अजय सिंह चौहान | दक्षिण भारतीय राज्य तेलंगाना के गडवाल जिले में स्थित अलमपुरम नाम के एक छोटे से कस्बे का प्राचीन और पौराणिक ग्रंथों में ‘हेमलापुरम’ नाम से वर्णन मिलता है। इसी अलमपुरम कस्बे में माता आदिशक्ति का एक मंदिर है जिसे ‘जोगुलम्बा शक्तिपीठ’ के नाम से पहचाना जाता है। स्थानीय लोग इस मंदिर को ‘योगम्बा’ या ‘योगुलम्बा’ माता के नाम से भी पहचानते हैं। यह स्थान परमपिता ब्रह्मा जी की तपस्थली भी रही है इसलिए इसे ‘‘नवब्रह्मेश्वर तीर्थ’’ के रूप में भी जाना जाता है। भगवान शिव को भी यहां ‘बाल ब्रह्मेश्वर स्वामी’ के रूप में पूजा जाता है। इसके अलावा यह स्थान भगवान परशुराम जी के माता-पिता की तपस्थली भी मानी जाती है। तुंगभद्रा नदी के बाएं किनारे और नल्लमाला पहाड़ियों से घिरा यह क्षेत्र तुंगभद्रा और कृष्णा नदियों का संगम स्थल भी है इसलिए इसे ‘दक्षिण काशी’ भी कहा जाता है।
तेलंगाना राज्य का गडवाल जिला वर्ष 2016 में महबूबनगर जिले से अलग होकर बना एक नया जिला है, और अलमपुरम इसी जिले का एक शांत माने जाने वाला छोटा सा शहर है जिसमें स्थित इस जोगुलाम्बा शक्तिपीठ मंदिर को 18 महाशक्तिपीठों में पाँचवें स्थान पर पूजा जाता है। पौराणिक ग्रंथों और तथ्यों के अनुसार इस स्थान पर माता सती की देह से दांतों की ऊपरी पंक्ति का भाग गिरा था। इसीलिए यह शक्तिपीठ मंदिर स्थल है।
तेलंगाना राज्य के इस अलमपुरम शहर के साक्ष्य हमारे कई प्राचीनतम और पौराणिक ग्रंथों में उपलब्ध है। स्कंद पुराण के अनुसार, ब्रह्मा जी ने यहां भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए कठोर तप किया था, जिसके बाद भगवान शिव ने उन्हें कुछ विशेष शक्तियां प्रदान कीं इसलिए, इस स्थान का एक नाम ‘‘ब्रह्मेश्वर’’ भी है। यही कारण है कि जोगुलम्बा शक्तिपीठ मंदिर के अलावा यहां ब्रह्मा जी के प्राचीन ‘‘नवब्रह्म मंदिर’’ समूह भी है।
पौराणिक काल से ही अलमपुरम प्राचीन मंदिरों के लिए सुप्रसिद्ध और शांत वातावरण वाला धार्मिक तथा आध्यात्मिक नगर रहा है, इसलिए स्कंद पुराण में वर्णित इस धार्मिक नगर को ‘‘श्रीशैलम का पश्चिमी प्रवेश द्वार’’ भी कहा जाता है। आज भी यहां तेलंगाना, रायलसीमा और कर्नाटक राज्यों और क्षेत्रों के बीच प्राचीन काल से चली आ रही उस मिश्रित संस्कृति का प्रभाव देखने को मिलता है।
अलमपुरम क्षेत्र से प्राप्त कई प्राचीन शिलालेखों में स्पष्ट उल्लेख मिला है कि यहां युगों से चालुक्य वंश का शासन चला आ रहा है। यह वही चालुक्य वंश है जिसका उल्लेख हमें महाभारत सहीत अन्य प्राचीन गं्रथों एवं पुराणों में मिलता है। चालुक्य वंश द्वारा यहां शक्तिपीठ मंदिर के अलावा भगवान शिव के भी कई मंदिरों के समूहों का निर्माण करवाया था। यहां के अधिकांश मंदिर अपनी प्राचीनतम स्थापत्य-कला और