अजय चौहान || मात्र एक भविष्य पुराण ही नहीं अपितु कुछ अन्य पुराण भी हैं जो हमें भविष्य की घटनाओं का वो चरित्र चित्रण देते हैं जिनमें से वर्तमान में घटित हो रही कई प्रमुख घटनाओं को भी हम शत-प्रतिशत मान सकते हैं कि पुराणों में भविष्य में होने वाली घटनाओं के बारे में जो भी कहा गया है वो धरातल पर आज वास्तविक रूप में हमारे सामने हो रहा है। 18 पुराणों में “वायु पुराण” भी ऐसा ही एक पुराण है जिसमें न सिर्फ पौराणिक इतिहास, अपितु सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का भी उल्लेख मिलता है। वायु पुराण में वर्णित वंश परम्परा में न सिर्फ मनुष्यों की अपितु समस्त देवी-देवता, ब्रह्मा, विष्णु, महेश, तथा असुर, राक्षस, पशु, पक्षी, भूत-प्रेत तथा भटकती हुई आत्माओं के विषय में भी विस्तार से वर्णन है। वायु पुराण ही है जिसमें में श्राद्ध परंपरा विस्तार से वर्णित है। लेकिन जो सबसे प्रमुख है वह है हमारी वंश परंपरा, जिससे जुड़े तमाम साक्ष्य और उनके वर्णन विस्तार से मिलते हैं।
इन सभी विषयों में से हम मात्र एक वंश परम्परा को ही देखें और वो भी यदि महाभारत युद्ध के बाद से आज तक की वंश परंपरा में खोजें तो “श्रीवायु महापुराणाम” के माध्यम से हमारे समक्ष स्पष्ट प्रमाण मौजूद हैं। हालाँकि यह परंपरा बहुत लम्बी है लेकिन मैंने इसमें से एक संक्षिप परिचय के तौर पर महाभारत काल से लेकर प्राचीन, मध्य और फिर आधुनिक इतिहास में भी वर्णित उन राज परिवारों और वंश परम्पराओं को ही यहां बताने का प्रयास किया है।
तो वंश परम्परा कुछ यूँ है कि – महाभारत युद्ध की समाप्ति तक इक्ष्वाकु वंशीय पांचों पांडवों के सभी पुत्र मारे जा चुके थे। महारथी अर्जुन और सुभद्रा से जन्में उस वीर पुत्र अभिमन्यु की भी मृत्यु हो चुकी थी जिसका विवाह विराट पुत्री उत्तरा से हुआ था। किंतु महाभारत युद्ध के समय उत्तरा गर्भवती थी इसलिए उस युद्ध के बाद उत्तरा के संयोग से अभिमन्यु का पुत्र परीक्षित जन्मा। और यदि अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा गर्भवती नहीं होती तो यह वंश परंपरा आज नहीं होती। ये वही अर्जुन का पोता और अभिमन्यु पुत्र परीक्षित था जिसकी मृत्यु उत्तरा के गर्भ में अश्वथामा के ब्रह्मास्त्र से मौत हो गई थी, लेकिन भगवान श्रीकृष्ण ने उसको जीवित कर दिया था।
वही परीक्षित इस कलियुग का सबसे पहला राजा था। क्योंकि, इसी राजा परीक्षित के शासनकाल में द्वापर युग समाप्त हुआ था और कलियुग का आगमन हुआ था। आगे इसी राजा परीक्षित का पुत्र जन्मेजय हुआ जो कलियुग शुरू होने के बाद राजगद्दी पर बैठने वाला पहला राजा था। जन्मेजय के शाशनकाल से अगले करीब एक हजार वर्षों तक यानी कलयुग के प्रारंभिक एक हजार वर्षों तक इस सम्पूर्ण पृथ्वी पर कोई भी छोटा या बड़ा युद्ध नहीं हुआ था। हालांकि इसके बाद राजसत्ताओं में फिर से खींचातानी का दौर शुरू होने लग गया था।
राजा परीक्षित के बाद से इसी वंश में जन्में अन्य कई वंशियों में से ही अपने कर्मों और योग्यताओं के अनुसार और वर्णव्यवस्था के आधार पर कुछ देव तुल्य ऋषि हुए, कुछ क्षत्रिय हुए, कुछ ब्राह्मण, कुछ वैश्य भी हुए और कुछ शुद्र भी कहलाए और उनमें से पुनः वर्ण परिवर्तन भी हुए और शुद्र के पुत्र ऋषि हुए, क्षत्रिय भी हुए। वैश्य के पुत्र क्षत्रिय और क्षत्रिय के पुत्र शुद्र हुए और यह वर्णव्यवस्था चलती रही।
