यह तो सर्वविदित है कि प्रकृति सत्ता ने सृष्टि की रचना के बाद समस्त जीवों का अस्तित्व पंच तत्वों यानी क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा यानी पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश और वायु के माध्यम से ही निर्धारित किया हुआ है। इन पंच तत्वों के अतिरिक्त किसी भी जीव का अपना कुछ भी नहीं है। इन पंच तत्वों में से किसी भी तत्व का मिजाज जरा सा भी दायें-बायें हुआ तो समझो अनर्थ ही अनर्थ। सृष्टि की रचना के बाद से ईश्वरीय शक्तियों, ऋषि-मुनियों, साधु-संन्यासियों एवं महान विभूतियों ने समय-समय पर अपने दिव्य ज्ञान एवं अनुभव के आधार पर यह बताने का काम किया है कि मानव सहित सृष्टि के सभी जीव क्या खायें, क्या पियें, कैसे रहें एवं कैसे जियें? इसीलिए भारतीय संस्कृति महान, दुर्लभ एवं अनुकरणीय है।
मानव आज जिस मुकाम पर खड़ा है, उसका क्रमिक विकास हुआ है। सृष्टि के विकास की एक लंबी गाथा है। आज के आधुनिक युग का मानव अपने आप को चाहे जितना भी बुद्धिमान एवं समग्र दृष्टि से सक्षम एवं समर्थ समझ ले, किन्तु प्रकृति सत्ता के समक्ष वह कुछ भी नहीं है। वैसे तो इसके तमाम उदाहरण हैं किन्तु कोरोना काल को ताजा उदाहरण के रूप में लिया जा सकता है। जिस कोरोना काल में पूरा विज्ञान एवं मानव समाज घुटनों के बल लेट गया था, उस समय प्रकृति एवं पूर्वजों के ज्ञान से ही कोरोना से लड़ने की ताकत एवं प्रेरणा मिली। हमें अपने ऋषि-मुनियों एवं महान विभूतियों के माध्यम से यह भली-भांति जानकारी मिल चुकी है कि पंच तत्वों के माध्यम से जीवन की नैया आसानी से चलायी जा सकती है, बशर्ते हमें प्रकृति के निर्देशों, इशारों, नियमों एवं सिद्धांतों पर सदैव अमल करना और सदैव करते
रहना है।
प्रकृति द्वारा प्रदत्त वनस्पतियों, सब्जियों, फल-फूल, अनाज आदि के माध्यम से जीवन आसानी से चलाया जा सकता है किन्तु आवश्यकता इस बात की है कि प्रकृति से हम उतना ही लें जितना कि जरूरी है। व्यक्ति या कोई भी जीव जब जरूरत से ज्यादा उपयोग-उपभोग या संग्रह करने लगता है तो उससे प्रकृति का संतुलन बिगड़ने लगता है। उदाहरण के तौर पर जल का संग्रह होगा तो पानी की किल्लत होगी ही, जंगल कटेंगे तो हवा की कमी होगी ही, जमीनों पर अनावश्यक अतिक्रमण होगा तो अनाज की कमी का सामना करना ही होगा।
बात सिर्फ जीवन जीने तक ही सीमित नहीं हैं बल्कि भयंकर से भयंकर बीमारियों का निदान भी हमारे पंच तत्वों में ही निहित है। चूंकि, समाज का जैसे-जैसे विकास होता है, वैसे-वैसे बीमारियां एवं समस्याएं भी बढ़ती जाती हैं। जीवन जीने का तरीका भी बदलता रहता है। अनादि काल से परिवार, कुटुंब, समाज की व्यवस्था से आगे बढ़ते हुए राजतंत्र, मुगलों एवं अंग्रेजों की गुलामी झेलते हुए हम लोकतंत्र में पहुंच चुके हैं। आज मानव सर्वदृष्टि से सक्षम एवं संपन्न है, फिर भी वह बेचैनी के आलम में जीवन जीने के लिए विवश है। सब कुछ होते हुए भी यदि मानव बेचैन, परेशान, विक्षिप्त एवं दुखी नजर आये तो बिना किसी संकोच के यह मान लेना चाहिए कि रास्ता गलत दिशा में या यूं कहा जा सकता है कि अंधी गली में जा रहा है। अब हमें यही समझना है कि आखिर वह अंधी गली कौन सी है? हमें उस अंधी गली में जाने से कैसे बचना है?