शैली के लिए पहचाने जाते हैं। इनमें से जोगुलम्बा मंदिर, नवब्रह्म मंदिर, पापनासी मंदिर और संगमेश्वर मंदिर आदि यहां के कुछ प्रमुख धार्मिक स्थान हैं। यहां के कुछ मंदिरों में चालुक्य और नागर स्थापत्य शैली के अनूठे मिश्रण को भी देखा जा सकता है। इन मंदिरों को भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के द्वारा संरक्षित ‘स्मारकों की सूची’ में रखा गया है।
तेलंगाना के अलमपुरम क्षेत्र से जुड़ा आधुनिक काल का इतिहास बताता है कि 1390 ईसवी में हुए कई भीषण आक्रमणों के दौरान बहमनी सुल्तानों ने यहां के अनेकों प्रसिद्ध मंदिरों को नष्ट कर दिया था। उन मंदिरों में जोगुलम्बा माता के प्राचीन मंदिर की वह प्राचीन संरचना भी थी जिसका निर्माण चालुक्य वंश के शासक राजा विनयदित्य चालुक्य द्वारा वर्ष 680 से 696 ई. के बीच यानी 7वीं शताब्दी में करवाया गया था। हालांकि वर्ष 1390 ईसवी में यानी 14वीं शताब्दी में हुए उन हमलों से ठीक पहले, स्थानीय लोगों और पुजारियों के द्वारा जोगुलम्बा माता सहीत कुछ अन्य मूर्तियों को उन आक्रमणकारियों से बचाकर एक अज्ञात स्थान पर ले जाया गया। स्थानीय लोगों का कहना है कि जोगुलम्बा माता की पूजा 7वीं शताब्दी से आज तक लगातार होती आ रही है और इसको एक बार भी रोका नहीं गया। वहां भी माता की इस मूर्ति की पूजा नियमित रूप से होती रही। सैकड़ों वर्षों तक माता की यह मूर्ति किसी अज्ञात स्थान पर रही और सही समय आने पर पास ही के बाला ब्रह्मेश्वर स्वामी मंदिर में इस मूर्ति को प्रकट करवाया गया।
अलमपुरम क्षेत्र पर राष्ट्रकूट, शतवाहन, बादामी चालुक्य, कल्याणी चालुक्य, विजयनगर साम्राज्य, काकतीय वंश के हिंदू राजाओं और फिर गोलकुंडा के कुतुब शाही जैसे मुस्लिमों ने भी शासन किया था। इतिहास में उल्लेख मिलता है कि राजा हरिहर ने मंदिर का पुनर्निर्माण करवाने के बाद विदेशी आक्रमणकारियों से इस मंदिर की सुरक्षा के लिए उस समय के जगतगुरू शंकराचार्य जी की आज्ञा पर अपनी सेना के एक विशेष प्रशिक्षित दस्ते को नियुक्त किया हुआ था। जबकि, कई बार तो स्थानीय लोगों ने भी मंदिर पर हुए विदेशी आक्रमणों को विफल कर दिया और आक्रमणकारियों को मार डाला था।
माता जोगुलम्बा की यह प्रतिमा कितनी प्राचीन है इसका अनुमान तो नहीं है लेकिन, इस प्रतिमा में माता अपनी जीभ बाहर की ओर फैलाए हुए उग्र रूप में बैठी हुई दिखाई देती हैं, और यही उग्र रूप योगियों को विशेष सिद्धि प्रदान करता है। इसीलिए माता को यहां ‘जोगुलम्बा’ कहा जाता है। इस ‘जोगुलम्बा’ नाम के विषय में तथ्य मिलते हैं कि स्थानीय तेलुगु भाषा में जोगुलम्बा का अर्थ है ‘जोगुल’ अर्थात ‘योगी’ और ‘अम्मा’ अर्थात ‘माँ’। यानी सिद्ध योगियों की माता।