राजा परीक्षित सहित इस कुल से कुल पच्चीस राजाओं की उत्पत्ति हुई जिन्होंने कलियुग में शासन किया। हालांकि पांडवों के काल में उनका सम्पूर्ण भारत भूमि पर शासन था, किंतु आगे चलकर उनके वंशजों के राज्य और क्षेत्रों का बंटवारा होता। पांडवों के वंशज धीरे-धीरे आर्यावर्त के भारत खण्ड से निकल कर इस सम्पूर्ण जम्बू द्वीप पर फैलने लगे और यह वंश विस्तार करने लगा।
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भारतवंशी क्षत्रिय कुल के पांडवों की इस वंश तालिका का इसी तरह एक हजार पचास वर्षों तक शासन चलता रहा। जबकि इसके अंतिम शासक हुए राजा क्षेमक। हालांकि पांडवों के वंशज आज भी हमारे बीच हैं, किंतु राजा क्षेमक के साथ ही इस पांडव वंश का वर्चस्व और राजसत्ता समाप्त लगभग हो गई। यह तथ्य भी हमें वायु पुराण में विस्तार से वर्णन मिल जाता है।
कलियुग के प्रारंभ से लेकर क्षत्रियवंशी पांडवों के वंश के कुल पच्चीस राजाओं ने इस दौरान कुल मिलाकर एक हजार पचास वर्षों तक शासन किया। इसके पश्चात शुद्र योनि से उत्पन्न “महानंदी वंश” का महापद्म नामक पुत्र भारत का शासक हुआ और तब से आज तक के प्रायः सबसे अधिक शासक शुद्र योनि से ही उत्पन्न हुए हैं। महापद्म 28 वर्षों तक पृथ्वी पर एकक्षत्र शासक हुआ। क्योंकि उसने अन्य कई क्षत्रिय राजाओं को हराकर अपनी सीमाओं का विस्तार किया था।
महापद्म वंश का शाकनकाल कुल 100 वर्षों का ही रहा। इस दौरान उसके वंश में करीब एक हजार वंशज जन्में, जिनमें से बारह राजा हुए। अंत में कौटिल्य, यानी जिसका दूसरा नाम चाणक्य था, ने उस महापद्म वंश के शासन को समूल नष्ट करवा कर चंद्रगुप्त को सिंहासन पर बैठाया। चंद्रगुप्त ने 24 वर्षों तक शासन किया। उसके बाद उसका पुत्र भद्रसार, जिसको बिंबसार भी कहते हैं, ने 25 वर्षों तक राजगद्दी संभाली। भद्रसार का पुत्र अशोक भी 25 वर्षों तक शासक रहा।
अशोक के बाद उसके वंश के अगले नौ शासक हुए। अशोक के इन वंशजों ने कुल एक सौ सैतिश (137) वर्षों तक शासन किया, जिनमें अंतिम शासक था राजा ब्रहदाश्व। राजा ब्रहदाश्व सनातन धर्म से विमुख होकर बौद्ध पंथ को अपना चुका था इसलिए उससे प्रजा अत्यंत दुखी रहती थी। इनका एक सेनापति था पुष्यमित्र शुंग। पुष्यमित्र शुंग प्रजा के मन की बात को जानता था। इसलिए उसने भरी सभा में राजा ब्रहदाश्व का सिर धड़ से अलग कर दिया और स्वयं को राजा घोषित कर दिया। इसपर किसी ने भी आपत्ति नहीं। बल्कि सभा में सनातन धर्म की जयकार होने लगी और स्वयं ब्रहदाश्व के परिवार ने भी सहमति जताई।
पुष्यमित्र शुंग ने साठ वर्षों तक शासन किया और अपने राज में उन्होंने सनातन धर्म को खूब पोषित और प्रचारित किया। पुष्यमित्र शुंग के आठ पुत्र हुए जिनमें से बड़े पुत्र ने आठ वर्षों तक शासन किया। उसके पश्चात वसुमित्र नाम के पुत्र ने दस वर्ष, अंध्रक दो वर्ष, पुलिंदक तीन वर्ष, घोषसुत तीन वर्ष, विक्रमीत्र तीन वर्ष तथा भागवत बत्तीस वर्ष राजा रहा। इसके पश्चात राजा भागवत अपने पुत्र क्षेमभूमि को सत्ता सौंपेगा जो दस वर्षों तक राज करेगा।
इस प्रकार शुंगवंश में बीस अलग-अलग राजा राज्य करेंगे। इन सभी का राजत्वकाल एक सौ बारह वर्षों का होगा। तब बाल्यावस्था से व्यसनलिप्त सुदेव शासन करेगा। शुंगवंश का एक अन्य देवभूमि भी कंठायन कण्ठायण नामधारी होकर नौ वर्ष तथा उसका पुत्र भूतिमित्र चौबीस वर्ष तक और राजनारायण बारह वर्ष राज्य करेगा। राजनारायण के पश्चात सुशर्मा राजा बनेगा। इस प्रकार शुंगवंश भी अलग-अलग क्षेत्रों में पलायन करता हुआ बंट कर गया और कहीं उनका शाशन रहा, कहीं नहीं।
इसी प्रकार से वायु पुराण में इस वंश परंपरा में और भी कई नाम दिए गए हैं, किन्तु उन सभी का उल्लेख करना यहाँ संभव नहीं है।