यह सर्वविदित है कि अतीत में भारत विश्व गुरु था। सिर्फ विश्व गुरु ही नहीं था बल्कि पूरी दुनिया में भारत को सोने की चिड़िया कहा जाता था। इसी कारण विदेशियों ने यहां की धन-संपदा लूटने के मकसद से खूब हमले भी किये। भारत एक लंबे समय तक मुगलों एवं अंग्रेजों के अधीन रहा। गुलामी के लंबे कार्य काल में देश को सर्वदृष्टि से लूटने-खसोटने का काम हुआ। चूंकि, आज का जमाना ग्लोबलाइजेशन का है यानी पूरी दुनिया सिकुड़ कर बहुत छोटी हो गई है। पूरे विश्व में आवागमन के साधन पर्याप्त हो गये हैं। टेक्नोलाजी के विकास के कारण लोग एक दूसरे के साथ निरंतर संपर्क में हैं।
भारत सहित पूरी दुनिया विकास की गाथा में लगातार लिपटती जा रही है। मानव चांद तक पहुंच चुका है और अब तो वहां बस्तियां बसाने की कोशिश कर रहा है, फिर भी भारत सहित पूरी दुनिया में अशांति, उथल-पुथल एवं बेचैनी का आलम है। सर्वदृष्टि से विकास करने के बाद भी यदि भारत सहित पूरी दुनिया दुखी है तो बिना किसी लाग-लपेट के यह मान लेना चाहिए कि वर्तमान प्रणाली में कोई न कोई कमी अवश्य है। पंच तत्वों की अवहेलना करके मनुष्य एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकता है। विकास वही सर्वदृष्टि से लाभदायक हो सकता है जो प्रकृति के नियमों के अनुकूल हो यानी प्रकृति से उतना ही लिया जाये, जितना मानव जीवन के लिए आवश्यक है यानी विकास के साथ-साथ प्रकृति का संरक्षण-संवर्धन भी नितांत आवश्यक है।
विश्व की महाशक्तियों की बात की जाये तो स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि कहने के लिए तो वे महाशक्तियां हैं किन्तु उनकी बिल्कुल भी यह इच्छा नहीं होती है कि विश्व में शांति बनी रहे। दुनिया के कमजोर देशों की प्राकृतिक संपदाओं पर महाशक्तियों की पैनी नजर रहती है। उसे हड़पने के लिए महाशक्तियां किसी भी सीमा तक चली जाती हैं। जब महाशक्तियों की इस प्रकार की प्रवृत्ति है तो उनसे बिल्कुल भी यह उम्मीद नहीं की जा सकती है कि वे दुनिया में शांति स्थापित करने के लिए कार्य करेंगी। ऐसी स्थिति में यह कहना उचित भी नहीं है कि जो देश सिर्फ लूट-खसोट में लगे रहते हैं, वे विश्व गुरु जैसे प्रतिष्ठित ओहदे के साथ इंसाफ कर पायेंगे। ऐसे में उम्मीद की किरण के रूप में सिर्फ भारत ही बचता है। इस दृष्टि से यदि भारत की बात की जाये तो यह पूरी दुनिया को पता है कि भारत अतीत में विश्व गुरु रह चुका है। अब सवाल यह उठता है कि जब हम अतीत में विश्व गुरु रह चुके हैं तो अब क्यों नहीं हैं? इस बात पर विस्तृत रूप से विचार करने की आवश्यकता है। विश्व गुरु बनने के लिए हमें अपने उसी अतीत की तरफ जाना है, जिसकी वजह से भारत विश्व गुरु था।