स्थानीय लोगों के बीच जोगुलाम्बा देवी को ‘गृह चंडी’ अर्थात घर की रक्षा करने वाली चंडी माता के रूप में भी पूजा जाता है। प्रतिमा के बालों में एक छिपकली, बिच्छू, चमगादड़ और मानव खोपड़ी को भी दर्शाया गया है। दरअसल, ये लक्षण बुराई के प्रतीक माने जाते हैं और घर-परिवारों के पतन के संकेत हैं। किसी भी घर में छिपकली का होना इस बात के प्राथमिक संकेत हैं कि उस घर में धीरे-धीरे दुःखों की शुरूआत होने लगती है और खुशहाल जीवन में बाधाएं आना शुरू हो जाती हैं। और यदि धीरे-धीरे वहाँ छिपकलियों की संख्या में वृद्धि होने लगे तो समझो की उस घर में बिच्छुओं का आगमन भी हो सकता है, जो कि और भी अधिक अनर्थकारी हो सकता है। इसके बाद घर में चमगादड़ों का भी प्रवेश होने लगता है और मानव खोपड़ी से संकेत मिलता है कि उस घर में रहने वाले सदस्यों की मृत्यु के रूप में दुःखद परिणाम हो सकता है।
जानकार मानते हैं कि देवी जोगुलाम्बा का ये रूप सभी प्रकार की बुराइयों से रक्षा करने में एक चेतावनी के तौर पर उनके घर-परिवार का सहयोग करता है। इसके अलावा, घर के वास्तु दोष से मुक्त होने के लिए भी जोगुलाम्बा देवी की पूजा की जाती है। इसीलिए, जोगुलाम्बा देवी को यहां ‘गृह चंडी’ अर्थात घर की रक्षा करने वाली चंडी माता के रूप में पूजा जाता है।
वर्तमान मंदिर निर्माण में योगदान –
वर्ष 1390 ईसवी में हुए उन विदेशी आक्रमणों के बाद से जोगुलम्बा मंदिर परिसर सदियों तक उपेक्षित रहा और वर्ष 1970 के दशक के मध्य में, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने मंदिर के अवशेषों को संरक्षित स्मारक के रूप में अधिसूचित कर दिया। स्थानीय लोगों ने यहां कई बार मंदिर पुनर्निर्माण के प्रयास किये, लेकिन पुरातत्व विभाग द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों के कारण अनुमति नहीं मिल पा रही थी। हालांकि, किसी तरह सनातनधर्मियों की आस्था और भागदौड़ के प्रयास सफल हुए और वर्ष 2002 में एक विशेष सलाहकार समिति की देखरेख में पुनर्निर्माण शुरू हुआ, जिसमें कांची कामकोटि पीठाधिपति, श्रृंगेरी पीठाधिपति, तत्कालीन जिला कलेक्टर, नागार्जुन समूह और श्री सत्य साईं ट्रस्ट आदि के सहयोग से इसके लिए धन जुटाना शुरू किया और अंततः 13 फरवरी 2005 को करीब दो करोड़ रुपये की लागत से मंदिर बन कर तैयार हुआ।
मंदिर का निर्माण कार्य –
वर्ष 2005 में बन कर तैयार हुए इस मंदिर की वर्तमान संरचना दक्षिण भारतीय वास्तुकला शैली का एक सुंदर उदाहरण है। इसके अलावा इस मंदिर का पुनर्निर्माण भी ठीक उसी स्थान और उसी शैली में किया गया है जैसा कि नित्यनाथ जी द्वारा रचित ’रसरत्नाकरम’ नामक ग्रंथ में इसका वर्णन मिलता है। मंदिर संरचना के पुनर्निर्माण में असाधारण इंजीनियरिंग और दूरदर्शी कौशल वाले वास्तुकार एस.