प्रश्न – निग्रहाचार्यों के द्वारा यदि अनुशासनहीनता हो अथवा वे अपने पद एवं शक्ति का ईर्ष्या -द्वेष के कारण दुरुपयोग करने लगेंगे तो उन्हें किससे और क्या दण्ड मिलेगा?
उत्तर – जैसे श्रीशङ्कराचार्य जी ने “मठाम्नाय महानुशासन” के माध्यम से स्वपरम्परा की मर्यादा को परिभाषित किया है वैसे ही श्रीनिग्रहाचार्य की परम्परा में श्रीनिग्रहेश्वरी देवी की “चतुष्पीठाज्ञापारमेश्वरी” का संविधान चलता है। एक बार यदि किसी व्यक्ति ने आज्ञापारमेश्वरी की प्रतिज्ञा लेकर आज्ञाधारक बनना स्वीकार कर लिया, फिर चाहे वह निग्रहाचार्य हो या निग्रहपुत्र (शिष्यपुत्राः कृतान्वये के अनुशासनानुसार), वह आज्ञाभङ्ग नहीं कर सकता है।
निग्रहाचार्यों को अनुशासनहीनता का दण्ड स्वयं भगवान् सर्वशास्ता निग्रहेश्वर एवं भगवती निग्रहेश्वरी के माध्यम से ही मिलता है। दण्ड के रूप में पहले एक चेतावनी और फिर सीधे “मृत्युदण्ड” ही मिलता है, इसमें कोई विकल्प नहीं है किन्तु निग्रहाचार्यों को मिलने वाला मृत्युदण्ड भी निश्चित विधान से अनुशासित है।
उड्डियाणे प्रविष्टो यो वीरो दर्पं करिष्यति॥
दारिद्र्यं मरणं तस्य मासमेकं स जीवति।
जालन्धरे तु यो दर्पं मूढात्मा च करिष्यति॥
तस्करो हनते तस्य नदी वा व्याधिदारुणा।
षण्मासं जीवितं तस्य म्रियते बान्धवैः सह॥
अथवा पूर्णपीठे तु द्वेषं सञ्चरते तु यः।
अहङ्कारञ्च कुरुते अग्निदाहाद्विनश्यति॥
अथवा विषसङ्ग्रामे म्रियते मासपञ्चमे।
कामरूपे सुखासीनः कश्चिद्दर्पं करिष्यति॥
अदृष्टमुद्गराघातः पतते तस्य मूर्द्धनि।
शुष्यते स्वशरीरेण म्रियते पक्षमध्यतः॥
दर्पं कृत्वा तु सुभगः स गुरुर्नरकं व्रजेत्।
तस्मात्तस्य न भुक्तिः (मुक्तः) स्यात्परत्र च न विद्यते॥
तस्माद्दर्पं न कर्तव्यं विद्वेषं न समाचरेत्।
(महामन्थानभैरवतन्त्रे कुमारिकाखण्डे विमलषट्कनिर्णये
कादिभेदे आज्ञापारमेश्वरस्वामिनीमते षष्ठानन्दे)
सत्ययुग के अन्तर्गत उड्डीयान पीठ पर बैठे वीर (निग्रहाचार्य) यदि अपने पद एवं शक्ति का अभिमान करते हुए दुरुपयोग करते हैं तो उन्हें चेतावनी के रूप में पहले भीषण दरिद्रता और फिर एक महीने के भीतर मृत्युदण्ड मिल जाता है। त्रेतायुग के अन्तर्गत जालन्धर पीठ पर बैठे निग्रहाचार्य यदि मूढात्मा हो जायें और अपने पद एवं शक्ति का अभिमान करते हुए दुरुपयोग करने लगें तो चेतावनी के रूप में भीषण रोग और फिर छह महीनों के भीतर डाकुओं के आक्रमण के द्वारा या नदी में डूब कर पूरे परिवार के साथ मृत्यु होने का दण्ड दिया जाता है।
