महाभारत का कथन है कि राजा का प्रमुख कर्तव्य है प्रजा की रक्षा करना, और यदि कोई राजा प्रजा की रक्षा नहीं कर सकता है तो ऐसे राजा को हटा देना चाहिए। यदि राजा अपने राष्ट्र, धर्म और प्रजा की रक्षा नहीं कर सकता हो तो ऐसे राजा को किसी भी प्रकार से हटाना आत्मरक्षा कहलाता है और आत्मरक्षा से ही संसार में जीवित रहा जा सकता है। अतः राजा को सर्वप्रथम प्रजा की रक्षा पर ध्यान देना चाहिए और शान्ति की सुव्यवस्था करनी चाहिए।
राजा जब तक अपने राज्य में शत्रुओं को नष्ट नहीं करेगा, तब तक शान्ति की स्थापना नहीं हो सकती है। अतः वेदों में अनेक मन्त्रों के द्वारा राजा को शत्रुनाशन का आदेश दिया गया है। ऐतरेय ब्राह्मण ने राज्याभिषेक के समय ही राजा का कर्तव्य बताया है ‘अमित्राणां हन्ता’ अर्थात् शत्रुओं को नष्ट करे। इसी प्रकार से यजुर्वेद का कथन है कि राक्षसों और पापियों के नाश के लिए तुझे राजा बनाया गया है, न की सत्ता भोगने के लिए। राजा के लिए स्पष्ट आदेश है कि वह शत्रु की सेना पर विजय प्राप्त करे और उपद्रवी एवं कपटी लोगों को उसी युद्ध भूमि में नष्ट करे। राज्याभिषेक के समय भी प्रार्थना की जाती है कि राजा शत्रुओं को सर्वथा समाप्त कर दे। राजा अपने शत्रुओं को पैर से रौंद दे।
राजा का कर्तव्य हे कि यह सदा शत्रुओं पर विजय प्राप्त करे तथा कभी पराजित न हो। अथर्ववेद में भी यही बात कही गई है कि राजा शत्रुओं को समूल नष्ट कर दे। जो कोई भी आम नागरिकों और स्त्रीजाति के प्रति कुदृष्टि रखता है, समाज से वैरभाव रखता है, जो पापी हैं, जो गाय को केवल पशु समझता हो, राष्ट्र के मूलधर्म को नहीं मानता हो या चोर-उचक्के हैं, उनको भी राष्ट्र का शत्रु ही माना जाय और उनको भी नष्ट कर दे।
प्रजापालन के लिए वेदों में लिखा है कि राजा का प्रमुख कर्तव्य है – प्रजा का पालन, रक्षण और संवर्धन। इसलिए कहा गया है कि ‘राजा प्रकृति – रञ्जनात्’ अर्थात् प्रजा को प्रसन्न करने से ही राजा कहा जाता है। यजुर्वेद का कथन है कि – ‘प्रजाः पाहि’ अर्थात् प्रजापालन राजा का कर्तव्य है।
एक अन्य मंत्र में कहा गया है कि प्रजा राजा को पूर्ण सहयोग दे और राजा प्रजा को सभी प्रकार से संरक्षण दे। वेदों में यह भी कहा गया है कि राजा का कर्तव्य है कि वह प्रजा को इस प्रकार संरक्षण दे कि प्रजा को किसी प्रकार की कोई हानि न पहुँचे।
महाभारत में इस विषय का भी बहुत सुन्दर वर्णन है कि राजा सात रूप में प्रजा का पालक होता है – वह माता, पिता, गुरु, रक्षक, अग्नि, कुबेर और यम है। अर्थात राजा इन सभी रूपों में प्रजा का पालक है। अतः एक राजा माता भी है और पिता भी। इस लिए प्रजा का अहित करने वालों को जलाता अर्थात दंड देने का अधिकार रखता है, अतः अग्नि है। दुष्टों का दमन करता है और उन्हें नियन्त्रण में रखता है, अतः यम है। सज्जनों और विद्वानों को खुलकर दान देता है, अतः कुबेर है। धर्म और अनुशासन की शिक्षा देता है, अतः गुरु है। प्रजा का संरक्षण करता है, अतः रक्षक (गोप्ता) है। जो राजा धर्म का पालन करता है और सारी प्रजा को प्रसन्न रखता है, उसका राज्य कभी अस्थिर नहीं होता।
राजा का कर्तव्य है कि वह स्वतंत्र हो। उसका देश स्वतंत्र हो। स्वराज्य की स्थापना हो। अतएव ऋग्वेद के एक पूरे सूक्त के मंत्रों में ‘अर्चन् अनु स्वराज्यम् ’ कहकर स्वराज्य की प्रशंसा की गई है। यजुर्वेद में राज्याभिषेक के समय ‘स्वराज स्थ’ कहकर राजा को आदेश है कि वह स्वराज्य की स्थापना करे।
(वेदों में राजनीतिशास्त्र से)