पी. पेरुमलचारी ने परंपरागत प्राचीन चालुक्य शैली का विशेष ध्यान रखते हुए उसी प्राचीन मंदिर से लगभग मिलती-जुलती संरचना को तैयार करने के लिए उन्होंने चालुक्य युग की स्थापत्य शैली और उनके कौशल का गहन अध्ययन किया और तमिलनाडु, कर्नाटक तथा आंध्र प्रदेश के अपने करीब 100 से अधिक मूर्तिकारों और सहायकों आदि की एक टीम तैयार कर मंदिर निर्माण के लिए पत्थरों का चयन किया और मूर्तियों, स्तंभों आदि की नक्काशी का कार्य शुरू कर दिया। वास्तुकार एस.पी. पेरुमलचारी जी ने इससे पहले भी ऐसी ही अन्य कई प्राचीन और आधुनिक शैली की संरचनाओं को तैयार करने में योगदान दिया था। उनके कुछ विशेष और उत्कृष्ट कार्यों में भद्राचलम के भगवान श्री राम मंदिर का जीर्णोद्धार और हैदराबाद के हुसैन सागर झील के समीप बुद्ध की मूर्ति की नक्काशी शामिल है।
जोगुलाम्बा देवी मंदिर के प्रांगण में प्राचीनकाल के कई निर्माण कार्य नजर आते हैं जो विशाल आकार के लाल पत्थरों को तराश कर तैयार किये गये, और ये भी संभवतः उसी प्राचीन मंदिर के समकालीन रहे होंगे। प्रांगण की अन्य संरचनाओं में प्राचीन काल की खंडित मूर्तियां और बिखरे हुए ध्वस्त अवशेष उन विभत्स मुगल आक्रमणों की याद दिलाते हैं। प्राचीन भग्न अवशेषों में पत्थरों पर उकेरी गई नक्काशियां मनमोहक और शानदार है। लेकिन, संवैधानिक नियमों से चलने वाली आधुनिक दौर की सरकारों द्वारा इनकी अनदेखी तथा पुरातत्व विभाग की लापरवाही के कारण यहां अधिकतर मंदिर अब भी पुनर्निर्माण का इंतजार ही कर रहे हैं। कई प्राचीन मंदिर ऐसे भी हैं जो अब अस्तित्व में ही नहीं हैं, क्योंकि या तो उनके मूल स्थानों पर कब्जा हो चुका है या उन्हें भूला दिया गया है। वर्तमान में भी जब आप इस मंदिर में जायेंगे तो आपको मंदिर परिसर के अंदर एक हिस्से पर कब्जा करके दरगाह का निर्माण किया हुआ नजर आ जायेगा।
मंदिर परिसर के नौ ब्रह्मा मंदिर –
अलमपुरम के इस जोगुलम्बा शक्तिपीठ मंदिर परिसर में ही ‘नौ ब्रह्मा’ मंदिरों का एक समूह भी है जो ब्रह्मा जी द्वारा की गई शिवभक्ति को दर्शाते हैं। ये सभी ब्रह्मा मंदिर भगवान शिव को समर्पित। इन मंदिरों के समूह में भगवान शिव को अलग-अलग रूपों में दर्शाया गया है जिन्हें ‘बाल ब्रह्मेश्वर स्वामी’ के रूप में पूजा जाता है। एक पौराणिक कथा के अनुसार, इन मंदिरों के पौराणिक नाम और पहचान कुछ इस प्रकार से हैं – स्वर्ग ब्रह्मा, पद्म ब्रह्मा, तारक ब्रह्मा, बाल ब्रह्मा, अर्क ब्रह्मा, कुमार ब्रह्मा, गरुड़ ब्रह्मा, वीर ब्रह्मा और विश्व ब्रह्मा। ये सभी नौ ब्रह्मा मंदिर बादामी चालुक्यों की वास्तुकला, भक्ति और आध्यात्मिक कौशल के प्रत्यक्ष प्रमाण के रूप में खड़े हैं। इनमें जटिल नक्काशी, मूर्तिकला और इनका वास्तु चालुक्य कला और संस्कृति को दर्शाता है। हालांकि इन मंदिरों के अधिकतर भाग मुगल आक्रमणों की भेंट चढ़ चुके हैं और इन नौ मंदिरों में से आठ मंदिर तो किसी तरह से बच गए, जबकि ‘‘तारक ब्रह्मा मंदिर’’ के मूल स्थान का पता नहीं चल सका।