द्वापरयुग के अन्तर्गत पूर्णगिरि पीठ पर बैठे निग्रहाचार्य यदि ईर्ष्या द्वेष के कारण अपने पद एवं शक्ति का दुरुपयोग करते हुए भ्रमण करने लगें तो चेतावनी के रूप में युद्धजन्य सङ्कट आदि प्रदर्शित करके पांच महीने की अवधि में युद्ध, अग्नि अथवा विष के माध्यम से उन्हें मृत्युदण्ड दे दिया जाता है। कलियुग के अन्तर्गत कामरूप पीठ में सुखपूर्वक प्रतिष्ठित निग्रहाचार्य यदि अहङ्कार के कारण अपने पद एवं शक्ति का दुरुपयोग करने लगें तो उनके मस्तक पर देवी अपने मुद्गर से प्रहार करती हैं जो दिखाई तो नहीं देता किन्तु उसके प्रभाव से चेतावनी के रूप में आचार्य का शरीर बहुत शीघ्रता से सूखने लगता है, दुबला हो जाता है और पन्द्रह दिनों की अवधि में मृत्यु हो जाती है।
जो सौभाग्यशाली व्यक्ति निग्रहाचार्य के रूप में गुरुपद पर बैठकर पदासीन होने का अहङ्कार करता है, वह दण्डित होकर नरक जाता है और वहाँ से उसका उद्धार नहीं होता। अतः अहङ्कार और द्वेष के कारण निग्रहाचार्यों को कोई कार्य नहीं करना चाहिए।
श्रीपूर्वान् भाषयेत् सर्वान् पीठान्ते यान् व्यवस्थितान्।
तेभ्यो लब्धवरो भूत्वा रुद्रलोके महीयते॥
(महामन्थानभैरवतन्त्रे कुमारिकाखण्डे विमलषट्कनिर्णये
कादिभेदे आज्ञापारमेश्वरस्वामिनीमते षष्ठानन्दे)
चतुष्पीठपरम्परा में आचार्यपद पर व्यवस्थित रूप से बैठे सभी जनों के नाम के आगे “श्री” लगाकर ही व्यवहार करना चाहिए। इनकी प्रसन्नता से प्राप्त वरदान के फलस्वरूप व्यक्ति रुद्रलोक में प्रतिष्ठित होता है।
निग्रहसम्प्रदाय में उड्डीयान, जालन्धर, पूर्णागिरि और कामरूप, ये चार प्रधान पीठ होते हैं। ये चारों पीठ शाक्तों के अन्य प्रभेदों में भी समान रूप से मान्य हैं। निग्रहाचार्यों का मुख्यालय सत्ययुग में उड्डीयान पीठ, त्रेतायुग में जालन्धर पीठ, द्वापरयुग में पूर्णागिरि पीठ और कलियुग में कामरूप पीठ होता है।
इसके अतिरिक्त निग्रहसम्प्रदाय में एक गुप्त पीठ और है जो अभी प्रकट नहीं है, जिसमें बाकी चारों पीठों की परम्परा का विलय हो जायेगा। उसे जागृत करने आगामी निग्रहाचार्य आयेंगे।
चतुष्पीठावतारोऽयं निर्णीतं तु चतुर्युगे।
अटते यो हि सत्येन आचार्यः स कुले भवेत्॥
(महामन्थानभैरवतन्त्रे कुमारिकाखण्डे विमलषट्कनिर्णये
कादिभेदे आज्ञापारमेश्वरस्वामिनीमते षष्ठानन्दे)
चारों युगों का ऐसा ही चतुष्पीठावतार निर्णीत किया गया है। जो व्यक्ति इस पृथ्वी पर सत्य का आश्रय लेकर भ्रमण करने का व्यक्तित्व रखता है, वही इस कुल में आचार्यपद पर अभिषिक्त हो सकता है, यही आज्ञापारमेश्वरी का अनुशासन है।
– निग्रहाचार्य श्रीभागवतानंद गुरु जी के फेसबुक वाल से