अजय सिंह चौहान || वर्तमान दौर के अधिकांश उपासक रात्रि में शक्ति की पूजा करने की बजाय दिन में ही पुरोहितों को बुलाकर या फिर स्वयं से ही पूजा-पाठ संपन्न कर देते हैं। इनमें न सिर्फ सामान्य भक्त बल्कि, अब तो कई साधु-महात्मा और ज्ञानी पंडित भी नवरात्रों की इन नौ रातों में रातभर जागना नहीं चाहते। लेकिन, आज भी कई उपासक विशेष रूप से रात को ही माता की उपासना करते हैं।
हालांकि, अब ऐसे बहुत ही कम उपासक अपने आलस्य को त्याग कर आत्मशक्ति, मानसिक शक्ति और यौगिक शक्ति की प्राप्ति के लिए रात्रि के समय का उपयोग करते देखे और सूने जाते हैं।
वैज्ञानिकों ने भी माना है कि प्राचीन काल के ऋषि-मुनियों को विज्ञान की समझ आज के विज्ञान से भी कहीं ज्यादा थी। इसीलिए तो उन्होंने खास तौर से नवरात्र के अवसर पर की जाने वाली देवी की आराधाना को, दिनों की बजाय रात्रि में करने के महत्व को अत्यंत सूक्ष्मता और वैज्ञानिकता के आधार पर प्रारंभ किया, और आम लोगों ने भी इसका महत्व सरलता से समझाने का प्रयास किया।
इस विषय पर प्राचीन काल के ऋषि-मुनियों ने अपने-अपने शोध और अन्य प्रकार के ग्रंथों में, यह बात हजारों वर्ष पहले ही बता दी थी कि रात के समय में प्रकृति में व्याप्त अनेकों प्रकार के अवरोध खत्म हो जाते हैं।
यही कारण है कि हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियों ने नवरात्र के अवसर पर की जाने वाली देवी की आराधाना को दिनों की बजाय रात्रि में करने के महत्व को अत्यंत सूक्ष्मता और वैज्ञानिकता के आधार पर भली प्रकार से जान कर ही प्रारंभ किया।
दरअसल, रात के समय की जाने वाली विशेष आराधना में मंत्रों के ऊच्चारण से निकलने वाली ध्वनि, न सिर्फ सीधे वायुमंडल में प्रवेश करते हुए देवी तथा देवताओं तक पहुंच जाती है बल्कि, संपूर्ण प्रकृति सहीत मानव जाति को भी लाभ पहुंचाती है।
आधुनिक विज्ञान भी इस बात से 100 प्रतिशत सहमत है कि यदि दिन में आवाज दी जाए तो वह दूर तक नहीं जाती, लेकिन, वही आवाज रात के समय में बहुत दूर तक जाती है।
विज्ञान के तथ्य बताते हैं कि इसके पीछे दिन में होने वाला कई प्रकार का कोलाहल होता है, और उससे भी बड़ा कारण होता है सूर्य की किरणें, जो आवाज की उन तरंगों को आगे बढ़ने से रोक देती हैं।
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यदि यहां हम एक सबसे आसान भाषा में उदाहरण के तौर पर देखें तो पता चलता है कि, अगर हम किसी भी कम शक्ति फ्रिक्वेंशी यानी कम दूरी वाले रेडियो स्टेशन को सूनना चाहें तो यह बहुत मुश्किल होता है या फिर उसे हम साफ-साफ नहीं सुन सकते।
लेकिन, सूर्यास्त के बाद या फिर देर रात के समय उसी कम शक्ति के रेडियो स्टेशन को हम एक दम साफ और आसानी से सुन लेते हैं।
यानी, आधुनिक विज्ञान भी आज इस बात से पूरी तरह से सहमत है कि सूर्य की किरणें आवाज की तरंगों को आगे बढ़ने से रोक देती हैं। इसका मतलब तो यही हुआ कि आज से हजारों वर्ष पहले ही हमारे ऋषि-मुनि प्रकृति के इन वैज्ञानिक रहस्यों को जान चुके थे।
मंदिरों, घरों और अन्य पूजास्थलों में बजने वाले घंटे और शंख की आवाज के कंपन से दूर-दूर तक का वातावरण कीटाणुओं से रहित हो जाता है। उदाहरण के तौर पर देखें तो हमारे दैनिक जीवन में की जाने वाली संध्या आरती या संध्या वंदना की भी यही वैज्ञानिकता है और यही मंदिरों में बजने वाले घंटे और शंख की आवाज का भी वैज्ञानिक रहस्य है।
इसी वैज्ञानिक तथ्य को ध्यान में रखते हुए उन विशेष नौ रात्रियों में संकल्प और ऊच्च अवधारणा के साथ अपने शक्तिशाली विचार और मंत्रों की ध्वनि तरंगों को हम वायुमंडल में इस उद्देश्य के साथ भेजते हैं कि हमारी कार्यसिद्धि और मनोकामना के सभी शुभ संकल्प सफल हों और हमारा मानसिक तथा आध्यात्मिक संपर्क उस आदिशक्ति से और उन देवीय शक्तियों से सीधा हो सके।
खास तौर से बड़े-बड़े महानगरों और अन्य स्थानों पर कुछ विशेष अवसरों पर कुछ परिवारों या मंडलियों के द्वारा किये जाने वाले माता के उन जागरणों में भले ही अब आस्था और आध्यात्मिकता का अनुसरण नहीं किया जाता, लेकिन, उन जागरणों का रात में आयोजन किया जाना भी यही दर्शाता है कि माता की आराधना के लिए रात का समय ही सही समय होता है।