यदि इन सभी पहलुओं का विस्तृत रूप से विश्लेषण किया जाये तो स्पष्ट होता है कि हम चाहे जितना भी ऐशो-आराम एवं सुख-सुविधाओं की व्यवस्था कर लें किंन्तु होगा वही, जो ऊपर वाला चाहेगा। ऊपर वाले से मेरा सीधा आशय पंच तत्वों से है। कोरोना काल में देखने को मिला कि जब सांसों की कमी पड़ी तो कृत्रिम सांसों से मानव का बहुत अधिक भला नहीं हो सका। ग्रामीण भारत में तो ऐसे भी उदाहरण देखने को मिले कि कोरोना के मरीजों को जब सांसों की जरूरत पड़ी तो पीपल या अन्य ऐसे पेड़ जो आक्सीजन के बड़े माध्यम हैं, उन पेड़ों के नीचे मरीजों को लिटा दिया गया यानी मुसीबत के वक्त प्रकृति की ही शरण में जाना पड़ा। यह भी अपने आप में सत्य है कि प्रकृति के नियमों के मुताबिक आप उतना ही ग्रहण कीजिए जितना आप के जीवन के लिए आवश्यक है।
प्रकृति के नियमों के मुताबिक कोई भी प्राणी कितना सक्षम एवं समर्थ क्यों न हो परंतु वह उतने का ही अधिकारी है जितना उसके लिए आवश्यक है। कुल मिलाकर कहने का आशय यही है कि किसी के भी जीवन के लिए किसी भी वस्तु या संसाधन को उतना ही उपयोग में लेना है जितना आवश्यक है। संसाधनों का संग्रह यदि अनावश्यक उपयोग या यूं कहें कि ऐशो-आराम के लिए किया जायेगा तो अनर्थ ही होगा। मूल रूप से देखा जाये तो प्रकृति का यही संदेश एवं निर्देश है। इस पर सभी को अमल करना ही चाहिए।
हमारे ऋषि-मुनि अपने प्रवचन, किस्से कहानियों एवं ज्ञान के माध्यम से हमेशा इस बात का एहसास कराते और सदैव याद दिलाते रहते हैं कि वृक्ष कभी अपना फल नहीं खाते, नदियां कभी अपना जल नहीं पीतीं। इसी प्रकार वायु, अग्नि, आकाश, सूर्य एवं प्रकृति के अन्य अंगों को उदाहरण के रूप में लिया जा सकता है। कुल मिलाकर कहने का आशय यही है कि जो सर्वदृष्टि से सक्षम एवं समर्थ हैं, उन्हें अपनी शक्ति एवं संसाधनों का प्रयोग समाज के लिए करना चाहिए, न कि स्वयं अपने लिए। समर्थ लोगों को सदैव समाज की सेवा में रहना चाहिए। ईश्वर ने उन्हें समर्थ बनाया ही इसलिए है कि वे बेसहारा, लाचार, कमजोर एवं गरीब लोगों की मदद कर सकें। मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम, भगवान श्रीकृष्ण, भगवान महावीर जैसी ईश्वरीय शक्तियों ने अपने को सर्व समाज के लिए इसलिए न्यौछावर कर दिया जिससे समाज प्रेरणा लेकर उसी रास्ते पर आगे बढ़ सके।
चूंकि, वर्तमान समय लोकतंत्र का है। वैसे तो लोकतंत्र में ‘लोक’ यानी ‘आम जनता’ को ही सब कुछ माना गया है किन्तु व्यावहारिक धरातल पर क्या स्थिति है इस पर व्यापक रूप से बहस हो सकती है परंतु बात यहां उस संदर्भ की हो रही है कि यदि सभी जन प्रतिनिधि प्रकृति के नियमों का पालन करें तो न तो कोई दुखी होगा और न ही किसी को दुखी करेगा। भारतीय लोकतंत्र में ग्राम स्तर से राष्ट्रीय स्तर तक विधिवत लोकतंत्र की व्यवस्था है यानी सब कुछ जनता का है किन्तु विदेशी बैंकों में भारतीयों की जो भारी धनराशि जमा है उसमें ऐसे जन प्रतिनिधियों की भी है जिनके पास जन प्रतिनिधि बनने से पहले कुछ भी नहीं था।
