भारत सहित पूरी दुनिया में अधिकारों को लेकर संघर्ष देखने-सुनने को मिलता रहता है। लोकतांत्रिक देशों में तो यह सब और अधिक देखने-सुनने को मिल रहा है। हाालांकि, लोकतांत्रिक देशों में संवैधानिक रूप से मानव अधिकारों की विधिवत लिखित व्यवस्था की गई है किन्तु इसके साथ-साथ संवैधानिक रूप से कर्तव्यों की भी व्यवस्था की गई है परन्तु आम जन-जीवन में जब कर्तव्यों की बात आती है तो अधिकांश लोग आना-कानी करने लगते हैं।
किसी भी समस्या के लिए सरकार को दोषी ठहरा दिया जाता है और ठहराना भी चाहिए क्योंकि शासन-प्रशासन ठीक से चले, इसकी जिम्मेदारी सरकार की होती है किन्तु सरकार एवं शासन-प्रशासन को कोसते समय एक बार अपने गिरेबान में झांक लेना चाहिए कि जिस समस्या के लिए हम सरकार को कोस रहे हैं क्या उसके निदान में कुछ जिममेदारी हमारी भी बनती है? यानी कहने का आशय यह है कि वर्तमान परिस्थितियों में हालात जिस प्रकार के बन चुके हैं, ऐसे में प्रत्येक स्तर पर जिम्मेदारी-जवाबदेही का निर्धारण नितांत आवश्यक हो गया है।
नैतिकता के धरातल पर यदि प्रत्येक व्यक्ति अपनी जिम्मेदारियों को समझता तो हर स्तर पर जिम्मेदारी-जवाबदेही के निर्धारण की आवश्यकता नहीं पड़ती किन्तु आज स्थिति इस प्रकार की दिख रही है कि भगत सिंह पैदा तो हों, किन्तु मेरे नहीं पड़ोसी के घर में।
यानी जब बलिदान की बात आये तो मुझे नहीं पड़ोसी को करना पड़े। ऐसे में संवैधानिक एवं कानूनी रूप से कदम-कदम पर जिम्मेदारी-जवाबदेही बहुत आवश्यक हो गई है। इस बात की जानकारी पहली ही नजर में सभी को हो जानी चाहिए कि यदि कोई गलती हुई है तो उसके लिए जिम्मेदार कौन है? उस गलती के लिए सजा किसे मिलनी चाहिए? कुल मिलाकर कहने का आशय यह है कि बार-बार होने वाली भूलों एवं गलतियों को रोकने के लिए ऐसा करना ही होगा।
अभी कुछ दिनों पहले गाजियाबाद में एक श्मशान घाट में छत गिरने से कई लोगों की मौत हो गई। यह कैसी विडंबना है कि जो लोग अपने स्व-जन के अंतिम संस्कार में आये थे, उन्हीं के साथ बेवक्त उन्हें भी काल ने निगल लिया। इसे मात्र ईश्वर की इच्छा मान लेने से बात बनने वाली नहीं है। यह सभी को पता है कि भारी भ्रष्टाचार के कारण निर्माण कार्यों में घटिया सामग्री लगाई जाती है, बाद में उसका खामियाजा आम लोगों को भुगतना पड़ता है।
वर्षों से हिन्दुस्तान में एक ऐसी प्रवृत्ति बनी हुई है कि कोई भी दुर्घटना हो जाने पर थोड़ा हो-हल्ला मचता है और पूरा मामला जांच समिति को सौंप दिया जाता है और फिर गवाहों-सबूतों का खेल शुरू हो जाता है। तमाम मामलों में देखने को मिलता है कि मामला फाइलों एवं कोर्ट-कचहरी तक उलझा रहता है और भ्रष्टाचारी सीना तानकर अगले भ्रष्टाचार की तैयारी में पुनः जुट जाते हैं किन्तु गाजियाबाद में श्मशान घाट की छत गिरने के मामले में उत्तर प्रदेश सरकार ने तत्काल कुछ जिम्मेदार लोगों को गिरफ्तार कर लिया। इससे लोगों में एक उम्मीद की किरण जगी है कि यदि इसी प्रकार से सभी मामलों में तुरंत गिरफ्तारी होने लगे तो भ्रष्टाचार एवं लापरवाही से होने वाली दुर्घटनाओं पर काफी हद तक निश्चित रूप से रोक लगेगी।
अपने देश में विभिन्न स्थानों पर बार-बार ऐसा देखने-सुनने को मिलता रहता है कि उद्घाटन से पहले ही सड़क धंस गई या पुल टूटा अथवा उद्घाटन के कुछ दिनों के बाद ही सड़क जर्जर हुई आदि। इस प्रकार के तमाम मामलों से कमोबेश हम सभी का सामना आये दिन होता रहता है किन्तु लाचारी यह होती है कि दोषी किसे ठहराया जाये? पैसा लेकर अवैध घुसपैठियों की झुग्गियां तो बसा दी जाती हैं किन्तु जब ऐसी झुग्गी बस्तियों में रहने वाले घुसपैठिये कानून व्यवस्था के लिए सिर दर्द बनने लगते हैं तो जिम्मेदारी लेने के नाम पर कोई आगे नहीं आता है।
आधार कार्ड, वोटर पहचान पत्र, जन्म-मृत्यु प्रमाण पत्र, ड्राइविंग लाइसेंस आदि बनवाने में अकसर तमाम तरह की गलतियां लापरवाही की वजह से होती रहती हैं किन्तु बाद में लोग इन गलतियों को दुरुस्त करवाने के लिए दर-दर भटकने को विवश होते हैं तो इस बात की जिम्मेदारी लेने वाला कोई नहीं मिलता कि आखिर इन त्रुटियों के लिए जिम्मेदार कौन हैं? प्रारंभ में ही इस पर गंभीरता एवं जिम्मेदारी से काम क्यों नहीं किया गया?
