बात वर्ष 1963 की है, देव भूमि उत्तराखण्ड में अल्मोड़ा जिले के अंतर्गत कुमाऊं व गढ़वाल क्षेत्र की सीमा से लगे करीब 400 लोगों की आबादी वाले तालेश्वर नाम के एक गांव के निवासी सदानन्द शर्मा ने इसी गांव में मिले दो पौराणिक युग के कीमती ताम्रपत्रों के महत्व को जाना तो उन्होंने उन ताम्रपत्रों को लखनऊ स्थित संग्रहालय में रखवा दिया था। जबकि यही ताम्रपत्र इसी गांव के निवासियों को वर्ष 1915 में यानी करीब 48 वर्ष पहले एक खेत में काम करते समय मिले थे।
उन ताम्रपत्रों की ऐतिहासिक और उनके महत्व को ध्यान में रखते हुए स्थानिय लोगों ने उन्हें गांव के ही एक मंदिर में रखवा दिया था जिसके बाद वे ताम्रपत्र वहां करीब 48 वर्षों तक यूं ही पड़े रहे। लेकिन, जब वर्ष 1963 में एक स्थानीय निवासी सदानन्द शर्मा ने इन ताम्रपत्रों की विशेषता और महत्व को जाना तो उन्होंने इन्हंे लखनऊ स्थित संग्रहालय को सौंप दिया।
संग्रहालय के जानकारों ने जब उन ताम्रपत्रों का अध्ययन किया तो वे हैरान रह गये। उन्हें पता चला कि ये ताम्रपत्र तो पांचवीं सदी के ब्रहमपुर नरेशों के द्वारा तैयार करवाये गए थे, जो ब्राह्मी लिपि में लिखे गये थे। इन दोनों ही ताम्रपत्रों की लिपि उड़ीसा में मिले शिलालेखों की लिपि से बहुत-कुछ मिलती जुलती है।
क्योंकि इन मं से एक ताम्रपत्र राजा विष्णुवर्मन के द्वारा और दूसरा ब्रहमपुर राज्य के नरेश ध्रुतिवर्मन के द्वारा पांचवी सदी में बनवाये गये थे।
आश्चर्य की बात है कि इन ताम्रपत्रों के अलावा भी यहां के निवासियों को इस क्षेत्र से पौराणिक दौर की छोटी-मोटी कई बहुमूल्य वस्तुए और मूर्तियां प्राप्त होती रहती हैं जिनमें भगवान गणेश की एक मूर्ति तकरीबन चौथी सदी के आस-पास बताई जाती है। इसके अलावा नन्दादेवी, भैरव, वामनस्वामी यानी भगवान विष्णु के पैरो की मूर्ति के अलावा भी दर्जनों मूर्तियां मिल चुकी हैं। इनमें से कई मूर्तियां दक्षिणी कला शैली की मानी जाती है।
उत्तराखण्ड के अल्मोड़ा जिले में कुमाऊं व गढ़वाल की सीमा के करीब वाले इस तालेश्वर गांव से प्राप्त पांचवीं तथा छठी शताब्दी के इन ताम्रपत्रों में आधुनिक कुमाऊँ के दो नामों का जिक्र किया गया है जिसमें से एक ‘ब्रह्मपुर’ और दूसरा ‘कार्तिकेयपुर’ है। जबकि चीनी यात्री ह्वेनसांग ने भी अपने यात्रा वृतांत में इसे ‘ब्रह्मपुर’ नाम से सम्बोधित किया है।
इन सबसे अलग डॉ. ए.बी.एल. अवस्थी ने भी अपनी “स्टडीज इन स्कन्द पुराण भाग-1” नामक पुस्तक में इस क्षेत्र को ‘ब्रह्मपुर’ लिखा है। पांचवीं सदी के इन ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण ताम्रपत्रों से ज्ञात होता है कि आज के इन कुमाऊँ और गढ़वाल नामक दोनों ही क्षेत्रों को पौराणिक युग में सम्मिलित रूप से ‘ब्रह्मपुर’ के नाम से पुकारा जाता था।
