मूर्ति विसर्जन क्या है? हम मूर्ति का विसर्जन क्यों करते हैं? यह कैसी प्रथा है? इसके पीछे वैज्ञानिक आधार क्या? इसकी शुरूआत कैसे हुई? इस तरह के अनेकों सवाल होते हैं जो अक्सर हर किसी के मन में उठते रहते हैं। जवाब भी मिलते होंगे। और, अगर आपको उसमें किसी प्रकार का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं मिलता है तो उसे तुरंत ही नकार भी देते हैं। लेकिन हिन्दू धर्म के किसी भी उत्सव और त्यौहार का कोई न कोई वैज्ञानिक आधार जरूर होता है।
कई प्रकार की जानकारियों के आधार पर यह पाया गया है कि मूर्ति के विसर्जन के संबंध में भी एक ऐसा ही वैज्ञानिक पहलू छूपा है जिसके आधार पर कहा जा सकता है कि मूर्ति स्थापना के बाद उसके विसर्जन की प्रथा आवश्यक क्यों है। गणेश जी की प्रतिमा के विसर्जन की प्रथा तो महाभारत ग्रंथ की रचना के बाद से ही शुरू हुई है। लेकिन, सनातन धर्म में मूर्ति विसर्जन की प्रथा अनंतकाल से ही चली आ रही है।
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संस्कृत शब्द ‘विसर्जन‘ के यूं तो कई मतलब हो सकते हैं लेकिन मूर्ति विसर्जन के संदर्भ में इसका अर्थ, पूजा के लिए इस्तेमाल की गई मूर्ति को पानी में विलीन करना होता है। यह एक सम्मान सूचक प्रक्रिया है और इसलिए घर में पूजा के लिए प्रयोग की गई मूर्तियों को विसर्जित करके उसे जो सम्मान दिया जाता है वही विसर्जन कहलाता है।
दरअसल, किसी भी देवी या देवता की मूर्ती में ईश्वर का आह्वान कर उसकी स्थापना करते है, फिर पूजा-पाठ के उपरांत एक निश्चित समय के बाद उसका विसर्जन भी कर देते हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि हम न तो ईश्वर का निर्माण कर सकते हैं, और ना ही ईश्वर को नष्ट कर सकते हैं। और फिर जिस मूर्ति की पूजा की जाती है उस मूर्ति को आध्यात्मिक तौर पर साक्षात उसी रूप में देखा जाता है।
गणेश जी की मूर्ति की स्थापना और फिर विसर्जन को लेकर भी हमारे धर्म ग्रंथों में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि अनंत चर्तुदशी के दिन गणेश जी के तेज को शांत करने के लिए उन्हें सरोवर में स्नान कराया गया था, इसीलिए इस दिन गणेश प्रतिमा का विसर्जन करने का चलन शुरू हुआ।
धर्म ग्रंथों के अनुसार, महर्षि वेद व्यास ने महाभारत ग्रंथ की रचना करने का निर्णय लिया। लेकिन, लेखन का कार्य महर्षि के वश का नहीं था। इसलिए उन्होंने इसके लिए भगवान श्री गणेश की आराधना की और उनसे प्रार्थना करी कि वे एक महाकाव्य जैसे महान गं्रथ को लिखने में उनकी सहायत करें। गणपती जी ने सहमति दी और दिन-रात लेखन कार्य प्रारम्भ हुआ।
इसके लिए महर्षि वेद व्यास ने गणेश चतुर्थी वाले दिन से ही भगवान गणेश को लगातार 10 दिन तक महाभारत की कथा सुनाई थी जिसे श्री गणेश जी ने अक्षरशः लिखा था। महर्षि वेद व्यास जी ने भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी के दिन भगवान गणेश की पूजा की और लेखन का शुभ कार्य आरंभ कर दिया।
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महाकाव्य कहे जाने वाले महाभारत ग्रंथ का लेखन कार्य लगातार 10 दिनों तक चला और अनंत चतुर्दशी के दिन यह लेखन कार्य संपन्न हुआ। लेकिन जब कथा पूरी होने के बाद महर्षि वेदव्यास ने आंखें खोली तो देखा कि अत्याधिक मेहनत करने के कारण गणेश जी के शरीर का तापमान बढ़ा हुआ है। ऐसे में गणेश जी के शरीर का तापमान कम करने के लिए महर्षि वेदव्यास जी पास के सरोवर में गणेश जी को ले जाते हैं और स्नान कराते हैं।
अनंत चर्तुदशी के दिन गणेश जी के तेज को शांत करने के लिए सरोवर में स्नान कराया गया था, इसीलिए इस दिन गणेश प्रतिमा का विसर्जन करने का चलन भी शुरू हुआ। पौराणिक ग्रंथों में भी गणेश प्रतिमा के विसर्जन का उल्लेख किया गया है।
कहा जाता है कि सनातन हिंदू धर्म संस्कृति में तभी से भगवान गणपती को 10 दिनों तक बैठाने की प्रथा चल पड़ी। और दसवें दिन उनका विसर्जन यानी जल स्नान करवाया जाता है। इसके अलावा दूसरा कारण यह भी है कि पृथ्वी के प्रमुख पांच तत्त्वों में भगवान गणपति को जल का अधिपति माना गया है, इस कारण भी लोग गणपति को जल में प्रवाहित करते हैं। ग्रंथों में यह भी कहा गया है कि लगातार 10 दिनों तक लिखते रहने से गणेश जी के शरीर में अकड़न आ गई, इसी कारण गणेश जी का एक नाम पर्थिव गणेश भी पड़ा।
- अमृति देवी