अस्पतालों में गलत दवा एवं गलत इंजेक्शन से मरीजों की मौत हो जाती है तो इसकी जिम्मेदारी किसी की तो बनती है। मरीज की हालत तो ऐसी होती है कि मरता क्या नहीं करता? जिम्मेदारी-जवाबदेही तय नहीं होने के कारण आज पैसा बनाने के लिए बिना जरूरत के आॅपरेशन कर दिये जा रहे हैं। किसी भी केस में यदि यह तय हो जाये कि बिना जरूरत के आॅपरेशन करने पर अंजाम क्या होगा तो शायद यह बात कभी भी सुनने को न मिले कि किसी प्रतिष्ठित अस्पताल में दायें पैर की जगह बायें पैर का आॅपरेशन हो गया या आॅपरेशन करते समय शरीर में धागा या कुछ अन्य सामान छूट गया। राजधानी दिल्ली के नामी सरकारी अस्पतालों में ऐसी घटनाएं सुनने को मिल चुकी हैं कि आॅपरेशन से ठीक पहले पूरी फाइल ही गायब हो गई। यह सब लिखने के पीछे मेरा मुख्य मकसद यही है कि यदि कदम-कदम पर किसी भी गलती या लापरवाही के लिए जिम्मेदारी और जवाबदेही तय होती तो इस प्रकार की बातें नहीं के बराबर देखने एवं सुनने को मिलतीं।
किसी भी कार्य के लिए यदि किसी को बेवजह मात्र रिश्वत के लिए बार-बार दफ्तरों के चक्कर काटने पड़ते हैं तो वह झुंझला जाता है और यह कहने के लिए विवश हो जाता है कि बिना पैसे दिये बात बनने वाली नहीं है किन्तु यदि यह तय हो जाये कि वह व्यक्ति बार-बार किसकी वजह से चक्कर काट रहा है और उसे चक्कर कटवाने के बदले सजा क्या है तो किसी में इतनी हिम्मत नहीं होगी कि वह रिश्वत के लिए किसी को बेवजह परेशान करे। सरकारी दफ्तरों में किसी भी व्यक्ति को किन्तु-परंतु के फेर में जब परेशान होना पड़ता है तो वह न चाहते हुए भी यह कहने के लिए विवश हो जाता है कि यदि यही होना है तो सब कुछ का निजीकरण कर दिया जाये।
सरकारी स्कूलों में लोग अपने बच्चों को क्यों नहीं पढ़ाना चाहते, इस विषय में गहनतापूर्वक विचार-विमर्श होना चाहिए। सरकारी स्कूलों की बात छोड़िये, आज यदि किसी प्राइवेट स्कूल में किसी बच्चे को कहीं गिरकर चोट लग जाये या कोई दुर्घटना हो जाये तो स्कूल प्रशासन किसी भी प्रकार की जिम्मेदारी लेने के बजाय सीधा पल्ला झाड़ लेता है। पुलिस कस्टडी में किसी कारणवश जब किसी व्यक्ति की मौत हो जाये तो उसकी जिम्मेदारी तो किसी को लेनी ही पड़ेगी अन्यथा इस तरह कब तक चलता रहेगा?
