अजय सिंह चौहान || मैंने अपने इसी सीरिज के पिछले पांच लेखों में यह बताने का प्रयास किया था कि कैसे हिमालय के दुर्गम और एकांत क्षेत्रों में कुछ ऐसे ऋषि-मुनि आज भी हैं जो हजारों वर्षों से वहां तपस्या में लीन हैं, और प्रमाण के तौर पर भी बताने की कोशिश की थी कि इस उपस्थिति के क्या-क्या साक्ष्य उपलब्ध हैं। उस लेख का लिंक भी मैं यहाँ दे रहा हूँ –
हिमालय में हजारों वर्ष की उम्र वाले कई ऋषि-मुनि आज भी जिंदा हैं – भाग #5
अब यहां इस लेख के द्वारा हम यह जानने का प्रयास करेंगे कि क्या वाकई वे ऋषि-मुनि वहां आज भी हजारों वर्षों से हैं? अगर हैं तो क्या वाकई उनकी उम्र हजार-हजार वर्ष तक की होगी? क्या वे हमारे ही बीच से वहां तक पहुंचे होंगे? या वे कोई देवता हैं? पश्चिमी दुनिया के लोग हमारे इन ऋषि-मुनियों के बारे में क्या जानते हैं?
तो आम तौर पर हमारे बीच यही धारणा बन हुई होती है कि जीवन का अटल सत्य यही है कि जिसने भी जन्म लिया है उसकी मृत्यु, तय है। इसके इसी वजह और धार्मिक नजरिए से ही इस संसार को मृत्युलोक कहा गया है।
जबकि, इस मृत्युलोक के सच से ठीक एक दम उलट यानी, इसी संसार में कुछ ऐसे देहधारी भी हैं, जो हजारों ही नहीं बल्कि लाखों वर्षों की समयावधि वाले युगों के बदल जाने के बाद भी, इसी पृथ्वी पर जिसे हम लोग मृत्युलोक कहते हैं, आज भी जीवित हैं। यह बात पहली नजर में ही किसी को भी अविश्वसनीय और अचंभित करने वाली लग सकती है। लेकिन, ‘चिरंजीवि भवः’ और ‘आयुष्मान भवः’ जैसे आशीर्वाद दिये जाने की परंपरा वाले इस देश की धरती पर आज भी कुछ ‘चिरंजीवी’ आत्मायें मौजूद हैं जिनको ये आशीर्वाद मिले हुए हैं।
यह सच है कि सनातन धर्मशास्त्र, ऐसी कई अमर आत्माओं के अस्तित्व की शत-प्रतिशत पुष्टि भी करता है और उसके प्रमाण भी देता है, जिसमें राजा बलि, ऋषि मार्कण्डेय, परशुराम, हनुमान, वेद व्यास, विभीषण, कृपाचार्य और अश्वत्थामा जैसे महान लोग हैं जो हजारों नहीं बल्कि लाखों वर्षों से इसी मृत्युलोक में हम लोगों के बिच में आज भी ‘चिरंजीवी’ हैं, यानी अमर हैं।
दरअसल, ‘चिरंजीवी’ संस्कृत से लिया गया शब्द है जिसको हम साधारण भाषा में ‘चिरजीवी’ यानी ‘दीर्घ’ या ‘अनंतकाल तक’ या बहुत दिनों तक जीवित रहने वाला प्राणी कह सकते हैं। सनातन धर्मशास्त्रों में ऐसी कई आत्माओं को महान और ‘अमर’ बताया गया है। इनकी संख्या आठ होने से ये ‘अष्ट चिरंजीवी’ भी कहलाते हैं।
आधुनिक वैज्ञानिकों का भी यही मानना है कि सनातन संस्कृति और दर्शन के लगभग सभी पौराणिक ग्रंथों और शास्त्रों में ऐसे अनेकों लोगों के बारे में स्पष्ट रूप से जानकारियां उपलब्ध हैं जो यह सिद्ध करती हैं कि आज भी कई महापुरूष ऐसे हैं जिनके आगे मौत भी नतमस्तक हो गई। ये चिरंजीवि कोई देवता नहीं हैं, बल्कि इन्होंने अपनी आत्मशक्ति, आत्मविश्वास, तपोबल और पुरूषार्थ से ही इस अमरत्व को पाया है।