देश में कई ऐसे लोग हैं जो बैंकों से भारी मात्रा में ऋण लेकर विदेशों में जाकर बस चुके हैं। सही मायनों में देखा जाये तो बैंकों में जो पैसा जमा है, वह आम जनता के खून-पसीने की गाढ़ी कमाई व बचत को लूटकर कोई यूं ही फरार होगा तो कुदरत उसको दंड अवश्य देगी क्योंकि यह भी सत्य है कि लाचार एवं मजबूर का सिर्फ ईश्वर ही सहारा है। इससे बड़ी सत्य बात यह है कि ऊपर वाले की लाठी में आवाज तो होती नहीं किन्तु लगती बहुत तेज है, इसलिए जो लोग अनावश्यक उपभोग या यूं कहें कि अनावश्यक रूप से संग्रह में लगे हैं, हिसाब तो उनका हो कर ही रहेगा। हमारे देश में एक बहुत ही प्रचलित कहावत है कि ‘ऊपर वाले के घर में देर है, अंधेर नहीं’ यानी लोगों को आज भी ईश्वरीय सत्ता में अटूट विश्वास है। वैसे भी आम जन जीवन में साधु-संन्यासी, ऋषि-मुनि या अन्य ऐसे लोग जिनके पास शाम-सवेरे दो वक्त की रोटी का इंतजाम नहीं है, वे इतने मस्त होकर चैन की नींद सोते हैं, जैसे इन्हें न तो अपने भविष्य की चिंता है और न ही किसी बात की परवाह।
कुछ लोग ऐसे लोगों का भले ही उपहास उड़ा लें, किन्तु गंभीरता से यदि इसका विश्लेषण किया जाये तो महान विभूतियों की नजर में ईश्वर का यही न्याय है यानी ईश्वर किसी को कुछ देता है तो किसी को कुछ। सभी को सब कुछ नहीं देता। शायद, इसीलिए कहा जाता है कि ऊपर वाला सभी को एक ही दृष्टि से देखता है यानी उसकी नजर में सभी बराबर हैं। इन बातों के बीच एक बात निश्चित रूप से यह कही जा सकती है कि ऊपर वाले के पास सभी का जन्मों-जन्मों का हिसाब होता है। अपने-अपने कर्मों के हिसाब से सबका खाता भी होता है और उसी खाते के मुताबिक मानव सहित सभी जीवों पर ऊपर वाले की दृष्टि पड़ती रहती है। यह बात जिसकी समझ में आ जाये तो भी ठीक, न आये तो भी ठीक, यह सब अपने-अपने नजरिये पर निर्भर है।
लोकतांत्रिक व्यवस्था में कुछ लोग अपनी क्षमता, संसाधनों एवं सरकारी सिस्टम को अपने हिसाब से चलाकर चाहे जितनी भी धन-दौलत इकट्ठा कर लें किंतु ऊपर वाले की दृष्टि से बच नहीं सकते हैं। भारतीय समाज में उदाहरण के तौर पर एक बात बार-बार कही जाती है कि महापराक्रमी एवं शक्तिशाली राजा सिकंदर महान भी दुनिया से खाली हाथ गया था। यह बात मात्र उदाहरण के तौर पर भले ही है किंतु इसका बहुत गूढ़ अर्थ है। कहने के लिए तो यहां तक कहा जाता है कि सिकंदर महान को जब जीवन के आखिरी समय में ज्ञान हुआ तो उसने अपनी इच्छा व्यक्त कि जब मैं दुनिया से जाऊं तो मेरे हाथों को बाहर निकाल दिया जाये जिससे लोगों को यह संदेश मिल सके कि जब सिकंदर महान भी खाली हाथ जा रहा है तो बाकी लोगों की उसके समक्ष क्या औकात यानी कि सभी को दुनिया से ऐसे ही विदा होना होगा।
कुल मिलाकर यह सब लिखने का मेरा आशय मात्र इतना ही है कि जिन्हें भी किसी रूप में संसाधनों को संग्रह करने का मौका मिला है, वे संग्रह जरूर करें किंतु अपने लिए नहीं बल्कि राष्ट्र एवं समाज के लिए क्योंकि भारत उन श्रेष्ठ परंपराओं वाला ऐशा देश है जहां ऋषि दधीचि ने समाज हित में अपनी हड्डियां दान कर दीं, कितने राजाओं-महाराजाओं ने राष्ट्र एवं समाज हित में अपनी पूरी संपत्ति दान में दे दी, मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम ने राजपाट छोड़ कर समाज हित में अपने को समर्पित कर दिया। इस प्रकार देखा जाये तो ऐसे अनगिनत उदाहरण भारतीय सभ्यता-संस्कृति में भरे पड़े हैं, जिस पर अमल करके कोई भी व्यक्ति सत्य मार्ग से भटकने से बच सकता है।
