नथुनों से इन दिनों महुए की मादक गंध पता नहीं कहां से टकरा रही है। खूशबू भाव विभोर कर रही है। दूसरी ओर, पलाश के हरे पत्तों के बीच से आ रही ठंडी हवा इस मादक गंध को और बढ़ा रही है। प्रभात में खिला सुमन रागिनी के स्वर में झूम रहा है। जो लोग मेरे गृह जिले पलामू और राज्य झारखंड को जानते होंगे, उन्हें महुआ और पलाश की सांस्कृतिक व आर्थिक महत्ता की जानकारी होगी।
पहले बात महुआ की। अभी सफेद, बिलकुल दूध की तरह, महुआ पेड़ पर है। सुबह में सूर्य की किरणों से पहले यानी प्रभात में ये फूल चूने लगते हैं। इन फूलों से बचपन की दो यादें जुड़ी हैं, एक खाने की तो दूसरी चुनने की। तब हम दोनों भाई मौका पाते ही पनेरीबांध चले जाते थे। पनेरीबांध से कोई पांच-सात किलोमीटर पर था माई (दादी) का ममहर खोहरी। यहां रहने वाले उनके भाई चंदरदेव बाबा दूध में सिझाया हुआ महुआ ला देते थे। अद्भुत मिठास होती थी इसकी।
डालटनगंज में हमलोग प्रो. केएस अग्रवाल जी के मकान में रहते थे। सुबह हुई नहीं कि हम दोनों भाई, उनके दोनों बेटों राजू और संजय के साथ घर के पास के महुआ के पेड़ से सीजन की शुरुआत में फूल चुन लिया करते थे। शुरू में ये गिनती में होते थे जिन्हें हम छुपा कर रखते थे। सीजन खत्म होते-होते सभी कुछ किलो के मालिक हो जाते थे। इन्हें भी हम घरवालों से छुपाए रखते थे। अब भी नहीं बताएंगे।
अपने इस अमूल्य खजाने को हम सभी पास की एक दुकान में बेचते थे। पांचवीं-छठी कक्षा में आते-आते ज्ञान चक्षु खुलने लगे और बंद हो गया महुआ चुनना। बाद में पता चला कि इस महुए का तो अलग ही अर्थशास्त्र है। फूल सूखने के बाद पशुओं को चारे के रूप में दिया जाता है तो इससे पारपंरिक शराब भी बनती है। तभी तो हमारे जिले में एक बात प्रचलित है-फलनवां, सहिए-सांझे महुआ चढ़ा लेले हऊ।
फूल जब फल का रूप ले लेता है तो इसका महत्व और बढ़़ जाता है। इसके बीज से तेल निकलता है, जिसे डोरी का तेल कहा जाता है। इसका इस्तेमाल सौंदर्य प्रसाधन और डिटरजेंट बनाने में होता है। मैंने फल खाने और तेल को भोजन छानने में इस्तेमाल की बात सुनी है पर खुद का अनुभव नहीं है।
अब बात करते हैं पलाश की। पलाश के पेड़ और इसके झूरमुट पलामू के हर गांव में हैं। मेरे गांव में भी हैं और पिछले साल की तस्वीर गवाह भी है। फागुन के महीने में तो इसके फूल ऐसी आभा बिखेरते हैं जिससे लगता है कि पूरा क्षेत्र ही भगवामय हो गया है। फूल को सुखा कर गुलाल बनाया जाता है। बिलकुल प्राकृतिक आज की भाषा में आर्गेनिक। फूल को पानी में डाल कर छोड़ दें तो ऐसा रंग तैयार होता है कि रंगों से दूर रहने वाली भी कहे-रंग दे मोहे…। बसंत समाप्त होते ही पलाश पर लाह का लगना। फिर इन्हें उतारकर बाजार तक पहुंचाना।
कुल मिलाकर कहें तो महुआ और पलाश मेरे जिले की सांस्कृतिक धरोहर और आर्थिक संबल देने वाले हैं। महुए की तस्वीर मित्र मृत्युंजय शर्मा ने भेजी है। यह लेख पुराना है, पर यादें जितनी पुरानी हों उतनी ही ज्यादा सुखद होती हैं।
– प्रभात ‘सुमन’