अजय सिंह चौहान | एक पश्चिमी लेखिका कैथरीन एशेनबर्ग द्वारा लिखी गई पुस्तक “The Dirt on Clean” के पेज 166 पर लिखा है कि – इंग्लैंड के बकिंघम पैलेस में यानी रानी के महल में सन 1837 (उन्नीसवीं शताब्दी) में तक भी बाथरूम यानी स्नानघर की स्थाई सुविधा नहीं थी. इसी तरह एक जर्नल जो की 1895 में प्रकाशित हुआ था उसका प्रमाण देकर इस पुस्तक के पेज 188 पर लिखा है कि – In Paris people do not know how to wash their bottom properly.
यह पुस्तक कहती है कि उन्नीसवीं शताब्दी में फ्रांस में पहली बार एक टॉइलेट शीट का निर्माण किया गया, जो कि उनके लिए आश्चर्य का विषय था. फ्रांसीसी लोग खुद भी और इंग्लैंड के लोग भी उसके इस्तमाल के लिए जब जाते थे तो उन्हें उसकी आदत नहीं थी इसलिए वे उसके बाहर यानी फर्श को ही गंदा करते थे, जिसके बाद कई भारतीय लोगों के द्वारा उन्होंने इसके इस्तमाल का तरीका जाना.
पेरिस के विश्वप्रसिद्ध “वर्साय पैलेस” (Versailles Palace in Paris, France) की कहानी भी कुछ अलग नहीं बल्कि कुछ इसी प्रकार से है. 18वीं शताब्दी में वहां से राजा का आदेश पारित हुआ कि – “अब से प्रति सप्ताह महल के गलियारे को साफ़ किया जाएगा क्योंकि उसकी बदबू के कारण राजपरिवार को वहाँ शौच करने में परेशानी हो रही है.”
अब यहां लोगों में से कई लोगों के मन में सवाल उठ रहा होगा कि महल के उस खुले गलियारे को कौन गंदा (सौच) कर रहा होगा और क्यों कर रहा होगा? तो इसका उत्तर भी इसी पुस्तक में लिखा है, जिसके अनुसार उन दिनों तक भी पेरिस के इस वर्साय पैलेस में टॉयलेट का स्थाई प्रबंध नहीं था. क्योंकि वे लोग इस प्रकार की सफाई और शुद्धता को ठीक से जान ही नहीं पाए थे कि ऐसा भी कुछ किया जा सकता है. यही कारण है कि पेरिस का राजपरिवार अपने महल के एक खुले गलियारे में ही शौच करता था और उसकी सफाई भी नियमित नहीं हो पाती थी. हैरानी की बात तो ये है कि ये कोई हज़ार या बारह सौ वर्ष पुरानी नहीं बल्कि अठारहवीं शताब्दी की ही बात है.
हैरानी की बात तो ये भी है की आज जिस टिस्सु पेपर को पश्चिमी सभ्यता और स्वछता का प्रतीक माना जाता है उसकी शुरुआत ही उन्नीसवीं शताब्दी में हुई थी. जबकि इसके पहले तक वहां के लोग ठीक से अपने मल द्वार को पोंछना भी नहीं जानते थे.
दरअसल भारत में जब पश्चिमी लोगों का आना-जाना शुरू हुआ तो यहाँ उनकी उन्हीं म्लेच्छ प्रवत्ति और आदतों के कारण आम भारतीय लोगों ने उन्हें नकार दिया और उन्हें छूने से भी डरने लगे थे, जिसके कारण वे लोग खुद भी भारतियों से अपने को दूर रखते थे. जबकि हमारे आज के इतिहास में इसके ठीक उलटा ही पढ़ाया जाता है की उन लोगों ने भारतियों को गंदे लोगों का देश कहा था.
इस पुस्तक के अनुसार – सत्रहवीं शताब्दी के किसी भी सभ्य फ्रांसीसी के लिए सुगन्धित इत्र का उपयोग करने का मतलब था की उस इत्र की सुगंध के माध्यम से अपने बदन की दुर्गन्ध को दूर करना और हर दिन कपडे बदलने से बचना, यानी इत्र की सुगंध से लगता था की दिन में एक बार अपनी शर्ट बदल ली है.
इस पुस्तक में यह भी बताया गया है कि- वर्ष 1900 के दशक की शुरुआत में, उत्तरी अमेरिका में हर किसी व्यक्ति का एक असाधारण विचार हुआ करता था की हर दिन नहाने का मतलब है कि, मानो दिन में चार से पांच बार नहाने जैसा है। इसलिए वे सप्ताह में दो से तीन बार ही नहाते थे. देखा जाए तो आज भी वे लोग भारतियों की भांति हर दिन नहीं नहा पाते हैं. क्योंकि यह उनकी आदत और प्रकृति है.
