संघ के विचारक रहे देवेन्द्र स्वरूप जी विद्वान थे। 2019 में उन्हें पद्मश्री भी मिला था। वह दीनदयाल शोध संस्थान के निदेशक व उपाध्यक्ष रहे और उसके बाद संघ के मुखपत्र पांचजन्य के संपादक भी रहे। उन्होंने अयोध्या आंदोलन के दौरान काफी सारे लेख लिखे जिसे ग्रंथ अकादमी ने ‘अयोध्या का सच’ नाम से बहुत पहले छापा था।
उन्होंने 9 मार्च 2002 में राष्ट्रीय सहारा में एक लेख लिखा था, शीर्षक था, “अयोध्या आंदोलन का लक्ष्य मंदिर नहीं, राष्ट्रवाद।” इस लेख का पेज नीचे संलग्न हैं। आप पढ़ सकते हैं जिसमें वह लिख रहे हैं कि ‘अयोध्या आंदोलन का मुख्य उद्देश्य ‘राष्ट्रीयता’ रहा है।’
अभी भी किरण रिजिजू जैसे भाजपा नेता व मंत्री इसी राष्ट्रीयता के वशीभूत होकर नये बन रहे राम मंदिर को ‘राष्ट्र मंदिर’ कह रहे हैं। शायद यही कारण है कि इस मंदिर निर्माण में बड़े पैमाने पर गो-मांस भक्षी म्लेच्छों को ठेका दिया गया है, जबकि मंदिर पवित्रता और शुचिता की जगह है। संघ-भाजपा हमेशा मुस्लिमों को खुश करने के लिए हिंदुओं की धार्मिकता को डायल्यूट करने के लिए राष्ट्रवाद का जुमला उछालने और हिंदुओं को भ्रमित करने में सफल रहे हैं।
असल में 1992 के बाद उस दौर में बाबरी विध्वंस से पिंड छुड़ाने के लिए भाजपा नेताओं (आडवाणी, वाजपेई, रज्जू भैया आदि के बयान उपलब्ध हैं) और संघी विचारकों/लेखकों के ऐसे ही विचार प्रकट होते थे। ये लोग बाबरी विध्वंस को अपने जीवन का काला अध्याय बताते नहीं थकते थे।
वाजपेई के शासनकाल में भी संघ विचारधारा के लोग मंदिर से पल्ला झाड़ने की कोशिश में जुटे रहते थे। हिंदुओं के लिए ‘बहुमत नहीं है’ का ढाल काम आता था, वहीं वामपंथी लेखक/विचारक/इतिहासकार जब भी संघ परिवार पर बाबरी विध्वंस का आरोप लगाता था तो ये जोर-शोर से बोल और लिख कर उससे पल्ला झाड़ने और राष्ट्रवाद का नारा बुलंद करने लगते थे।
भाजपा का 1980-1990 के दशक में यह मानना था कि मंदिर पर अदालत का निर्णय हमें मान्य नहीं होगा, क्योंकि यह आस्था का विषय है। फिर जब बाबरी विध्वंस हुआ और केंद्र में अल्पमत की वाजपेई सरकार बनी तो मंदिर को राष्ट्रवाद की ओर मोड़ा और जब पूर्ण बहुमत की मोदी सरकार बनी तो कहा न्यायालय जो फैसला देगी, वह हमें मान्य होगा।
अब जब मंदिर बन रहा है तो मुसलमानों को कह रहे हैं कि मंदिर सुप्रीम कोर्ट ने दिया और हिंदुओं को कह रहे हैं कि मोदी जी ने दिया! दोनों हाथों से गेंद उछालने से ‘राष्ट्र मंदिर’ की अवधारणा पूर्ण हो जाती है, इसलिए संघी कभी सनातन धर्म की ‘शास्त्रीयता’ और ‘अनुष्ठान’ की परवाह नहीं करते! उनका चुनावी उद्देश्य सध जाता है, वो इसी में प्रसन्न रहते हैं। यही कारण है कि सनातन संस्कृति और सभ्यता के पुनरुत्थान की दूरदृष्टि उनके एजेंडे में कभी नहीं रहा है!
अब मुझे भय है कि 2014 के बाद पैदा हुआ ‘नव-हिंदू’ कहीं देवेन्द्र स्वरूप जी जैसे संघी विद्वान को भी देशद्रोही न कह दे, क्योंकि उनका साफ मानना था कि जबरदस्ती अयोध्या आंदोलन को विश्व हिंदू परिषद और संघ परिवार के खाते में क्यों डाला जा रहा है? (संलग्न पेज-१) साभार – संदीप देव