भारतीय संस्कृति में रीति-रिवाज, खान-पान, रहन-सहन इत्यादि सभी वैज्ञानिक तथ्यों से भरपूर हैं और प्रकृति के साथ रहने और चलने वाली मान्यतायें हैं। छोटे से छोटे रीति-रिवाजों में भी न जाने कितने अनबोलते रहस्य छिपे हुए हैं जिनकी व्याख्याएं एक विश्लेषक और अनुभवी व्यक्ति के द्वारा ही की जा सकती है। मात्र ढकोसला या दकियानूसी कहकर, उनको न तो झुठलाया जा सकता है और न ही दरकिनार किया जा सकता है।
भारतीय संस्कृति में विशेषकर जीवन की एक-एक महत्वपूर्ण आवश्यकताओं को रीति-रिवाजों में किस प्रकार बांधा गया है, यह भी एक गहन चिंतन का विषय है। मेरा प्रयास ऐसी ही एक विवाह के समय पवित्र बंधन में बंधकर जब अग्नि के सामने सात फेरे लिये जाते हैं, तो मेरी जिज्ञासा इसको जानने और इसके कारणों को खोजने के प्रति हुई और जिसको लेखन के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया।
जीवन में पूरी पवित्रता के साथ एक अति महत्वपूर्ण कार्य का आरंभ अग्नि के सामने ही करना उचित माना गया है। अग्नि के समक्ष फेरे लेने का अर्थ है परमात्मा के समक्ष फेरे लेना। अग्नि के सामने यह रस्म इसलिए पूरी की जाती है, क्योंकि एक ओर अग्नि जीवन का आधार है तो दूसरी ओर जीवन में गतिशीलता और कार्य करने की क्षमता तथा शरीर को पुष्ट करने की क्षमता सभी कुछ अग्नि के द्वारा ही आती है।
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हिन्दू धर्म में विवाह बहुत ही पवित्र समझा जाने वाला संस्कार है। विवाह = वि$वाह। अतः, इसका शाब्दिक अर्थ है- विशेष रूप से (उत्तरदायित्व का) वहन करना। इसे अटूट विश्वास का प्रतीक माना गया है। विवाह के अवसर पर अग्नि की परिक्रमा करते हुए वर-वधू मन में यह धारण करते हैं कि हम अग्नि के सामने सबकी उपस्थिति में सात फेरे लेते हुए, हर फेरे पर एक वचन देते हैं। ये सात फेरे ही सनातन संस्कृति में विवाह की स्थिरता का मुख्य स्तंभ होते हैं। विवाह में जब तक सात फेरे नहीं होते, तब तक वह विवाह पूरा नहीं माना जाता। हर एक फेरा हर एक वचन के लिए लिया जाता है। इस प्रक्रिया को सप्तपदी भी कहते हैं। इन वचनों और फेरों के साथ पति-पत्नी सात जन्मों का साथ निभाने का वादा करते हैं।
भारतीय संस्कृति में संख्या सात की काफी महत्ता है। ये जीवन का विशिष्ट अंग माना जाता है। जैसे संगीत के सात सुर, इंद्र धनुष के सात रंग, सात ग्रह, सात ऋषि, सप्त लोक, सूरज के सात घोड़े, सात धातु, सात तारे, सात दिन और सात परिक्रमा का भी उल्लेख मिलता है।
जीवन की सात क्रियाएं, अर्थात- शौच, दंत धावन, स्नान, ध्यान, भोजन, वार्ता और शयन। इन सात तरह के अभिवादन अर्थात- माता, पिता, गुरु, ईश्वर, सूर्य, अग्नि और अतिथि। प्रातः सात पदार्थों के दर्शन- गोरोचन, चंदन, स्वर्ण, शंख, मृदंग, दर्पण और मणि। सात आंतरिक अशुद्धियां- ईष्र्या, द्वेष, क्रोध, लोभ, मोह, घृणा और कुविचार। उक्त अशुद्धियों को हटाने से मिलते हैं। ये सात विशिष्ट लाभ जीवन में सुख, शांति, भय का नाश, विष से रक्षा, ज्ञान, बल और विवेक की वृद्धि। स्नान के सात प्रकार- मंत्र स्नान, मौन स्नान, अग्नि स्नान, वायव्य स्नान, दिव्य स्नान, मसग स्नान और मानसिक स्नान।
