बात उस साल की है जिसे बीते कई साल हो गए। जब हम जमीन पर बैठ कर अंतरिक्ष में क्या हो रहा है पढ़ा करते थे। गणतंत्र और स्वतंत्रता दिवस में फर्क नहीं कर पाते थे। वजह बस इतनी सी थी दोनों ही अवसरों पर तिरंगा फहराते थे। हां इतना जरूर जानते थे, एक जनवरी में और एक अगस्त में पड़ता है। कुछ सुनते थे कुछ सुनाते थे। लड्डू खाते जहां आचार्य जी की कड़ी निगरानी होती थी कोई दुहरा न दे और खुशी खुशी घर चले आते थे।
इन राष्ट्रीय पर्व की तैयारी हम हफ्तों पहले से करते थे और उनकी यादें आज तक संजोए हैं।
स्कूल की फील्ड के सारे गड्ढे हम बच्चे आचार्य जी के कहते ही नहर से मिट्टी लाकर भर देते थे। झंडा फहराने के लिए बनाया गया तीन तल्ला चबूतरा हमारे कला कौशल का छोटा सा नमूना होता था। इन सब तैयारियों के बाद एक बैठक बुलाई जाती थी जहाँ हमारे कपड़े नाखून बाल के सही स्वरूप पर चर्चा होती थी और सबकी जिम्मेदारी तय होती थी कौन फूल लाएगा कौन रंगी भूसी और कौन मैनेजर साहब के घर से लग्गी और बड़ा वाला झंडा साथ में उसकी डोर।
जिम्मेदारी तय होने के बाद घर आते थे। उस वक्त रेडीमेट तिरंगा प्रचलन में नहीं था तब ताव, हरा लाल स्केज़ पेंसिल रबड़ खरीदा जाता था। 3:2 का अनुपात नहीं पता होता था। हां पर इतना जरूर था कि ऊपर लाल नीचे हरा और चक्र में 24 तीली ही होनी चाहिए। कई प्रयास के बाद तिरंगा बन ही जाता था। एक बड़ी सी कईन में झंडा लगा के सील दिया जाता था।
अगली सुबह दो कोश की प्रभातफेरी होती थी। वह भी गगनभेदी नारों और गानों के साथ – “विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, झंडा ऊंचा रहे हमारा।”
क्या मजाल झंडा जरा भी झुक जाए। आचार्य जी आठ लोग ही थे और पंक्ति काफी लंबी तो हमारे बीच से ही कुछ झुंड नियंत्रक इस विशेष दिन के लिए तैयार किये जाते थे और इन्हें भी आचार्य जी जितना पावर कुछ घंटों के लिए मिल जाता था।
सुबह से शुरू हुई प्रभात फेरी दोपहर तक पूरे क्षेत्र का भ्रमण करके पुनः स्कूल पर पहुंचने के पश्चात लाइन तोड़ी जाती थी ।
सबके तिरंगे वाली कईंन को इकट्ठा किया जाता था। जिससे हम लोगों की अगले त्यौहार तक शारीरिक समीक्षा होती थी कभी-कभी यादव आचार्य जी मुन्सी जी मड़ई छाने या खाँची बिनने हेतु अपने घर ले जाते थे।
प्रभातफेरी SC, ST, OBC, GEN और अल्पसंख्यक सबके दरवाजे पर जाती थी लोग बच्चों को मिठाइयां खाने को पैसे भी देते थे। उस वक्त देशभक्ति का ठेका किसी जाति धर्म या पार्टी विशेष के पास नहीं होता था। उन्ही पैसे को जोड़कर मिठाइयां आती थी ईनाम के लिए कॉपी पेन लाया जाता था।
जबरदस्त उत्साह के साथ हमारा 26 जनवरी और 15 अगस्त मन जाता था। हो सकता है इन सब के कारण हम किताबी कीड़ा न बने हो पढ़ाई में पीछे रहे हो पर इन क्रिया कलापों से जो व्यवहारिक ज्ञान हुआ उसका मुकाबला आज के मॉर्डन स्कूल कभी नही कर सकतें हैं, वो तो आप को पैसा कमाने की मशीन ही बना पाएंगे।
आज फिर गणतंत्र आया है इस साल हम 74वां गणतंत्र दिवस मना रहे हैं फिर भी वो बचपन वाला उत्सव नहीं है हमारे मन में, आखिर क्यों? शायद तब हमें ये लगता था, ये देश हमारा है इसपे हमारा अधिकार है अंग्रेजों को हमने खदेड़ दिया है अब हमारे लोग हैं हमारा कानून है इस देश में ।
गणतंत्र अर्थात जनता का तंत्र जहां जनता के हितों की चर्चा होगी जनता ही शासक होगी जनहित की रक्षा संविधान करेगा पर कड़वी सच्चाई यह है सिद्धन्तिक संविधान और व्यवहारिक संविधान में जमीन आसमान का अंतर है।
संविधान कहता है भारत के प्रत्येक नागरिक को समान अधिकार है, पर है क्या सवाल है? सरकारें जनता की सेवक हैं, पर हैं क्या सवाल है? आम और खास सबके लिए कानून एक है। है क्या सवाल है?
सत्ता पाने तक गण की, उसकी गरीबी की चर्चा होती है फिर तंत्र भूल जाता है।गणतंत्र आज भी ठण्ड में ठिठुर कर भूख से मर रहा है तुम्हे चौथी पंक्ति में जगह मिली सुना है नाराज़ हो और हमारा क्या हमें तो सदियों से किसी भी पंक्ति में स्थान नहीं मिला हम किससे कहें अपनी नाराजगी।
स्वतंत्रता दिवस अगर उत्सव का दिन है, तो गणतंत्र दिवस आत्मनिरीक्षण का हमें गर्व है हम विश्व के सबसे बड़े गणतंत्र हैं जहां गण मौन है और उसपर उसी का चुना हुआ तंत्र सवार है।
– अमित कुमार सिंह