देव भूमि उत्तराखण्ड के प्रत्येक मंदिर आज भी हमारे लिए न सिर्फ आस्था के केन्द्र है बल्कि अपने भीतर कई युगों और कई शताब्दियों का इतिहास भी समेटे हुए है।
हैरानी होती है कि यदि वर्तमान दौर के मंदिरों में इस प्रकार से पौराणिक महत्व की बेशकीमती वस्तुओं को इतना सहेज कर रखा जाता है तो फिर पौराणिक युग के उन तमाम मंदिरों में कितने प्रकार की कीमती और महत्वपूर्ण वस्तुओं, आभूषणों और रत्नों को सहेज कर रखा जाता रहा होगा जिनको विदेशी आक्रमणकारियों के द्वारा कई बार तहस-नहस कर दिया गया था।
कुमाऊं और गढ़वाल की सीमा से लगे इस तालेश्वर गांव से प्राप्त पांचवीं तथा छठी शताब्दी के जिन ताम्रपत्रों के द्वारा इस क्षेत्र का पौराणिक इतिहास पता चलता है उसी प्रकार यहां के इस तालेश्वर मंदिर का भी अपना पौराणिक इतिहास है।
तालेश्वर गांव के इस शिव मंदिर के बारे में माना जाता है कि इस देवालय में स्थापित शिवलिंग और इसके परिसर में मौजूद अन्य मूर्तियां तीसरी व चौथी सदी के आस पास की बताई जाती है। मन्दिर के आसपास पौराणिक काल की अनेक मूर्तियां और तराशे गये कई आकार और प्रकार के पत्थर ग्रामीणों को मिलते रहते हैं, और वे उन सभी को इसी मंदिर में सुरक्षित रखवा देते हैं।
अल्मोड़ा जिले में स्थित और भगवान शिव को समर्पित यह तालेश्वर मंदिर कोई विशाल आकार वाला भव्य मंदिर नहीं बल्कि एक साधारण और आकार में छोटा मंदिर है। लेकिन, यह मंदिर इस गांव के लिए ही नहीं बल्कि संपूर्ण क्षेत्र के लिए किसी ज्योतिर्लिंग मंदिर से कम महत्व नहीं रखता।
स्थानीय लोगों के अनुसार तालेश्वर मंदिर में मौजूद ये तमाम पौराणिक वस्तुएं हमारे सनातन धर्म और आस्था के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। लेकिन, वहीं इसके प्रति सरकार और पुरातत्व विभाग की बेरूखी से पता चलता है कि उनके लिए इस प्रकार की वस्तुओं का कोई महत्व नहीं है। पुरातत्ववेत्ता यदि चाहें तो यहां से प्राप्त तमाम ऐतिहासिक वस्तुओं का आंकलन करके इस क्षेत्र के पौराणिक महत्व को एक नई पहचान दिला सकते हैं।
इस गांव के निवासियों का कहना है कि हमारा तालेश्वर गांव अपने आप में कई पौराणिक और ऐतिहासिक रहस्यों को समेटे हुए है। इसलिए अगर पुरातत्व विभाग यहां गंभीरता से अपना कार्य करे तो और भी कई मूर्तियां और अवशेष मिल सकते हैं क्योंकि यहां फरवरी 2008 में जमीन में दबी हुई लाल ईंटों की एक दीवार के अवशेष भी मिले थे जो करीब 1,800 साल पुरानी है।
जो भी हो, गांव के लोगों के द्वारा अपनी प्राचीन सभ्यता के अवशेषों को यूं सहेजकर रखना बहुत ही सराहनी कार्य है। लेकिन, महत्वपूर्ण बात तो ये है कि इसके लिए पुरातत्व विभाग को भी आगे आना चाहिए और इन वस्तुओं के संरक्षण की जिम्मेदारी उठाकर कोई ऐसी ठोस पहल करें जिससे कि हमारी आने वाली पीढ़ियां भी इसका लाभ ले सके।
– अजय सिंह चौहान