अजय सिंह चौहान || जी हाँ ये बात सच है कि जालौर के राजकुमार वीरमदेव चौहान ने मरने से पहले एक युद्ध में 40 से भी अधिक तलवारें तोड़ दी थीं और अलाउद्दीन खिलजी के 500 से अधिक सैनिकों को अकेले ही मार दिया था। उस समय राजकुमार वीरमदेव चौहान की उम्र मात्र 22 वर्ष की ही थी।
दरअसल, बात सन 1298 की है। उन दिनों दिल्ली की गद्दी पर अलाउद्दीन खिलजी बैठा हुआ था। राजकुमार वीरमदेव सोनगरा चौहान जालौर की तरफ से समझौते के तहत अलाउद्दीन खिलजी के सलाहकार के तौर पर दिल्ली गए हुए थे।
ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार, राजकुमार वीरमदेव चौहान उस समय जालोर के सबसे बड़े योद्धा होने के साथ देखने में सुन्दर और सुडोल थे। बस फिर क्या था दिल्ली दरबार में रहने के दौरान अलाउद्दीन खिलजी की शहजादी फिरोजा की नजर उन पर पड़ गई और राजकुमार से एकतरफा प्रेम कर बैठी।
बात खिलजी तक पहुँची। खिलजी ने अपनी बेटी की खुशी के लिए राजकुमार वीरमदेव चौहान के सामने इस शादी का प्रस्ताव रख दिया। लेकिन, राजकुमार वीरमदेव ने सुलतान खिलजी की तरफ से दिए गए उस विवाह प्रस्ताव को सामाजिक परम्पराओं को ध्यान में रखते हुए स्वयं ही मान्यता नहीं दी और रिश्ते को ठुकराते हुए जालोर वापस लौट आये।
इतिहासकारों का कहना है कि राजकुमार वीरमदेव के प्रति शहजादी फिरोजा का एकतरफा वह प्रेम इतना अधिक था कि उसका विवाह प्रस्ताव ठुकरा देने के बाद भी फिरोजा ने मन ही मन राजकुमार वीरमदेव चौहान को अपना पति मान लिया था।
राजकुमार वीरमदेव के द्वारा विवाह प्रस्ताव ठुकरा दिए जाने के बाद अलाउद्दीन खिलजी अपमान की आग में जलने लगा। बदला लेने के लिए खिलजी ने जालोर पर आक्रमण के लिए कई बार अपनी सैन्य टुकड़ियां भेजीं, लेकिन राजकुमार वीरमदेव की वीरता के सामने हर बार उसे हार का सामना करना पड़ा।
आखिरकार सन 1310 में अलाउद्दीन खिलजी ने अपने सेनापति कमालुद्दीन को एक विशाल सैन्यदल के साथ जालौर पर बड़े हमले के लिए भेजा। सेनापति कमालुद्दीन ने जालौर दुर्ग को घेर लिया। कई दिन बीत चुके थे। लेकिन फिर भी वह जालौर को नहीं जीत सका था।
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लेकिन, एक दिन राजा कान्हड़ देव की सेना के एक सरदार ने विश्वासघात कर दिया और खिलजी की सेना को जालौर दुर्ग के गुप्त रास्ते का रहस्य बता दिया। उस विश्वासघाती की वजह से खिलजी की सेना जालौर दुर्ग पर कब्जे के लिए गुप्त द्वार से घुसने लगी।
उधर, जालौर दुर्ग को बचाने के लिए राजा कान्हड़देव ने खुद गुप्त द्वार पर मोर्चा संभाला और अलाउद्दीन खिलजी के 50 से अधिक सैनिकों को मार गिराया, और आखिरकार खुद वीरगति को प्राप्त हो गए।
राजा कान्हड़देव के वीरगति को प्राप्त होने के बाद जालौर के उस दुर्ग में मौजूद रानियों के अलावा अन्य सभी हज़ारों स्त्रियों और छोटी बच्चियों ने अपनी इज्जत बचाने की खातिर जौहर कर लिया।
राजा कान्हड़देव के बाद युद्ध का सारा भार उनके पुत्र राजकुमार वीरमदेव पर आ गया था। राजकुमार वीरमदेव तीन दिनों तक लगातार उस युद्ध को लड़ते रहे और मुगल सैनिकों को दुर्ग में घुसने से रोकते रहे।
इतिहासकारों का कहना है कि लगातार तीन दिनों तक चले उस युद्ध में वीर राजकुमार ने जिस प्रकार से युद्ध किया उसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि दुश्मनों पर वार करते करते उन्होंने 40 से भी अधिक तलवारें तोड़ डाली और करीब 500 से अधिक दुश्मनों को अकेले ही मार डाला था।
लेकिन, वो समय भी आ ही गया जब राजकुमार वीरमदेव ने भी “केसरिया बाना” पहन कर मात्र 22 वर्ष की अल्पायु में ही अंतिम युद्ध लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त किया।
इतिहासकारों के अनुसार, खिलजी की उस सेना के साथ शाहजादी फिरोजा की “सनावर” नाम की एक धाय भी युद्ध में सेना के साथ आई हुई थी। राजकुमार वीरमदेव के वीरगति को प्राप्त होने के बाद “सनावर” ने उनका मस्तक काट लिया और उसे सुगन्धित पदार्थों में रख कर खिलजी के सामने पेश करने के लिए दिल्ली ले गई।
शाहजादी को खबर मिली की वीरमदेव का कटा हुआ मस्तक लेकर सनावर धाय महल में प्रवेश करने वाली है तो वह व्यथित हो गई और वीरमदेव के उस चेहरे की एक झलक देखने के लिए किसी सुहागिन हिन्दू स्त्री की भांति सजधज कर सती होने की तैयारी कर के बैठ गई।
इतिहासकारों का कहना है कि वीरमदेव के चेहरे की एक झलक देखने के बाद फिरोजा ने कहा था कि – “आज तुम मेरे साथ नहीं हो तो क्या हुआ, मैंने तो तुम्हें अपना जन्म-जन्मांतर का साथी माना था, इसलिए आज मैं पूर्ण रूप से हिन्दू बन गई हूँ। अब अपना मिलन अग्नि की ज्वाला में ही होगा। इतना कहने के बाद शहजादी फिरोजा अपने कक्ष में गई और सती हो गई।
आज भी जालौर में सोनगरा की पहाड़ियों पर स्थित पुराने किले में शहजादी फिरोजा की याद में उसके नाम का समाधि स्थल मौजूद है। इस समाधि स्थल को “फिरोजा की छतरी” के नाम से जाना जाता है। इस समाधि स्थल पर विशेष तौर पर हिन्दुओं को भारी संख्या में देखा जा सकता है।