वर्तमान परिस्थितियों के अनुसार पूरी दुनिया के साथ यदि कंधे से कंधा मिलाकर चलना जरूरी है तो हमें अपने गौरवमयी अतीत की तरफ झांकना भी जरूरी है। अतीत को अपनाते हुए यदि वर्तमान में जिया जाये तो निकट भविष्य में पुनः विश्व गुरु बना जा सकता है, बशर्ते उस पर ईमानदारी से अमल किया जाये। एक नजर यदि अपने अतीत पर डाली जाये तो उस समय हम पाश्चात्य जगत के गुलाम नहीं थे, आत्म सम्मान एवं स्वाभिमान में हम दुनिया के अन्य देशों से बहुत आगे थे। देश के प्रत्येक घर-परिवार में दूध-दही का भंडार रहता था, गुरुकुल शिक्षा प्रणाली के माध्यम से बच्चों को सर्वदृष्टि से सुयोग्य एवं संस्कारी बनाने का काम होता था। नालंदा एवं तक्षशिला जैसे शिक्षा केन्द्र थे। छोटे-छोटे घरेलू एवं कुटीर उद्योगों की बहुलता थी। इंसानियत एवं मानवता का बोलबाला था। राज सत्ता पर धार्मिक सत्ता का दबाव एवं प्रभाव था। धार्मिक सत्ता राज सत्ता को भटकने से रोकने का कार्य करती थी।
ईमानदारी एवं नैतिक मूल्यों की दृष्टि से राष्ट्र दुनिया में सर्वोच्च पायदान पर था। वृद्धाश्रम एवं विधवा आश्रम नहीं थे। नारियों का सम्मान था। बिना महिलाओं के कोई भी धार्मिक अनुष्ठान अधूरे माने जाते थे। कृषि एवं पशु पालन लोगों की आय एवं जीवन यापन के प्रमुख आधार हुआ करते थे। गांव के अधिकांश विवाद गांव में ही निपटा लिये जाते थे। किसी का भी सुख-दुख सभी का होता था। सामूहिकता का भाव था। व्रत-त्यौहार एवं अन्य कार्यक्रमों के माध्यम से लोगों की भावना एक दूसरे से जुड़ी रहती थी। कुल मिलाकर कहने का आशय यही है कि इस प्रकार की तमाम अच्छाइयां हमारे अतीत में थीं, जिनका अब हरास होता जा रहा है। हरास होने की ऐसी स्थिति से किसी भी कीमत पर निकलने की आवश्यकता है।
इन सब बातों के अतिरिक्त अतीत में भारत ने दुनिया को बहुत कुछ दिया भी है। योग, शल्य चिकित्सा (सर्जरी), शून्य, ज्योतिष शास्त्र, संस्कृत आदि जैसे तमाम तरह के ज्ञान दुनिया को भारत के द्वारा ही मिले हैं। इन सब बातों के अतिरिक्त दुनिया भारत को यदि विश्व गुरु मानती थी तो उसमें सबसे बड़ी भूमिका मानसिकता की थी। अतीत में लोगों की मानसिकता की यदि बात की जाये तो उस समय ऋण लेकर घी पीने की प्रवृत्ति को अच्छा नहीं माना जाता था।
वैसे भी हिंदुस्तान में एक पुरानी कहावत प्रचलित है कि ‘पाव उतना ही पसारिये- जितनी चादर होय’ यानी पांव उतना ही फैलाना चाहिए जितनी बड़ी चादर हो यानी काम उतना ही करना चाहिए जितनी औकात हो यानी ‘आमदनी अठन्नी-खर्चा रुपैया’ वाली प्रवृत्ति नहीं होनी चाहिए जबकि आज के समय में तमाम लोगों का मानना है कि पहले अपना खर्च बढ़ा लिया जाये फिर उसके बाद बढ़े हुए खर्च के हिसाब से पैसे कमाने की व्यवस्था की जाये जबकि इस प्रवृत्ति को अतीत में बेहद घातक माना जाता था।
भारत सहित पूरे विश्व में तमाम लोगों का जीवन ईएमआई पर चल रहा है यानी मकान-दुकान, गाड़ी एवं अन्य सामान किश्तों पर है। ऐसी स्थिति में लोगों के मन में यह भय बना रहता था कि यदि किसी कारण वश नौकरी चली गई या व्यापार में घाटा हो गया तो ईएमआई का क्या होगा जबकि इस प्रकार का भाव अतीत में लोगों के मन में नहीं था, क्योंकि उस समय जीवन यापन के जरिया जो भी थे, स्थायी थे। उदाहरण के तौर पर कोई पशु पालन करता था तो कोई सब्जी की खेती करता था तो कोई किसी अन्य प्रकार का। ये काम सदा चलने वाले थे। छोटे-छोटे कुटीर उद्योगों में बहुत व्यापक स्तर पर घाटा होने की संभावना नहीं होती थी।
