर में मदिरा जैसी कोई चीज ही नहीं होती थी।
यह एक बहुत ही घर्णित और धर्म का नाश करने वाली या धर्म को भ्रष्ट करने वाली एक सोची-समझी शाजिश या कुप्रथा कही जा सकती है। जबकि कोई भी ज्ञाता या जानकार लोग इस विषय पर या इस प्रकार की कुप्रथा पर न तो कुछ कहना चाहते हैं और ना ही आवाज उठाना चाहता हैं। और तो और स्थानीय लोग इसे एक बहुत बड़ा चमत्कार मानते हैं और ऐसी कुप्रथाओं को बढ़ावा देते हुए खुश भी होते हैं।
दरअसल, हमारे वेदों और धर्म से संबंधित अनेकों साहित्य ग्रंथों के अनुसार सोम नाम की एक विशेष वनस्पति होती है। और उस सोम के रस यानी सोम रस की अगर बात की जाय तो यह पेय पदार्थ एक शत-प्रतिशत प्राकृतिक रस होता था जिसे दूध में मिलाकर देवी-देवताओं को सर्वप्रथम देवी-देवताओं को अर्पित किया जाता था उसी के बाद अन्य लोग इसका सेवन करते थे। इस सोमरस का वर्णन तो हमारे ऋग्वेद में भी मिलता है। वेदों के अनुसार, सोम का संबंध अमरत्व से भी है।
दरअसल, सोम नाम से एक पौधा होता था जो बिना पत्तियों का गहरे बादामी रंग में पाया जाता था। यह पौधा उड़ीसा के महेन्द्र गिरी, राजस्थान के अर्बुद, विंध्याचल, हिमाचल की पहाड़ियों आदि अनेक पर्वतीय क्षेत्रों में पाया जाता था। सोम के रस को दूध में मिलाकर सेवन किया जाता था। हालांकि, वर्तमान में इस पौधे की पहचान करना संभव नहीं हो पाया है। जबकि, कुछ विद्वान मानते हैं कि अफगानिस्तान की पहाड़ियों पर सोम नाम का यह पौधा अब भी पाया जाता है।
– मनीषा परिहार, भोपाल