अजय सिंह चौहान | सरयू नदी का महत्व भारत के अध्यात्म और दर्शन क्षेत्र में बहुत अहम माना जाता है। अब भले ही सरयू की लंबाई सिमट कर मात्र 350 किमी के दायरे में रह गई हो, लेकिन, अगर इसके पौराणिक उद्गम स्थल से इसकी कुल लंबाई देखें तो यह करीब हजार किलोमीटर से भी अधिक लंबी नदी है। और इसके इतने लंबे मार्ग में कई प्रकार के अलग-अलग नाम भी प्रचलित हैं।
हालांकि, अगर यहां हम, पौराणिक, ऐतिहासिक और भौगोलिक तथ्यों के आधार पर बात करें तो इस समय भी दुनियाभर में सरयू नदी का वही वैदिक नाम प्रामाणिक और प्रचलित रूप में प्रसिद्ध है।
लेकिन क्योंकि इसके उद्गम स्थान यानी मानसरोवर झील पर अब अब हमारे लाल पड़ौसी का कब्जा हो चुका है इसलिए वहां इसे जियागेलाहे नदी के नाम से पहचाना जाता है। जबकि वहां के पर्वतों में इस नदी को कर्णाली नदी के नाम से भी पहचाना जाता था और आज भी हमारे कई पौराणिक ग्रंथों में इसका यही नाम प्रचलन में मिलता है।
सरयू नदी अपने उद्गम स्थान मानसरोवर झील से लगभग 100 किलोमीटर आगे जाने के बाद ही नेपाल में प्रवेश कर जाती है, और नेपाल में इसे मंचू और कर्णाली जैसे नामों से पहचाना जाता है। इसके बाद यह सरयू नदी उत्तरी भारत के उत्तराखंड प्रदेश में प्रवेश कर जाती है और उत्तराखंड से होते हुए बहराइच, गोंडा, अयोध्या और फिर पूर्वांचल के छोटे-बड़े कई शहरों को पवित्र करती हुई आगे बढ़ती जाती है, और बिहार में छपरा के पास यह एक बड़ी और प्रमुख सहायक नदी के रूप में गंगा नदी में मिल जाती है।
अब यहां सबसे मजेदार बात तो यह है कि अपने उद्गम से निकल कर उत्तराखंड में पहुंचते-पहुंचते एक बार फिर से सरयू नदी का नाम बदल कर करनाली नदी या फिर काली नदी हो जाता है। जबकि यही नदी जब उत्तर प्रदेश की सीमा में पहुंचती है तो यह शारदा कहलाती है।
आश्चर्य की बात तो यह है कि सिर्फ उत्तर प्रदेश में गोंडा से अयोध्या के आस-पास तक ही यह नदी अपने प्राचीन और पौराणिक नाम यानी ‘सरयू’ के नाम से जानी जाती है। और इससे भी बड़े आश्यर्च की बात तो यहां यह देखने को मिलती है कि, यही पवित्र नदी और इसका यह सरयू नाम अयोध्या से आगे जाकर घाघरा या फिर घघ्घर जैसे नाम में बदल जाता है।
हालांकि, इसके इन अटपटे नामों को लेकर कोई विशेष प्रमाण तो मौजूद नहीं हैं लेकिन, ऐसा कहा जाता है कि मुगल, और फिर अंग्रेजी हुकुमतों के समय के कई दस्तावेजों में इसको उस समय की भाषा और ऊच्चारण की सहूलियत के अनुसार ही क्षेत्रीय स्तरों पर गोगरा और घाघरा नाम दे दिया गया था। और इससे भी मजेदार बात तो यह है कि लकीर के फकीर कहे जाने वाले आज के नौकरशाहों और सरकारों के कारण ही ये नाम अब तक भी प्रचलन में रहे।
वहीं दूसरी तरफ, कुछ दस्तावेज ऐसे भी बताये जाते हैं जिनके बारे में कुछ जानकार मानते हैं कि इसका वही प्राचीन, वैदिक और पौराणिक नाम सरयू और शारदा प्रचलन में इसलिए रहा क्योंकि उन दिनों में इन दस्तावेजों पर कुछ ऐसे भारतीय अधिकारी और राष्ट्रवादी कर्मचारी भी काम कर रहे थे जो इस नदी का महत्व और इसके नाम का सही ऊच्चारण जानते थे, इसलिए उन्होंने इसका वही सरयू नाम लिखना जारी रखा।