किन्तु कभी न कभी तो इस तरफ विचार करना ही पड़ेगा। सरकारी सहायता से आज समाज में तमाम तरह के आश्रमों का संचालन हो रहा है। इन आश्रमों में कभी-कभी यह सुनने एवं देखने को मिल जाता है कि बच्चों एवं बुजुर्गों के साथ जुर्म की इंतहां हो गई किन्तु जांच-पड़ताल के नाम पर पूरा मामला फाइलों एवं कोर्ट-कचहरी में उलझ कर रह जाता है। आजकल एक प्रवृत्ति यह भी देखने को मिल रही है कि छोटे-छोटे बच्चों से भीख मंगवाने का कार्य भी खूब चल रहा है और कहा जाता है कि कुछ लोगों ने विधिवत इसे एक व्यवसाय के रूप में अपना रखा है। स्कूलों, अस्पतालों, आश्रमों एवं अन्य सार्वजनिक स्थानों से बच्चों का गायब हो जाना अपने आप में बहुत कुछ बयां कर जाता है। इन घटनाओं को हलके में लेना ठीक नहीं है।
धरना-प्रदर्शन के नाम पर तोड़-फोड़ एवं अराजकता का नंगा नाच अकसर देखने को मिलता रहता है। धरना-प्रदर्शन की वजह से यदि कोई मरीज समय से अस्पताल नहीं पहुंच पाता और इलाज के अभाव में दम तोड़ देता है तो इसकी जिम्मेदारी एवं जवाबदेही किसी की तो बनती ही है। धरने-प्रदर्शन के दौरान सरकारी एवं निजी संपत्ति को अकारण नुकसान पहुंचाया जाता है तो इसकी जवाबदेही किसी को तो लेनी ही होगी। इस दृष्टि से देखा जाये तो नुकसान की भरपाई प्रदर्शनकारियों से ही यदि की जाती है तो यह एक अच्छा कदम होगा क्योंकि समाज में तमाम कार्य पैसे के लिए किये जा रहे हैं। तमाम लोग ‘येन-केन-प्रकारेण’ पैसा कमाना ही अपना प्रमुख कर्तव्य समझते हैं। ऐसे में यदि इन लोगों से किसी भी नुकसान के बदले भरपाई की जायेगी तो निश्चित रूप से तमाम समस्याओं का समाधान होगा।
उदाहरण के तौर पर यदि किसी निर्माणाधीन बिल्डिंग की छत गिर जाती है और उसमें दबकर किसी की मौत हो जाती है तो इसमें सीधे-सीधे लापरवाही का मामला बनता है। ऐसे मामलों में यदि सजा के साथ-साथ संलिप्त लोगों से आर्थिक नुकसान की भरपाई होने लगे तो इस प्रकार की घटनाओं पर निश्चित रूप से रोक लगेगी। लापरवाही की वजह से आज भारत घुसपैठियों के लिए सुरक्षित क्षेत्र बनता जा रहा है। आखिर, कुछ तो ऐसे लोग होंगे जो इन घुसपैठियों को भारत भेजने में मदद करते होंगे। जाहिर सी बात है कि सबसे पहले उन लोगों की तलाश होनी चाहिए जिनकी वजह से ये घुसपैठिये भारत की जमीन पर कदम रखने में सफल होते हैं।
कई बार ऐसा देखने को मिलता है कि बिना किसी ठोस वजह के फ्लाइट्स, ट्रेनें एवं बसें कैंसिल कर दी जाती हैं किन्तु इसमें जवाबदेही तय नहीं हो पाती। वर्तमान समय में एक प्रमुख समस्या यह है कि खाने-पीने के सामानों में व्यापक रूप से मिलावटखोरी के कारण लोगों का जीवन खतरे में आ गया है। इस संदर्भ में यदि मिलावटखोरी के लिए जिम्मेदारी-जवाबदेही तय नहीं की गई तो लोगों का जीवन ही मुश्किल हो जायेगा।
कुल मिलाकर कहने का आशय यही है कि उपरोक्त जितनी भी बातों का जिक्र किया गया है सिर्फ जिम्मेदारी-जवाबदेही तय नहीं होने की वजह से ही यह सब हो रहा है। जहां तक मेरा विचार है यदि प्रत्येक स्तर पर जिम्मेदारी-जवाबदेही का निर्धारणि हो जाये तो अधिकांश समस्याओं का समाधान स्वतः हो जायेगा और भारत पुनः विश्व गुरु बनने की दिशा में अग्रसर हो जायेगा तथा ‘जियो और जीने दो’ की संस्कृति भारत भूमि पर पुनः बिखरने लगेगी और इसके बिना कोई दूसरा रास्ता भी नहीं है। वैसे भी देखा जाये तो राष्ट्र एवं समाज का भला भी इसी में है तो आइये, हम सभी मिलकर प्राकृतिक आपदाओं के मामलों को छोड़कर अन्य माामलों में जिम्मेदारी एवं जवाबदेही का निर्धारण करने के लिए इसे एक सामाजिक आंदोलन बनाने के लिए कार्य करें। एक न एक दिन इस मकसद में सफलता जरूर मिलेगी और भारत विश्व गुरु बनने की दिशा में निश्चित रूप से कदम-दर-कदम आगे बढ़ता ही जायेगा।
– अरूण कुमार जैन (इंजीनियर) (राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य- भाजपा, पूर्व ट्रस्टी श्रीराम-जन्मभूमि न्यास एवं पूर्व केन्द्रीय कार्यालय सचिव भा.ज.पा.)