वर्तमान समय में यदि वैश्विक परिस्थितियों पर नजर डाली जाये तो किसी न किसी रूप में अशांति का वातावरण सर्वत्र देखने-सुनने को मिल रहा है। कोई भी देश, समाज या व्यक्ति चाहे कितना भी सक्षम क्यों न हो किन्तु उसमें किसी न किसी प्रकार की अशांति जरूर देखने को मिल रही है। आखिर ऐसा क्यों है? वास्तव में यदि इस संबंध में विस्तृत रूप से विश्लेषण किया जाये तो यह स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि पूरे विश्व में अशांति का कारण इंसान स्वयं है।
चूंकि, इंसान की मनोदशा या यूं कहें कि उसकी मानसिक स्थिति ग्रहों, नक्षत्रों एवं वायुमंडलीय परिवर्तनों के कारण समय-समय पर बदलती रहती है। ब्रह्मांड या प्रकृतिसत्ता यानी ईश्वर की बात की जाये तो उसका प्रभाव कोई निश्चित क्षेत्र एवं दायरे में सीमित नहीं है बल्कि उसका प्रभाव अनंत है। किसी व्यक्ति से दैवीय शक्ति जब जैसा करवाना चाहती है, वैसा करवा लेती है। यह बात सतयुग से लेकर कलयुग तक में देखने को मिल रही है।
त्रेता युग में भगवान श्रीराम को अयोध्या का राजा बनना था किन्तु ग्रहों-नक्षत्रों के प्रभाव के कारण उन्हें चैदह वर्षों तक वनवास के लिए जाना पड़ा। प्रभु श्रीराम के वंशज राजा हरिश्चंद्र जिन्हें सत्यवादी राजा कहा जाता था, समय के चक्रव्यूह में उन्हें इस कदर उलझना पड़ा कि राज-पाट छोड़कर श्मशान घाट की रखवाली करनी पड़ी और उनकी आंख के सामने उनकी पत्नी उनके पुत्र की लाश को लेकर आयीं तो उनके पास देने के लिए कुछ भी नहीं था तब सत्यवादी हरिश्चन्द्र की जिद के आगे विवश होकर रानी को साड़ी का आंचल फाड़कर श्मशान घाट के कर के रूप में देना पड़ा। चूंकि, राजा हरिश्चंद्र के सामने ऐसी परिस्थिति इसलिए उत्पन्न हुई थी कि स्वयं नारायण उनके सत्य एवं दान की परीक्षा ले रहे थे। राजा हरिश्चन्द्र ने ब्राह्मण के भेष में आये नारायण को अपना पूरा राज-पाट दान में दे दिया था। चूंकि, वे नारायण की परीक्षा में पास हुए और स्वयं नारायण ने उपस्थित होकर उनका राज-पाट वापस कर दिया और उनके पुत्र को पुनः जीवित भी कर दिया।
कहने का आशय यह है कि व्यक्ति स्वतः अपने आप यह सब नहीं करता है बल्कि प्रकृतिसत्ता द्वारा उससे सब कुछ करवाया जाता है। द्वापर युग में दुर्योधन यदि युधिष्ठिर को अपना बड़ा भाई मानकर उन्हीं को राजा मान लेता या भगवान श्रीकृष्ण के सुझाव को मानकर पाण्डवों को मात्र पांच गांव ही दे दिया होता तो महाभारत की नौबत ही नहीं आती। पितामह भीष्म एवं आचार्य द्रोण द्रौपदी के चीरहरण के समय यदि शांत न रहते तो शायद पितामह भीष्म को छह माह तक वाणों की शैया पर लेटकर कष्ट न झेलना पड़ता एवं गुरु द्रोण का बध न होता। अपनी सनातन संस्कृति में इस प्रकार के तमाम ऐसे उदाहण मिलेंगे जो ग्रह-नक्षत्रों के प्रभाव को साबित करते रहे हैं। ग्रहों-नक्षत्रों के प्रभाव के कारण ही शांत से शांत व्यक्ति ऐसा कार्य कर जाता है जिसकी उससे उम्मीद ही नहीं की जा सकती है, फिर वही व्यक्ति ग्रहों-नक्षत्रों के प्रभाव में आकर अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति में आ जाता है।
विश्व एवं भारत में समय-समय पर उत्पन्न परिस्थितियों पर विचार किया जाये तो स्पष्ट रूप से देखने में मिलता है कि यह सब सिर्फ प्रकृतिसत्ता के कारण ही होता है। हमारे समाज में एक बात बहुत ही व्यापक रूप में सुनने को मिलती है कि अमुक व्यक्ति पर शनि की साढ़े साती चल रही है।
शनि से लोग क्यों डरते हैं? इस बात का यदि विश्लेषण किया जाये तो शनि देव के बारे में कहा जाता है कि वे न्याय के देवता हैं। इसका मतलब यह हुआ कि यदि कोई गलत कार्य करेगा तो उसे दंड अवश्य मिलेगा। शनि से डरने का यही एक मात्र कारण है। वैसे भी सनातन संस्कृति में स्पष्ट रूप से मान्यता है कि मनुष्य को उसके कर्मों की सजा अवश्य मिलती है। उसके लिए चाहे कितना भी समय क्यों न लग जाये।
