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जानिए! क्या है मणिमहेश यात्रा का इतिहास?

admin 28 April 2021
MANIMAHESH YATRA_9
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अजय सिंह चौहान  || माना जाता है कि मणिमहेश कैलाश पर्वत पर आज भी उस अलौकिक प्रकाश के दर्शन होते हैं जो भगवान शिव के गले में पहने शेषनाग की मणि से निकलता है। यह प्रकाश इस बात का प्रतीक माना जाता है कि हर सुबह भगवान शिव यहां अपने आसन पर विराजमान हो जातेे हैं। मणिमहेश कैलाश पर्वत हिमाचल प्रदेश के चंबा जिले से लगभग 65 किमी की दूरी पर स्थित है।

मणिमहेश कैलाश की यह यात्रा बाबा अमरनाथ की यात्रा से भी अत्यधिक कठीन और खतरनाक यात्रा कही जा सकती है। लगभग दो सप्ताह तक चलने वाली यह वार्षिक यात्रा श्रीकृष्ण जन्माष्टमी से श्रीराधाष्टमी के बीच आयोजित की जाती है।

हर वर्ष आयोजित होने वाली इस तीर्थ यात्रा में देशभर से हजारों श्रद्धालु दर्शन करने के लिए शामिल होते हैं। प्राचीनकाल से चली आ रही मणिमहेश की इस यात्रा की शुरूआत कब और कैसे शुरू हुई यह तो कोई नहीं जानता मगर पौराणिक कथाओं और मान्यताओं में उल्लेख मिलता है कि जब गुरु गोरखनाथ जी अपने शिष्यों के साथ मणिमहेश यात्रा पर जा रहे थे तो उन्होंने भरमौर में विश्राम किया था।

इसके अलावा भी मणिमहेश कैलाश धाम की इस यात्रा का वर्णन कई प्राचीन दंतकथाओं और ग्रंथों में मिलता है। लेकिन अगर इसके ऐतिहासिक तथ्यों की बात की जाय तो 550 ईस्वी में यानी आज से लगभग 1,470 वर्ष पहले भरमौर के राजा मरुवर्मा के द्वारा भी भगवान शिव के दर्शन और मणिमहेश कैलाश धाम की यात्रा का वर्णन मिलता है।

इसके अलावा भी उल्लेख मिलता है कि ईस्वी सन 920 में उस समय मरु वंश के वंशज और भरमौर के राजा साहिल वर्मा के द्वारा भी मणिमहेश कैलाश धाम की यात्रा की गई थी।

मणिमहेश कैलाश की यह पैदल यात्रा हडसर नामक गांव से शुरू होती है और लगभग 14 किमी का अत्यधिक कठीन और चढ़ाई वाला मार्ग तय करने के बाद ही दर्शन होते हैं पवित्र मणिमहेश कैलाश पर्वत और सरोवर के। मणिमहेश पर्वत की चोटी के ठीक बगल में यहां एक मैदानी क्षेत्र है जिसको भगवान शिव के क्रीड़ास्‍थल के रूप में ‘शिव का चौगान’ के नाम से जाना जाता है। ऐसा माना जाता है कि भगवान शिव और देवी पार्वती यहां क्रीड़ा करते हैं।

प्राकृतिक रूप से निर्मित और कैलाश पर्वत की गोद में स्थित प्रमुख मणिमहेश सरोवर को देखकर आश्चर्य तो होता है लेकिन, ईश्वर के चमत्कारों पर भी विश्वास होता है कि इतने विशाल और सीधे खड़े हिमालय के पहाड़ों के बीच में इस प्रकार का सरोवर और विशाल मैदान भला ईश्वर की मर्जी के बिना कैसे आकार ले सकते हैं?

मणिमहेश कैलाश की यात्रा पर आने वाला हर यात्री सरोवर के बर्फिले पानी में अपनी इच्छा के अनुसार स्नान जरूर करना चाहता है। उसके बाद इस सरोवर के किनारे स्थित सफेद पत्थर की शिवलिंग रूपी मूर्ति की पूजा-अर्चना की जाती है।

तथ्य बताते हैं कि मणिमहेश सरोवर के किनारे स्थापित सफेद पत्थर की शिवलिंग रूपी यह मूर्ति यहाँ छठवीं शताब्दी से स्थापित है। इसी मणिमहेश सरोवर की पूर्वी दिशा में एक बहुत बड़ा और गगनचुंबी नीलमणि के गुण धर्म से युक्त और हमेशा बर्फ से ढंका रहने वाला एक पर्वत है जो कैलाश पर्वत कहा जाता है।

स्थानीय लोगों के बीच ऐसी मान्यता है कि वसंत ऋतु के आरंभ से और वर्षा ऋतु के अंत के लगभग छह महीनों तक भगवान शिव इसी मणिमहेश कैलाश कैलाश पर सपरिवार निवास करते हैं और उसके बाद शरद ऋतु से लेकर वसंत ऋतु तक छः महीने कैलाश से नीचे उतर कर पतालपुर यानी पयालपुर में निवास करते हैं।

मेरी (अजय चौहान) मणिमहेश कैलाश यात्रा के दौरान के कुछ अनुभव

तमाम ऐतिहासिक और पौराणिक साक्ष्यों के आधार पर माना गया है कि मणिमहेश कैलाश पर्वत सनातन धर्म के प्रमुख तीर्थ स्थलों में से एक है और इसकी यात्रा हजारों सालों से चली आ रही है। पौराणिक ग्रंथों और साहित्य में इसे वैदूर्यमणि या नीलमणि पर्वत के नाम से जाना जाता है। जबकि अंग्रेजी साहित्य में इसे टरकोइज माउंटेन लिखा गया है।

शोधकर्ताओं का मानना है कि वैसे तो यहां सूर्योदय के समय क्षितिज में लालिमा छाई रहती है और इसके साथ ही प्रकाश की सुनहरी किरणे निकलती हैं। लेकिन, मणिमहेश कैलाश पर्वत के पीछे से जब सूर्योदय होता है तो यहां के आकाशमंडल में नीलिमा छा जाती है और सूर्य के प्रकाश के साथ नीले रंग की किरणे निकलती हैं। जिससे यहाँ का पूरा वातावरण टरकोइज या नीले रंग के प्रकाश से ढक जाता है। यह इस बात का प्रमाण है कि अवश्य ही इस कैलाश पर्वत में नीलमणि के गुण-धर्म मौजूद हैं जिनसे टकराकर प्रकाश की किरणें नीले रंग की हो जाती हैं।

यदि मैं अपनी बात करूं तो मैंने स्वयं भी अपनी मणिमहेश कैलाश यात्रा के दौरान यह प्राकृतिक चमत्कार देखा है और यहां के लोगों का भी यही कहना है कि कैलाश पर्वत की चोटी से थोड़ा-सा नीचे की ओर बर्फ से घिरी एक छोटी सी शिखर पिंडी के रूप में दिखाई देती है। स्थानीय गडरिये और यहां आने वाले कई पर्वतारोहियों का मानना है कि इस पिंडी का आकार बहुत ज्यादा बर्फ गिरने पर भी हमेशा उसी प्रकार से दिखाई देता है। श्रद्धालुजन इसी पिंडी को भगवान शिव का रूप मानकर उसका दर्शन करते हैं।

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