अब तो, आधुनिक वैज्ञानिक भी उसी अमृत की खोज के लिए सक्रिय रूप से लग गये हैं, जिसके दम पर भारतीय धर्म-दर्शन में उपलब्ध ये चिरंजीवि अब तक इस धरती पर विचरण कर रहे हैं।
हालांकि आधुनिक विज्ञान का उस ‘चिरंजीवि’ की हद तक पहुंचना तो संभव नहीं लगता। लेकिन, कभी न कभी ये जरूर संभव हो सकता है कि वे इसके कम से कम एक प्रतिशत तक भी पहुंच पाये और व्यक्ति की वर्तमान औसत आयु को वे कम से कम दुगुना करने में कामयाब हो सकें।
जर्मनी, रूस, ब्रिटेन, फ्रांस और अमेरिका जैसे देशों के प्राणी विज्ञानी भी लंबे समय से उम्र बढ़ने और मृत्यु की प्रक्रिया की जांच कर रहे हैं। और अब तक के प्राप्त परिणामों के आधार पर, उन्होंने यह निष्कर्ष भी निकाल लिया है कि मृत्यु कोई अनिवार्य घटना नहीं है, बल्कि मनुष्य खुद ही इसे आमंत्रित करता है। बुढ़ापा एक प्रकार की बीमारी है। यदि इसके लिए प्राकृतिक और आध्यात्मिक तौर पर इलाज करना या अपनाना संभव है, तो एक साधारण व्यक्ति भी एक हजार साल तक आसानी से जीवित रह सकता है।
आधुनिक वैज्ञानिक इस बात की भी खोज कर रहे हैं कि अगर मृत्यु तय है तो फिर भारतीय दर्शन-शात्रों और वेदों में ‘अमृत’ या ‘अमर’ शब्द की उत्पत्ति कैसे हुई? और ‘चिरंजीवि भवः’ और ‘आयुष्मान भवः’ जैसे आशीर्वाद दिये जाने की परंपरा वाले शब्दों का चलन कहां से शुरू हुआ होगा?
कोई तो कारण या प्रमाण होगा कि ‘अमृत’, ‘अमर’ या ‘चिरंजीवी’ जैसे शब्द अस्तित्व में आये। और इसके लिए वे भारतीय दर्शन-शात्रों और वेदों का सहारा भी ले रहे हैं।
जबकि, इस विषय पर सनातन परंपरा और दर्शन शास्त्रों के तमाम ज्ञाता कहते हैं कि आधुनिक विज्ञान बेवजह की माथापच्ची करने में लगा हुआ है। और उसे इसमें कुछ भी हासिल होने वाला नहीं है। जबकि सच तो ये है कि जिस चीज की खोज करने में वे लोग लगे हुए हैं वो चीज तो भारत में खुलेआम हासिल की जा सकती है।
आयुर्वेद को अपनाकर या आयुर्वेद का अध्ययन करने के बाद, कोई भी आसानी से यह निष्कर्ष निकाल सकता है कि प्राचीन ऋषि-मुनियों और विद्वानों ने कई ऐसी जड़ी-बूटियों, फूलों-फलों और रसायनों की पहचान की थी, जो मनुष्य की कायाकल्प में मदद करती हैं। उदाहरण के लिए आप आयुर्वेद में दिए गए अनेकों प्रकार की कायाकल्प संबंधी विधियाँ और योग से भी इस तथ्य को प्रमाणित कर सकते हैं।
आयुर्वेद के जानकार अक्सर एक लोकप्रिय मुहावरे का प्रयोग करते हैं कि- “व्यक्ति भोजन नहीं खाता है, बल्कि भोजन ही व्यक्ति को खाता है।“ यानी यहां वे लोग यह कहना चाहते हैं कि अनावश्यक भोजन से परहेज किया जाना चाहिए। यानी, शुद्ध और संतुलित भोजन भी व्यक्ति के आचार-विचार और व्यवहार को लंबी आयु दे सकता है।
