गंगा यानी वही ममतामयी माता जिनके आगे माथा पटक कर भारत की अपढ़ आस्थावान माताएं युगों युगों तक सन्तान मांगती रही हैं। सन्तान ही क्यों, सुख समृद्धि घर-वर सबकुछ…गंगा से भारत का सबसे बड़ा परिचय सर्वफलप्रदायिनी माता के रूप में है।
सरस्वती के तट पट बसी संस्कृति जब नदी के सूखने पर पूर्व की ओर पलायित हुई तो कोसों चलने के बाद जीवन का एक निर्मल स्रोत दिखा। दरिद्रता, भूख और मृत्यु से हार कर भागती संस्कृति एकाएक जी उठी और भीड़ के मुँह से समवेत स्वर निकला, माँ… आँखों में उतर आए जल के साथ उस भीड़ ने नतमस्तक हो कर प्रणाम किया, और नाम दिया गंगा… गंगा मइया…
जब किसी बच्चे से कोई गलती हो जाय और वह माँ के आँचल में छिप कर उससे बता दे तो उसे लगता है कि अब माँ बचा लेगी। वह मुक्त हो जाता है। गङ्गा में पाप धोने की अवधारणा के पीछे भी शायद यही तर्क रहा होगा। गंगा पूरी सभ्यता की माँ है। उस माँ की गोद मे खड़े हो कर बेटा अपनी गलतियों को स्वीकार कर ले और सच्चे हृदय से प्रायश्चित कर ले तो मुक्त हो ही जायेगा। कम से कम मन को तो शान्ति मिल ही जाएगी।
जाने कितनी पीढ़ियों ने गङ्गा के जल में अपने अपराध धोए हैं। जीवन के साथ भी, जीवन के बाद भी… जाने कितनी पीढ़ियों की अस्थियां संग्रहित हैं उस पवित्र गोद में… मेरे बाबा कहते थे, गंगा में अस्थि विसर्जन का एक लाभ यह भी है कि मृत्यु के बाद भी मां की गोद मिल जाती है। साथ ही साथ मृत्यु के बाद व्यक्ति का अवशेष अपने समस्त पूर्वजों से अवशेषों से मिल जाता है, और उसके बच्चे भी अपने समस्त पूर्वजों को एक ही साथ महसूस कर लेते हैं। कभी गंगा स्नान को जाइये तो उस अथाह जलधारा को इस दृष्टि से भी देखिये कि उसकी गोद में आपके समस्त पूर्वजों की अस्थियां हैं। मैं जानता हूँ, आप रो उठेंगे।
गंगा की गोद में केवल जल नहीं, धर्म बहता है। सम्पूर्ण सनातन बहता है, पूरा भारत बहता है। गंगा को प्रणाम करना सम्पूर्ण सनातन को प्रणाम करना है।
गंगा मैया भारत के समस्त दुख-सुख की एकमात्र साक्षी हैं। उन्होंने अपने तट पर विश्व के कल्याण के लिए तपस्या करते सन्तों को भी देखा है, और अपने जल में तलवारों का खून साफ करते अरबी लुटेरों को भी… गंगा ने विश्वनाथ मंदिर को तोड़ती डायन रजिया सुल्तान को भी देखा है, और मन्दिर निर्माण करने वाली महारानी अहिल्याबाई होलकर को भी… वो सब जानती हैं। तभी तो पूरी सभ्यता की माँ हैं…
कभी बनारस में गंगा मइया के तट पर बैठ कर पण्डितराज जगन्नाथ शास्त्री ने गंगा की सबसे सुंदर स्तुति लिखी थी, गंगालहरी… मैं संस्कृत नहीं समझ पाता, पर मेरी मातृभाषा भोजपुरी में हजारों वर्षों से माताएं गंगा मइया के गीत गाती रही हैं। गंगालहरी और उन लोकगीतों की भाषा और शैली में भले अंतर हो, पर उनके रचनाकारों की आस्था और भावनाओं में कोई अंतर नहीं होगा… गंगा को सबने अपनी माँ की तरह ही पूजा होगा।
– सर्वेश तिवारी श्रीमुख (गोपालगंज) बिहार