सम्पूर्ण संसार जानता है कि, यदि भारतवर्ष की नारी अपने ‘नारीधर्म’ का परित्याग कर देती तो आज का यह ‘हिन्दुस्थान’ सम्पूर्ण विश्व की दृष्टि में कब का गिर गया होता. सही मायनों में देखा जाय तो प्राचीनकाल से लेकर आज तक के हमारे देश की आन-बान और शान हिन्दू समाज की नारी ने ही रखी है.
भारत के प्राचीनकाल से लेकर आधुनिककाल तक का इतिहास इस बात का गवाह है कि युद्ध में जाने के पूर्व एक नारी अपने वीर पति और पुत्रों के माथे पर ”तिलक लगाकर” गर्व के साथ युद्धस्थल के लिए भेजती थी, और आवश्यकता पड़ने पर स्वयं भी युद्धक्षेत्र में कूद जाया करती थी, किन्तु अपने आत्मसम्मान से समझौता नहीं करती थी.
दुर्भाग्य है कि वर्तमान में भारत की दूषित और पक्षपात से युक्त पाश्चात्य शिक्षा के प्रचार-प्रसार के प्रभाव के कारण, उसी नारी के अधिकारों के लिए आन्दोलन चल पड़े हैं, ताकि वही नारी किसी भी प्रकार से अपना अस्तित्व भूल जाए और पश्चिमी शिक्षा के माध्यम से ग़ुलाम बन कर उसी पश्चिम और अरब की नारी की भाँती एक भोग्या बन कर रह जाय.
विभिन्न प्रकार के षड्यंत्रकारी और संस्थागत आंदोलनों की आड़ में आज हिन्दू नारी के लिए अधिकार माँगने और उसे अधिकार देने के अलग-अलग पैमाने बन चुके हैं. जहाँ एक और सिर्फ हिन्दू समाज की नारियों के लिए ही उन विशेष अधिकारों की मांग की जा रही है जो उसके पास पहले से ही मौजूद हैं, वहीं पश्चिम और अरब की नारियों को यही आधुनिक समाज वो स्थान अब तक नहीं दिला पाया है.
जहाँ एक हिन्दू स्त्री को पूजनीय माता और सृष्टिकर्ता के रूप में सम्मान दिया जाता है वहीं अन्य समाजों में उसे मात्र एक भोग्या के तौर पर देखा जाता है. किसी भी समाज की स्त्री के लिए सम्मान का यही पैमाना अधिकारों की वास्तविकता को दर्शाता है.
– गणपत सिंह, खरगोन (मध्य प्रदेश)