आज भी अगर हम ठीक से अध्ययन करें तो पता चलेगा की पश्चिमी लोग बहुत ही कम नहाते हैं और एक दुर्गन्धित दुनिया में रहते हैं. ध्यान रहे कि हमारे पुराणों में और रामायण तथा महाभारत में भी इन्हीं पचिमी तथा अमेरिकन लोगों को ऐसे ही म्लेच्छ नहीं कहा जाता है. जबकि हैरानी होती है कि कुछ अधिक पढ़े-लिखे भारतीय लोग तो उन्हें आज भी सबसे अधिक स्वच्छ और समझदार ही मानते हैं.
लेखिका कैथरीन एशेनबर्ग ने इस पुस्तक में ऐसे कई प्रमाण दिए हैं जो उन्हीं पश्चिमी लेखकों और इतिहासकारों के द्वारा तथ्यात्मक तरीके से पेश किये गए हैं. लेखिका ने सत्रहवीं और अठारहवीं सदी के उस यूरोप की कई महामारियों का भी जिक्र किया है जो वहां के निवासियों की गन्दी आदतों और मल त्यागने की गलत आदतों और स्वछता से अनजान होने के कारण बस्तियों में प्लेग के रूप में दिख जाती थीं.
लेखिका ने इस बात को भी प्रमाणिकता के साथ लिखा है कि यूरोप के कई देशों और शहरों में आज भी कुछ महिलायें तथा पुरुष छाता लेकर चलते हैं, और हमारे कई लोग इसे उनके देश के मौसम और उनकी संस्कृति तथा इतिहास से जोड़कर देखते हैं. जबकि सच तो ये है कि उनका छाता लेकर चलता भी उनकी इसी म्लेच्छता से भरी आदतों से जुड़ा हुआ है.
दरअसल, यूरोपियन लोगों के आज भी बस यूँ ही हर समय छाता लेकर चलने की पीछे का सच तो यह है की बीसवीं शताब्दी तक भी यूरोप के कई शहरों में रहने वाले वे लोग जो पहली या दूसरी और तीसरी मंजिलों पर रहा करते थे, वे अपने घरों में स्थाई शौचालय की सुविधा न होने के कारण कपड़ों का इस्तमाल करते थे, जिसे आज हम “नेपकिन” और “डायपर” कहते हैं, उसको गंदा करने और उससे पोंछने के बाद खिड़कियों और बालकनियों से उसे वे गलियों और नालियों में यूँ ही फेंक दिया करते थे. जबकि कई बार ऐसे “नेपकिन” और “डायपर” गलियों से गुजरने वाले आम लोगों पर गिर जाया करते थे, जिससे बचने के लिए उन्होंने छाता लेकर चलने का तरीका खोज निकला।
लेखिका ने अपनी इस पुस्तक में साक्ष्यों के तौर पर ऐसी कई खोज, इतिहास के विचित्र शिलालेखों का भी खुलासा करते हुए विवरण दिए हैं और साफ़ कहा है की यह कोई व्यंग्य या मनोरंजन की पुस्तक नहीं बल्कि ऐसा सच है जिसके माध्यम से पश्चिम ने अपना वास्तविक इतिहास जान लेना चाहिए।
आज भले ही हमारे देश के हर एक गरीब परिवारों के घरों में शौचालयों का निर्माण बहुत देर से हो रहा है लेकिन यहाँ हमें ये भी जान लेना चाहिए की इसका कारण यह नहीं है की भारत में भी म्लेच्छों की भाँती ही पहले शौचालय नहीं थे, बल्कि आज से करीब 300 वर्ष पहले तक हर एक घर में शौचालय हुआ करते थे. और अगर आप इसके साक्ष्यों के तौर पर संदीप देव द्वारा लिखी हिंदी पुस्तक “टॉयलेट गुरु – बिंदेश्वर पाठक” पढ़ेंगे तो पता चलेगा कि भारत ही वो देश है जिसने शौचालय के लिए सबसे पहले उस शीट का निर्माण किया था जिसे आज हम “इंग्लिश शीट” कहते हैं, और इस “इंग्लिश शीट” का निर्माण आज नहीं बल्कि हड़पा काल में ही हो चुका था.
आज भारतीय लोगों को खासकर हिन्दुओं को आवश्यकता है कि वे एक बार फिर से अपने पाठ्यक्रमों से अलग और असली इतिहास, पुराणों और अन्य ग्रंथों को पढ़ने की आदत डालें। क्योंकि जबतक आप पढ़ने की आदत नहीं डाल पाएंगे, कोई भी म्लेच्छ और कालनेमि आकर हमारे ऊपर अपनी विचारधारा को थोप देगा और हमारी सभ्यता, संस्कृति और हमारे मूल धर्म का नाश हमसे ही करवा देगा, अगर आप पढ़ने की आदत डालते हैं तो आपको पता चलेगा की सबसे अच्छा धर्म, संस्कृति और सबसे अच्छी सभ्यता सिर्फ और सिर्फ हिन्दुओं की यानी सनातन धर्म की ही है.
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