हमारा यह भौतिक शरीर रक्त द्वारा पोषित होता है, शुद्ध आक्सीजन और अन्य तरल पदार्थ शरीर में चेतना बनाए रखते हैं, और यह सब विचारों और भावनाओं के माध्यम से पूरा किया जाता है। यही विचार और भावनाएं हैं जो किसी भी व्यक्ति के हार्मोन के बहाव या शरीर में उनके कम होने का कारण बनते हैं।
हार्मोन हमारे शरीर के भीतर चयापचय, यानी जिसे अंग्रेजी में Metabolism (मटैबलिज़म) कहा जाता है उन प्रक्रियाओं को नियंत्रित करते हैं। इसलिए, ऐसा महसूस होता है कि शरीर को स्वस्थ रखने की जिम्मेदारी मात्र शुद्ध, प्राकृतिक और संतुलित भोजन की ही नहीं बल्कि हमारी भावनाओं और विचारों की भी होती है जो जीवन का वास्तविक सार है। यदि आप अपने मन और मस्तिष्क में धीरे-धीरे अच्छे विचारों को पालना शुरू कर देते हैं तो आपका भोजन भी अपने आप ही शुद्ध और सात्विक होने लग जाता है।
दूसरी भाषा में कहें तो आपके भोजन का शुद्ध और सात्विक होना और आपकी सात्विक भावनाओं और विचारों का मन और मस्तिष्क में धीरे-धीरे पहुंचना या पहुंचाना भी आयुर्वेद का एक भाग है और यही आयुर्वेद आपकी लंबी आयु का मूलमंत्र होता है।
वैज्ञानिकों का कहना है कि किसी भी प्राणी के शरीर में विचारों और भावनाओं का केंद्र हार्मोन होते हैं और अगर शरीर में हार्मोन ही कम होने लग जायें तो फिर उसका शरीर जल्दी थक जायेगा और वह जल्द ही बूढ़ा होने लग जायेगा।
केवल और केवल हिन्दू धर्मशास्त्रों में ही ये बात पढ़ने को मिलती है कि, शुद्ध आचार-विचार और व्यवहारों सहीत तन और मन को आध्यात्मिक भावनाओं का केन्द्र बनाने वाले व्यक्ति के चेहरे पर एक विशेष चमक दिखाई देने लगती है, जिसे साधारण भाषा में हम खुशी या खुश होना कह सकते हैं। और अगर कोई अधिक दिनों तक खुश रहता है तो तय है कि उसकी उम्र भी अधिक दिनों तक आगे बढ़ जाती है। लेकिन अगर कोई शरीर जब बूढ़ा होने लग जायेगा तो जल्द ही उसमें से आत्मा बाहर निकल जायेगी। क्योंकि आत्मा ना तो मरती है और ना ही मरना चाहती है। आत्मा तो किसी ऐसे शरीर की तलाश में रहती है जो ज्यादा से ज्यादा जीना चाहती हो। तभी तो वह एक शरीर से निकल कर दूसरे शरीर में पहुंच जाती है।
इसी सीरीज के अगले लेख का लिंक देखें –
उम्र बढ़ाने वाली ‘गोली’ और ऋषि-मुनियों की लंबी आयु के रहस्य – भाग #7
तो, इसी सीरिज के अगले यानी 7वें लेख में, मैं ये बताने का प्रयास किया है कि उदाहरण के रूप में कैसे आज भी या फिर पिछले 500 या 700 वर्षों से हमारे बीच कुछ ऐसे लोग जीवित थे या फिर आज भी हैं जिनको हम भले ही अच्छी तरह से नहीं जानते, लेकिन, उनके बारे में सूना होगा या फिर कई लोगों ने तो उनको देखा भी होगा।