आजकल कहा जाता है कि बड़े शहरों में बुजुर्गों का महत्त्व कम होता जा रहा है। लेकिन, पहले भी तो राजाओं को उनके बच्चे कैदखानों में डाल देते थे। क्या औरंगजेब ने अपने पिता शाहजहां को कैद नहीं किया?
मनोचिकित्सकों के अनुसार हमारे शहर पत्थरों के हो गए हैं, और इन शहरों में बुजुर्ग अलगाव का शिकार हो रहे हैं। बड़ी बड़ी इमारतों में आकाश चूमते ऊंचे फ्लैट्स में वे रह रहे हैं, पर बात करने वाला कोई नहीं।
क्या यह नया चलन है कि बुजुर्ग अपने जीवन की ढलती शाम में तनहा हैं बागबान जैसी फिल्मों द्वारा यह दिखाने का प्रयास किया गया कि बुजुर्गों की स्थिति दयनीय है। बुजुर्गों को सहारा देना तो दूर, उनसे बात करने वाला भी कोई नहीं होता।
आरोप लगते रहे हैं कि बुजुर्गों के परिवार में लोग उनसे बातचीत नहीं करते हैं और न समाज उनके लिए समय निकालता है। समय पर खाना न मिलना, दवाई की व्यवस्था न होना, ध्यान रखने वाले का न होना उनकी समस्याओं में शामिल रहा है।
ध्यान योग्य बात यह है कि जो आज बुजुर्ग हैं, वे कभी परिवार का एक महत्त्वपूर्ण अंग होते थे, जिनसे नई पीढ़ी को संस्कृति और मूल्यों का पाठ पढ़ने-सीखने का अवसर मिला। असमंजस की स्थिति यह है कि बुजुर्ग घरों से दूर होते जा रहे हैं।
यह बात केवल आज की नहीं है। कल भी ऐसा हुआ था। आगे भी होगा, अगर वर्तमान मानसिकता बरकरार रही तो। दोष न बुजुर्गों का है ना ही परिवारों का। अपनी जगह सब ठीक हैं। लेकिन, आज के परिवेश में बुजुर्ग सिर्फ मान ही तो चाहते हैं। हम थोड़ा समय उन्हें दें, उनकी बातें सुन लें, इतने से ही वे संतुष्ट हो जाते हैं। हालांकि, कुछ लोगों में अहं भी देखा जाता है जो अपने बेटे-बेटियों-बहू-दामादों को अपनी गिरफ्त में रखना चाहते हैं। कुछ फाइनेंशियल सिक्यूरिटी चाहते हैं तो कुछ अपने परिवार में सरदार होने का ओहदा। जबकि कुछ का कहना है कि बुजुर्गों को अपने अनुशासन थोपने नहीं चाहिए और बाकायदा समय के साथ चलना चाहिए।
– संत कुमार