चूंकि, पूरा जगत चलायमान है। पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती रहती है। इस कारण ग्रहों-नक्षत्रों का योग बदलता रहता है। जितने भी ग्रह, नक्षत्र एवं राशियां हैं उनमें अच्छी-बुरी सभी तरह की हैं। कुछ राशियां व्यक्ति को ऐक्शन मोड में रखे रहती हैं तो कुछ शांत रहती हैं तो कुछ राशियां आक्रामक एवं विध्वंसक मोड में व्यक्ति को ला देती हैं। ब्रह्माण्ड में जब भी कोई अप्रत्याशित घटना घटित होती है तो उसकी चेतावनी पहले से ही मिल जाती है। उनका विश्लेषण कर समझने वाले होने चाहिए। उस चेतावनी का मकसद यह भी होता है कि व्यक्ति सचेत हो जाये और गलत कार्य न करे। उदाहरण के तौर पर देखा जाये तो कोरोना को चेतावनी के रूप में ही लिया जा सकता है।
चूंकि, भारत सनातनी परंपरा को मानने वाला देश है और अनादि काल से यहां शादी-ब्याह, मकान, दुकान या अन्य कोई शुभ कार्य अच्छे मुहूर्त में ही करने की परंपरा रही है। शुभ मुहूर्त में यदि कोई कार्य नहीं किया जाता है तो किसी न किसी प्रकार के अनिष्ट की संभावना हमेशा बरकरार रहती है। यह सब लिखने का आशय मेरा इस बात से भी है कि लोग समाज में हो रहे परिवर्तनों के कारणों को जानें-समझें एवं उसी के अनुसार आचरण करने का प्रयास करें।
इस दृष्टि से यदि बात की जाये तो प्रारंभ के हजार वर्षों के काल में भारत को सोने की चिड़िया कहा जाता था। यही वह स्वर्णिम काल था, जब भारत के ज्ञान-विज्ञान का लोहा पूरा विश्व मानता था। जिस काल में भारत को सोने की चिड़िया कहा जाता था, उस काल के बारे में आसानी से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि वास्तव में उस समय का भारत कैसा रहा होगा? उस समय के बारे में निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि ग्रहों, नक्षत्रों एवं राशियों का योग बहुत ही अच्छा रहा होगा।
एक हजार से दो हजार वर्ष के कार्यकाल की बात की जाये तो भारत में यह गुलामी का दौर था। इसी दौर में कई गुलामों ने देश में शासन किया और अंग्रेज भारत में व्यापार करने की नीयत से आये और ईष्ट इंडिया कंपनी की स्थापना की और धीरे-धीरे शासन की बागडोर अपने हाथ में ले ली। इस कार्यकाल में शासन की बागडोर चाहे किसी के हाथ में रही हो किन्तु भारतवासी गुलाम ही रहे।
सन 1947 में भारत को आजादी जरूर मिली किन्तु गुलामी की मानसिकता से भारतवासी अपने को उबार नहीं पाये। इसके बाद बात यदि दो हजार से तीन हजार वर्ष के कार्यकाल की करें तो अभी उसकी शुरुआत है किन्तु इसके शुरुआती रुझानों की बात की जाये तो यह कार्यकाल भी स्वर्णिम होगा लेकिन ऐसा लगता है कि एक छोटे से विध्वंस के बाद और इस प्रकार की स्थिति वर्ष 2030 तक बनी रहेगी और इसके बाद परिस्थितियां बदलेंगी। इसके परिणामस्वरूप पूरे विश्व में शांति स्थापित होगी। ऐसा सिर्फ ग्रह स्थितियों में बदलाव के कारण ही होगा।
वास्तव में यदि देखा जाये तो ग्रहों, नक्षत्रों एवं राशियों के बदलने से मनुष्य की मनःस्थिति बनती-बिगड़ती रहती है या यूं कहा जा सकता है कि प्रकृतिसत्ता के द्वारा मनुष्य से जैसा करवाया जाता है वैसा करने के लिए वह विवश होता जाता है। इन्हीं ग्रह स्थितियों के कारण भारत एक समय सोने की चीढ़िया कहलाया, विश्व का नेतृत्व करता रहा तथा विगत एक हजार वर्षों तक फिजिकली गुलाम रहा तो अब नई सहस्त्राब्दी में आर्थिक गुलामी की तरह बढ़ रहा है।
जिस समय भारत फिजिकली गुलाम था, उस समय जनता राजाओं की सभी बात मानती थी और राजाओं के प्रति वफादारी भी निभाती थी। आज जब पूरा विश्व आर्थिक गुलामी की तरफ बढ़ रहा है तो लोगों का मिजाज उसी के हिसाब से बदलने लगा है।
