जब स्वामी दयानन्द सरस्वती ने ‘सत्यार्थप्रकाश’ की रचना आरम्भ की, तो ऐसा प्रतीत होता है मानो वे तर्क-प्रपञ्च के नशे में चूर होकर ही लेखनी उठाए बैठे हों। यह बात स्वयं सत्यार्थप्रकाश के प्रथम समुल्लास, पृष्ठ संख्या ९ में प्रत्यक्ष रूप से प्रमाणित होती है, जहाँ उनका कथन मूर्खता की पराकाष्ठा का परिचायक बन जाता है।
स्वामी दयानन्द लिखते हैं कि —
“ब्रह्मा, विष्णु और महादेव नामक पूर्वकालीन विद्वान थे, जो परब्रह्म परमेश्वर की उपासना किया करते थे।”
इस कथन को देखकर यह प्रतीत होता है कि स्वामी दयानन्द ने न तो ऋग्वेदादि संहिताओं का दर्शन किया और न ही श्रुति के तात्त्विक रहस्यों को आत्मसात् किया। यदि उन्होंने वेद का अवगाहन किया होता तो ऐसा दुर्वचनीय साहस कभी न करते।
क्योंकि वेदों में स्वयं यह स्पष्ट उद्घोष है कि — “जो इन्द्र है, वही ब्रह्मा है, वही विष्णु है, वही रुद्र है।”
ऋग्वेद (२।१।३) में कहा गया है —
त्वम॑ग्न॒ इंद्रो॑ वृष॒भः स॒ताम॑सि॒ ।
त्वं विष्णु॑रुरुगा॒यो न॑म॒स्यः॑ ।
त्वं ब्र॒ह्मा र॑यि॒विद्ब्र॑ह्मणस्पते॒ ।
त्वं वि॑धर्तः सचसे॒ पुरं॑ध्या ॥
अर्थात् —
“हे अग्ने! तू ही इन्द्र है, तू ही विष्णु है, तू ही ब्रह्मा है; तू ही सबका धारक और रक्षक है।”
इसी भाव को तैत्तिरीय आरण्यक में और भी स्पष्ट कहा गया है —
त्वमिन्द्रस्त्वं रुद्रस्त्वं विष्णुस्त्वं ब्रह्म त्वं प्रजापतिः।
और नृसिंहतापनीय उपनिषद् में भी प्रतिध्वनित है —
स ब्रह्मा स शिवः स हरिः सेन्द्रः सोऽक्षरः परमः स्वराट्।
अर्थात् — वही एक परमात्मा ब्रह्मा है, वही शिव है, वही हरि है, वही इन्द्र है, वही परम अक्षर स्वरूप है।
श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं कहते हैं —
“नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां।” (गीता १०।४०)
“मेरी दिव्य विभूतियों का अंत नहीं है।”
अर्थात् — वही एक परमात्मा अपने कार्य-कारण रूप में ब्रह्मा-विष्णु-महेश रूप से प्रकट होता है।
इसी कारण श्रुतियों में बारम्बार “नेति नेति” कहकर उस परब्रह्म की अनन्त विभूतियों की अव्याख्येयता को प्रकट किया गया है।
वास्तव में सत्त्व, रजस और तमस् — ये तीनों प्रकृति के गुण हैं। वह एक परम पुरुष जब इन गुणों के माध्यम से सृष्टि-क्रिया में प्रवृत्त होता है, तब —
सत्त्वगुण से हरि (विष्णु),
रजोगुण से ब्रह्मा,
तमोगुण से रुद्र (हर) —
रूप में जगत् की सृष्टि, स्थिति और संहार करता है।
अतः यह कहना कि ब्रह्मा-विष्णु-महेश केवल “प्राचीन विद्वान” थे — वेद-वाक्य और उपनिषद् सिद्धान्त का घोर अपमान है।
पंडित राजकुमार मिश्र द्वारा प्रस्तुत।