मंदिर परिसर के लिए ड्रेस कोड –
तेलंगाना में स्थित इस जोगुलम्बा माता के शक्तिपीठ मंदिर में प्रवेश के लिए पुरुषों को विशेष ड्रेस कोड की चेतावनी दी गई है, जिसमें स्थानिय परंपरा के अनुसार, धोती लपेटना अनिवार्य है और इसके साथ शर्ट या कुर्ता पहनना होता है जो वहीं मंदिर के बाहर किराये पर मिल जाते है। महिलाओं के लिए यहां साड़ी, हाफ साड़ी या चूड़ीदार दुपट्टे के साथ मंदिर में दर्शन के लिए जाने पर विशेष सम्मान और शांति का अनुभव होता है जबकि शाॅर्ट्स, स्लीवलेस टाॅप या कम कपड़े पहनने पर महिलाओं को प्रवेश की अनुमति नहीं दी जाती।
जोगुलम्बा देवी मंदिर से जुड़ी कथा –
जोगुलम्बा देवी मंदिर से जुड़ी कथाओं में से एक जो खासकर दक्षिण भारत के हर घर में सुनी और सुनाई जाती है उसके अनुसार, छठी शताब्दी में यहां इस मंदिर परिसर में एक ऐसे सिद्ध संत रहा करते थे जिनके पास धातु को सोने में बदलने की दिव्य शक्ति का वरदान था, जबकि कुछ लोग बताते हैं कि उनके पास साक्षात वह पारस पत्थर था जिससे वे किसी भी धातु को सोने का बना सकते थे। लेकिन फिर भी वे उसका अनावश्यक प्रयोग नहीं करते थे।
अलमपुरम का पर्यटन और ऐतिहासिक महत्व –
तेलंगाना राज्य का गडवाल जिला स्थानीय लोगों के लिए बहुत ही धार्मिक और ऐतिहासिक महत्व का स्थान है। प्रमुख उत्सवों के रूप में यहां नवरात्रि, दशहरा, महाशिवरात्रि सहीत सनातन के अन्य सभी प्रमुख उत्सवों की धूम देखने को मिलती है। इसलिए देश के विभिन्न भागों से बड़ी संख्या में तीर्थयात्री यहाँ देवी के दर्शन करने आते हैं।
पर्यटन और ऐतिहासिक महत्व के प्रमुख स्थानों में से एक तेलंगाना राज्य के अलमपुरम में 17वीं शताब्दी में गडवाल शासकों द्वारा निर्मित एक विशाल और भव्य किला भी है जो पर्यटकों को आकर्षित करता है। इस किले के चारों ओर आज मानव बस्तियां बन चुकी हैं। किले में कई प्राचीन मंदिर भी हैं, जिनमें से एक है श्री चेन्नाकेशव स्वामी मंदिर। इसके अलावा, यह क्षेत्र अपने हथकरघा उद्योग के लिए भी पहचाना जाता है जिसमें दक्षिण भारतीय शैली की परंपरागत साड़ियों का उत्पादन बड़ी संख्या में होता है।
अगर आप भी जोगुलाम्बा देवी शक्तिपीठ मंदिर में दर्शन करने जाना चाहते हैं तो ध्यान रखें कि यह शक्तिपीठ मंदिर तेलंगाना राज्य के गडवाल जिले में, अलमपुरम नाम के एक छोटे से कस्बे में स्थित है, और प्राचीन तथा पौराणिक गं्रथों में इसे ‘हेमलापुरम’ के नाम से पहचाना जाता है।
जोगुलाम्बा शक्तिपीठ मंदिर कैसे जायें –