यहां यह इंगित करना भी उपयुक्त होगा कि आज भी भारतवर्ष में सदियों से ऐसी महान विभूतियां हुई हैं जिनके द्वारा समाज हित के असंख्य कार्य होते रहे हैं- जैसे अस्पताल बनवाना, प्याऊ बनवाना, स्कूल खुलवाना, धर्मशालाएं बनवाना, ऊच्च तकनीकी व शोध शिक्षण संस्थान, समाज हित के कार्यों के लिए धन का प्रावधान इत्यादि। टाटा, बिड़ला, गोयनका जैसे कई धनवान व्यक्ति अपना योगदान समाज एवं राष्ट्रहित में सदैव देते रहे हैं। इसी कड़ी में आज भारत व विश्व की महान विभूतियां, जैसे – अजीम प्रेमजी, अंबानी गु्रप, अडाणी गु्रप व डिजिटल जगत की महान हस्तियों, बिलगेट्स इत्यादि ने अपनी समस्त पूंजी का अधिकांश भाग समाज कल्याण के लिए सौंप दिया है।
जापान में तो आज कोरोना के बाद बड़ी से बड़ी हस्तियों ने आवश्यकता से अधिक उपभोग को तिलांजलि सी दे दी है। अपने-अपने घरों से टीवी, फ्रिज, एसी जैसी उपभोक्तावादी वस्तुओं की तिलांजलि देने की होड़ मचा रखी है जिसे विश्वभर में न केवल सराहा जा रहा है बल्कि उस मार्ग पर चलने के लिए संकल्प भी लिये जा रहे हैं। जैन धर्म में तो प्राचीन काल से ही यह सिद्धांत प्रचलित है एवं उसका अनुसरण भी होता रहा है कि आवश्यकता से अधिक संचय मोक्ष मार्ग के तप में नितांत बाधक है।
आज देखा जाये तो पूरे विश्व में जो अशांति, युद्ध व पृथ्वी के अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है उसकी मूल जड़ में प्राकृतिक संसाधनों के अनावश्यक दोहन एवं संचय की भावना ही है, जिसके कारण न केवल मानव जाति बल्कि सभी प्राणी मात्र पर तीसरे विश्व युद्ध का खतरा उत्पन्न हो गया है। अगर यह मान भी लिया जाये कि विश्व की महाशक्तियों को संचय व संयोजन करना ही है तो वे संरक्षण व संवर्धन करें जंगलों का, नदियों का, पर्यावरण शुद्धीकरण का, प्रदूषण मिटाने का, आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने का, मानवतावादी सोच-विचार इत्यादि का, जिससे पूरे विश्व में भारतीय ऋषि-मुनियों द्वारा प्रतिपादित ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ की भावना को चरितार्थ किया जा सके, और हमारा यह पृथ्वी ग्रह प्रकृतिमय होकर सदा के लिए अस्तित्व में रहे।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखाओं में अकसर एक गीत सुनने को मिलता रहता है कि ‘देश हमें देता है सब कुछ, हम भी तो कुछ देना सीखें।’ इसके अतिरिक्त यह गीत भी सुनने को मिलता रहता है कि ‘तेरा वैभव अमर रहे मां, हम दिन चार रहें या न।’ इसका सीधा सा अभिप्राय यह है कि ईश्वर ने हमें जो भी ज्ञान, विवेक एवं शक्ति दी है, उसका उपयोग राष्ट्र एवं समाज के लिए होना चाहिए और इसी में राष्ट्र-समाज का कल्याण निहित है। अतः बिना संकोच के यह बात कही जा सकती है कि हम चाहे जितने भी समर्थ एवं शक्तिशाली हो जायें किंतु संसाधनों का उतना ही उपयोग करना है, जितना जीवन के लिए आवश्यक हो। अनावश्यक उपभोग एवं संसाधनों के अनावश्यक संग्रह से किसी भी स्थिति में बचना है। जिस दिन हम ऐसी स्थिति में पहुंचने में कामयाब हो गये, उसी दिन से भारत फिर से सोने की चिड़िया बनने के पथ पर अग्रसर हो जायेगा और देश पुनः विश्व गुरु बनने की दिशा में अपना कदम आगे बढ़ा देगा।
– अरूण कुमार जैन (इंजीनियर) (पूर्व ट्रस्टी श्रीराम-जन्मभूमि न्यास एवं पूर्व केन्द्रीय कार्यालय सचिव, भा.ज.पा.)