विश्व की बड़ी से बड़ी एवं मजबूत सरकारें भी औद्योगिक घरानों के इर्द-गिर्द घूमने के लिए विवश हैं। आज कहा तो यहां तक जाता है कि औद्योगिक घराने जिसकी चाहेंगे, उसकी सरकार बनेगी और जब चाहेंगे गिरा भी देंगे। शायद यही कारण है कि औद्योगिक जगत अपनी इच्छा के अनुरूप जिसको जितने दिन शासन में रखना चाहता है, उसी के मुताबिक योजना बनाता रहता है और बना रहा है। इस दृष्टि से देखा जाये तो चीन के राष्ट्रपति ने आजीवन राष्ट्रपति बने रहने की संविधान में व्यवस्था कर ली है।
रूस के राष्ट्रपति पुतिन किसी न किसी रूप में लगातार बीस वर्षों से सत्ता में हैं और उन्होंने वर्ष 2036 तक पद पर रहने की व्यवस्था संविधान संशोधन के माध्यम से कर ली है। इसी तरह की छटपटाहट ट्रंप के शासन काल के आखिरी समय में देखने को मिली थी। वह भी जनता के निर्णय को मानने की बजाय अदालत का सहारा लेना चाह रहे थे किन्तु बात बन नहीं पाई और उन्हें पद से हटना पड़ा।
कमोबेश यदि गहराई से अध्ययन एवं विश्लेषण किया जाये तो भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी औद्योगिक जगत की बदौलत अपने को बचाये एवं बनाये रखना चाहते हैं यानी यह कहा जा सकता है कि वे औद्योगिक जगत की मदद से अपने को आजीवन प्रधानमंत्री बनाये रखने का प्रयास करेंगे, ऐसा जनमानस की मानसिकता देखने से लगता भी है। ऐसे में पूरा कारपोरेट जगत हावी रहेगा और पूरी सरकार इसी कारपोरेट जगत के इर्द-गिर्द विचरण करने के लिए विवश होगी।
अध्ययन और अनुमान के अनुसार साल 2030 तक इस प्रकार की स्थिति बनी रहेगी। कोई न कोई क्लेश चलता ही रहेगा। यह सब कोई और नहीं करवा रहा है या भविष्य में करवायेगा बल्कि यह सब सर्वशक्तिमान सत्ता यानी ईश्वर के द्वारा करवाया जा रहा है यानी ग्रहों-नक्षत्रों के बदलने से जैसी परिस्थितियां उत्पन्न होंगी, उसी प्रकार का वातावरण बनेगा।
वैसे भी किसी व्यक्ति का समय यदि ठीक चल रहा होता है तो उसके बारे में यही कहा जाता है कि अमुक व्यक्ति का समय बहुत अच्छा चल रहा है। वह यदि मिट्टी को भी छू दे रहा है तो सोना बन जा रही है यानी उसके सारे काम बनते जा रहे हैं। इसके उलट यदि जिस व्यक्ति के ग्रह-नक्षत्र ठीक नहीं होते हैं तो उसके बने काम भी बिगड़ जाते हैं और वह जहां भी हाथ लगाता है, वहीं उसका काम बिगड़ जाता है। इसी को कहते हैं ग्रह-नक्षत्रों का प्रभाव एवं दुष्प्रभाव। अयोध्या में श्रीराम मंदिर निर्माण की बात की जाये तो यह कहा जा सकता है कि ग्रहों की स्थिति जब बदली तो श्रीराम मंदिर निर्माण का रास्ता साफ हो गया।
ग्रह-नक्षत्रों के प्रभाव-दुष्प्रभाव की बात की जाये तो स्वयं नारायण को भी समय-समय पर कठिन दौर से गुजरना पड़ा है। त्रेता युग में भगवान श्रीराम को माता सीता के वियोग की विरह-वेदना झेलनी पड़ी थी। द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्ण को सगे मामा कंस के प्रकोप से बचाने के लिए तरह-तरह के उपाय करने पड़े थे। रावण जैसा विद्वान एवं प्रतापी राजा माता सीता जी को हर लाया और अपने पतन का मार्ग प्रशस्त कर दिया। इसका सीधा-सा अभिप्राय यह है कि रावण ने भी जो कुछ किया, वह ग्रहों-नक्षत्रों के वशीभूत होकर ही किया।
कहने का आशय यह है कि इस सृष्टि में जो कुछ भी हो रहा है वह सब व्यक्ति स्वयं नहीं कर रहा है बल्कि उससे करवाया जाता है। हालांकि, ग्रहों-नक्षत्रों के दुष्प्रभावों को कम करने के लिए समय-समय पर उपाय भी किये जाते हैं किन्तु इस संबंध में एक बात महत्वपूर्ण यह है कि ग्रहों-नक्षत्रों की जानकारी रखते हुए सावधानियां बरतनी पड़ेंगी और समयानुरूप उपाय भी करना होगा। हम सभी को इस दिशा मे आगे बढ़ने की आवश्यकता है।
– अरूण कुमार जैन (इंजीनियर)
(राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य- भाजपा, पूर्व ट्रस्टी श्रीराम-जन्मभूमि न्यास एवं पूर्व केन्द्रीय कार्यालय सचिव भा.ज.पा.)