जोगुलाम्बा देवी शक्तिपीठ मंदिर के लिए सबसे नजदीकी रेलवे स्टेशन हैदराबाद-कुरनूल लाइन पर ‘अलमपुरम रोड’ नाम का स्टेशन है जो मंदिर से करीब 8 किमी दूर है। इसके अलावा, कुरनूल रेलवे स्टेशन भी मंदिर से करीब 28 किमी दूर है। कुर्नूल रेलवे स्टेशन भारत के अधिकतर रेलवे मार्गों से अच्छी तरह से जुड़ा हुआ है। अगर आप सड़क मार्ग से यहां जाना चाहते हैं तो आसपास के सभी शहरों, बस अड्डों, रेलवे स्टेशनों और हवाई अड्डों से सीधी बस और टैक्सी सेवाएं उपलब्ध हैं। इसके अलावा, यहां का निकटतम हवाई अड्डा हैदराबाद में है जो मंदिर से करीब 205 किमी की दूरी पर है।
जोगुलम्बा मंदिर की दूरी –
हैदराबाद से दक्षिण दिशा की ओर जाने पर इस मंदिर की दूरी लगभग 210 किलोमीटर है जो आंध्र प्रदेश की सीमा के पास स्थित है। यहां तक पहुंचने के लिए हैदराबाद-बैंगलोर राष्ट्रीय राजमार्ग नंबर सात से होते हुए जाना होता है। इसके अलावा, नंदयाल शहर से यह दूरी करीब 110 किलोमीटर, कुरनूल से 30 किलोमीटर, महबूतनगर से 120 किलोमीटर, नालगोंडा शहर से 310 किमी और विजयवाड़ा शहर से यह दूरी करीब 330 किलोमीटर है।
जोगुलम्बा मंदिर के पास कहां ठहरें –
जोगुलम्बा मंदिर के आस-पास ठहरने के लिए कई विकल्प मौजूद हैं। हालांकि, यहां आधुनिक सुविधाओं से सज्जित कोई बड़े होटल तो नहीं हैं लेकिन, बजट के अनुसार कुछ अच्छी सुविधाएं मिल जाती हैं जिनमें से कुछ होटलों में करीब 800 रुपये से 1,200 रुपये तक में एसी और नाॅन-एसी दोनों प्रकार के कमरे मिल जाते हैं। इसके अलावा यदि आप मंदिर से थोड़ा दूर जाकर रहना चाहें तो यही खर्च कुछ कम भी हो सकता है।
जोगुलम्बा मंदिर के पास भोजन व्यवस्था –
जोगुलम्बा मंदिर के पास स्थानिय व्यंजनों के कई रेस्टाॅरेंट देखने को मिल जाते हैं। जबकि यहां कुछ बड़े रेस्टाॅरेंट और होटल आदि की सुविधाएं बहुत कम है, लेकिन, आस-पास के अन्य शहरों या महबूबनगर में भोजन और आवास की ये सारी सुविधाएं आसानी से मिल जाती हैं।
जोगुलम्बा मंदिर में भाषा –
इस क्षेत्र में करीब 90 प्रतिशत आबादी स्थानीय तेलुगु भाषा बोलती है जबकि बाकी आबादी उर्दू या अन्य भाषाओं में बात करती है। हालांकि, यहां अंग्रेजी या हिंदी में भी बात की जा सकती है लेकिन, उत्तर भारतीय यात्रियों में से खासकर हिंदीभाषी यात्रियों को यहां थोड़ी समस्या आ सकती है।
जोगुलाम्बा देवी शक्तिपीठ जाने का सही समय –
हालांकि, यहां जाने के लिए कोई विशेष समयावधि तो नहीं है लेकिन, यदि आप बच्चों और बुजुर्गों के साथ यहां जाना चाहते हैं तो फिर आपको यहां अक्टूबर से मार्च के महीनों के बीच जाना चाहिए। इस समय यहां का तापमान 15 डिग्री से 30 डिग्री के बीच का रहता है। इस मौसम में आप यहां आसपास के अन्य कई धार्मिक और पर्यटन स्थलों का भी आनंद ले सकते हैं। जबकि मार्च के बाद से यहां भीषण गर्मी का प्रकोप रहता है। इसी दौरान यहां आप नवरात्रि और शिवरात्रि जैसे उत्सवों का भी आनंद लिया जा सकते हैं।