शरीर में सात धातुएं हैं- रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मजा और शुक्र। सात गुण- विश्वास, आशा, दान, निग्रह, धैर्य, न्याय, त्याग। सात पाप- अभिमान, लोभ, क्रोध, वासना, ईष्र्या, आलस्य, अति भोजन और सात उपहार- आत्मा के विवेक, प्रज्ञा, भक्ति, ज्ञान, शक्ति, ईश्वर का भय। यही सभी ध्यान रखते हुए अग्नि के समक्ष फेरे लेने का प्रचलन भी है जिसे ‘सप्तपदी’ कहा गया है। वैदिक और पौराणिक मान्यता में भी सात अंक को पूर्ण माना गया है। कहीं-कहीं पर यह भी उल्लेख मिलता है कि पहले चार फेरों का प्रचलन था। मान्यतानुसार ये जीवन के चार पड़ाव- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का प्रतीक था परंतु तदुपरांत इसमें संशोधन कर दिया गया और चार के स्थान पर सात ही फेरे होने लगे।
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हमारे शरीर में ऊर्जा के सात केंद्र हैं जिन्हें ‘चक्र’ कहा जाता है। ये सात चक्र हैं- मूलाधार (शरीर के प्रारंभिक बिंदु पर), स्वाधिष्ठान (गुदास्थान से कुछ ऊपर), मणिपुर (नाभि केंद्र), अनाहत (हृदय), विशुद्ध (कंठ), आज्ञा (ललाट, दोनों नेत्रों के मध्य में) और सहस्रार (शीर्ष भाग में जहां शिखा केंद्र) है। उक्त सात चक्रों से जुड़े हैं हमारे सात शरीर। ये सात शरीर हैं- स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर, कारण शरीर, मानस शरीर, आत्मिक शरीर, दिव्य शरीर और ब्रह्म शरीर। विवाह की सप्तपदी में उन शक्ति केंद्रों और अस्तित्व की परतों या शरीर के गहनतम रूपों तक तादात्म्य बिठाने का विधान रचा जाता है। विवाह करने वाले दोनों ही वर और वधू को शारीरिक, मानसिक और आत्मिक रूप से एक-दूसरे के प्रति समर्पण और विश्वास का भाव निर्मित किया जाता है।
मनोवैज्ञानिक तौर से दोनों को ईश्वर की शपथ के साथ जीवनपर्यंत दोनों से साथ निभाने का वचन लिया जाता है इसलिए विवाह की सप्तपदी में सात वचनों का भी महत्व है।
सप्तपदी में पहला पग भोजन व्यवस्था के लिए, दूसरा शक्ति संचय, आहार तथा संयम के लिए, तीसरा धन की प्रबंध व्यवस्था हेतु, चैथा आत्मिक सुख के लिए, पांचवां पशुधन संपदा हेतु, छठा सभी ऋतुओं में उचित रहन-सहन के लिए तथा अंतिम सातवें पग में कन्या अपने पति का अनुगमन करते हुए सदैव साथ चलने का वचन लेती है तथा सहर्ष जीवनपर्यंत पति के प्रत्येक कार्य में सहयोग देने की प्रतिज्ञा करती है।
‘मैत्री सप्तपदीन मुच्यते’ अर्थात एक साथ सिर्फ सात कदम चलने मात्र से ही दो अनजान व्यक्तियों में भी मैत्री भाव उत्पन्न हो जाता है। अतः, जीवनभर का साथ निभाने के लिए प्रारंभिक सात पदों की गरिमा एवं प्रधानता को स्वीकार किया गया है। सातवें पग में वर, कन्या से कहता है कि हम दोनों सात पद चलने के पश्चात परस्पर सखा बन गए हैं। मन, वचन और कर्म के प्रत्येक तल पर पति-पत्नी के रूप में हमारा हर कदम एक साथ उठे, इसलिए आज अग्निदेव के समक्ष हम साथ-साथ सात कदम रखते हैं।
हम अपने गृहस्थ धर्म का जीवनपर्यंत पालन करते हुए एक-दूसरे के प्रति सदैव एकनिष्ठ रहें और पति-पत्नी के रूप में जीवनपर्यंत हमारा यह बंधन अटूट बना रहे तथा हमारा प्यार सात समुद्रों की भांति विशाल और गहरा है। यही है भारतीय संस्कृति की विशेषता जिसमें छोटे से छोटे रीति-रिवाज को भी इतनी गहन सोच के साथ मढ़ा गया है कि वह एक सामाजिक, आध्यात्मिक, धार्मिक और वैज्ञानिक कसौटी पर भी खरा उतर सके और उतरता भी है।
– श्वेता वहल