अजय सिंह चौहान || धर्म और नीतिशास्त्र के लिए माने जाने वाले महान राजा से योगिराज बनने वाले उज्जैन के महान राजा भर्तृहरि, व्यक्तित्व के धनी, त्याग, वैराग्य और तप के प्रतिनिधि थे। हिमालय से कन्याकुमारी तक उनकी रचनाएं और जीवनगाथा हर भाषा और हर क्षेत्र में योगियों और वैरागियों द्वारा सदियों से गाई जा रही हैं। राजा भर्तृहरि ने आज से लगभग ढाई हजार वर्ष पहले गुरु गोरखनाथ जी के संपर्क में आने के बाद वैराग्य धारण कर नाथ संप्रदाय की दीक्षा ले ली थी और तपस्या के लिए वन में चले गए थे। इसलिए भर्तृहरि का एक लोक प्रचलित नाम बाबा गोपीचन्द भरथरी भी माना जाता है।
महान शिवभक्त और सिद्ध योगी राजा भर्तृहरि ने आज से लगभग ढाई हजार साल पहले अपने छोटे भाई विक्रमादित्य को राजपाट सौंपकर सन्यास ले लिया था। विक्रमादित्य भी उनकी तरह ही चक्रवर्ती निकले और उनके सुशासनकाल में विक्रम संवत की स्थापना हुई, जिसका शुभारंभ आज भी चैत्रमास के नवरात्र से आरंभ होता है।” विक्रमसंवत ईसवी सन् से 56 वर्ष पूर्व प्रारम्भ होता है, जो संभवतः विक्रमादित्य के प्रौढ़ावस्था का समय रहा होगा। भर्तृहरि विक्रमादित्य के बड़े भाई थे, इसलिए इनका समय इससे भी कुछ वर्ष पहले का रहा होगा।
राजा भर्तृहरि की पत्नियों के नाम पिंगला और पद्माक्षी था। कहा जाता है कि पिंगला से वे अधिक प्रेम करते थे, लेकिन उसकी अकाल मृत्यु के बाद राजा भर्तृहरि का मन राजपाट में नहीं लग रहा था। और इसी कारण वे महर्षि गोरखनाथ जी के संपर्क में आए और उन्हें अपना गुरु बना लिया। गुरु गोरखनाथ जी से दीक्षा लेने के बाद उन्होंने अपना राजपाट अपने छोटे भाई विक्रमादित्य को सौंप दिया और तपस्या करने के लिए इस गुफा को चुना।
राजा भर्तृहरि एक महान शासक, तपस्वी एवं संस्कृत साहित्य के महान ज्ञाताओं में से एक थे। वे अपने समय में ही नहीं बल्कि आज भी शब्द विद्या के महान आचार्य कहे जाते हैं। भर्तृहरि ने वैराग्य धारण करने के बाद संस्कृत के कई ऐसे ग्रंथों की रचना भी की थी जो आज भी पढ़े जाते हैं।
राजा भर्तृहरि ने इसी तपस्या स्थली से वैराग्य पर 100 श्लोक भी लिखे, जो कि वैराग्य शतक के नाम से आज भी प्रसिद्ध हैं। उससे पहले अपने शासनकाल में वे श्रृंगार शतक और नीति शतक नामक दो संस्कृत काव्य भी लिख चुके थे। इन तीन काव्य शतकों के अलावा व्याकरण शास्त्र का प्रसिद्ध ग्रन्थ वाक्यपदीय भी उनकी महानता का परिचय देता है।
भर्तृहरि संस्कृत के महान कवियों में से एक थे। इनके तीन प्रमुख शतकों में नीतिशतक, शृंगारशतक और वैराग्यशतक की उपदेशात्मक कहानियां भारतीय जनमानस को आज भी विशेष रूप से प्रभावित करती हैं। प्रत्येक शतक में सौ-सौ श्लोक हैं। इन्हीं तीन शतकों के कारण उन्हें आज भी एक सफल और उत्तम कवि माना जाता है। इनकी भाषा सरल, मनोरम, मधुर और प्रवाहमयी है इसलिए हर पाठक के हृदय और मन दोनों को प्रभावित करती है।
भर्तृहरि की रचनाओं को पढ़ने वाले पंडितों और शोधकर्ताओं और अध्ययनकर्ताओं का कहना है कि उनकी भाषा सरल, मनोरम, मधुर और प्रवाहमयी है। भावाभिव्यक्ति इतनी सशक्त है कि वह पाठक के हृदय और मन दोनों को प्रभावित करती है।
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भर्तृहरि ने जिस वैराग्य शतक की रचना की, वह आज भी काफी प्रसिद्ध है। इसके अलावा उनके द्वारा लिखित श्रृंगार शतक और नीति शतक जैसी रचनाएं आज भी उपलब्ध हैं। उनके द्वारा रचित ‘शतकत्रय ग्रंथ‘ अपनी तरह का एकमात्र गं्रथ है। उनके द्वारा लिखे हुए अन्य तीन ग्रन्थ ‘श्रृंगार शतक‘, ’नीतिशतक’ और ‘वैराग्य शतक’, ‘भर्तृहरि शतक’ के नाम से प्रसिद्ध हैं। इन्हीं तीन शतकों के कारण उन्हें संस्कृत भाषा का एक सफल और उत्तम कवि माना गया है।
राजा भर्तृहरि ने वैराग्य धारण कर नाथ संप्रदाय की दीक्षा लेने और फिर तपस्या के लिए जिस स्थान का चयन किया था वह स्थान आज भी उज्जैन में स्थित राजा भर्तृहरि की गुफा के नाम से प्रसिद्ध है। यह गुफा क्षिप्रा नदी के किनारे एक छोटी सी पहाड़ी पर स्थित है। माना जाता है कि राजा भर्तृहरि ने इस गुफा में लगभग 12 वर्षों तक कठोर तपस्या की थी।
कई इतिहासकारों के अनुसार राजा भर्तृहरि और सम्राट विक्रमादित्य जैसे इतिहास पुरूषों और महान राजाओं से जुड़े होने के कारण यहां की धरती में अनेकों प्रकार के ऐतिहासिक साक्ष्य मौजूद हैं। इसलिए यदि इस इस स्थान के निकट खुदाई करवाई जाए और ऐतिहासिक साक्ष्यों की तलाश की जाय तो संभव है कि यहां से अवश्य ही राजा भर्तृहरि और विक्रमादित्य से संबंधित इतिहास और उनकी संस्कृति के अनेकों अवशेष उपलब्ध हो सकते हैं।
यह गुफा नाथ सम्प्रदाय से संबंधित है इसलिए यहां इस संप्रदाय के साधु-सन्यासियों और महात्माओं को आसानी से देखा जा सकता है। इसके अलावा बताया जाता है कि राजा भर्तृहरि का अन्तिम समय राजस्थान में बीता था, इसलिए उनकी समाधि राजस्थान के अलवर में आज भी विद्यमान है।