सबसे बड़ी बात उस समय यह थी कि आज की तरह बैंकों से ऋण लेकर कोई व्यवसाय नहीं किया जाता था। उस समय जो कुछ भी किया जाता था, आपसी सहयोग से किया जाता था। आपसी सहयोग से किये गये कार्यों में लोग दिल से एक दूसरे का सहारा बनते थे। किसी का समय यदि बहुत बुुरा होता था तो उसे सर्वदृष्टि से उबारने के लिए तमाम लोग आगे आ जाते थे इसीलिए उस समय लोग-बाग एवं समाज शब्द बहुत प्रचलन में था किन्तु आज तो लोग वहीं खड़ा होने की कोशिश करते हैं जिसका बाजार हर दृष्टि से बना हुआ हो यानी जिनकी बिगड़ गई है उसकी देखभाल करने वाले लोग नहीं के बराबर हैं।
अतीत के भारत में एक खासियत यह भी थी कि लोग अतीत से शिक्षा लेकर वर्तमान में तो जीते ही थे, साथ ही साथ भविष्य की भी चिंता करते थे। कहने का आशय यह है कि लोग भविष्य के लिए भी दो पैसे जुटा कर रखते थे। हालांकि, हिंदुस्तान में आज भी दो पैसे बचाने की प्रवृत्ति बरकरार है, विशेषकर महिलाओं में। नोटबंदी के समय यह बात बहुत व्यापक स्तर पर देखने को मिली कि महिलाओं ने जो भी पैसे बचाकर रखते थे, सब बाहर आ गये और सभी को पता चल गया कि थोड़ी-थोड़ी बचत से कितनी राशि इकट्ठी की जा सकती है?
बात सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं थी बल्कि कोरोना काल में यह भी देखने को मिला कि जिसने भी दो पैसे बचाकर रखा था, उनका समय बहुत आराम से निकल गया किन्तु बचत के नाम पर जिसके पास कुछ भी नहीं था, उनका जीवन बहुत ही मुश्किल से बीता। अतीत के भारत में अच्छी बात यह थी कि लोग ऋण लेकर घी पीना पसंद नहीं करते थे क्योंकि लोगों को लगता था कि यदि किसी से कर्ज लेकर न भरा जाये तो उसे अगले जन्म में भरना पड़ता है यानी कोई भी व्यक्ति इस दुनिया से जाता था तो उसकी यही इच्छा होती थी कि वह कर्ज मुक्त होकर दुनिया से विदा ले किन्तु आज तो बैंकों से ऋण लेकर तमाम लोग भरने के बजाय अपने आपको दिवालिया घोषित कर देते हैं, जिससे बैंकों का कर्ज भरना ही न पड़े।
वर्तमान भारत की बात की जाये तो पाश्चात्य सभ्यता-संस्कृति से प्रभावित होकर लोग दिखावे की जिंदगी जीने लगे हैं और साथ ही एकल परिवार की तरफ बढ़ चले हैं जबकि संयुक्त परिवारों की सबसे बड़ी खासियत यह थी कि यदि किसी के ऊपर कोई संकट आता था तो उसे संभालने वाले परिवार के अन्य लोग मिल जाते थे और संयुक्त परिवारों में रहकर बच्चों को संस्कार भी मिल जाता था। बच्चों में सबसे अधिक संस्कार दादा-दादी, नाना-नानी, चाचा-चाची, ताऊ-ताई, मामा-मामी, मौसा-मौसी, बुआ एवं अन्य रिश्तों से अधिक मिला करते थे किन्तु एकल परिवारों में रहने के कारण न तो बच्चों को संस्कार मिल पा रहे हैं और न ही उनका मानसिक एवं शारीरिक रूप से समग्र विकास ही हो पा रहा है। ऐसे में राष्ट्र एवं समाज यह कैसे सोच सकता है कि सड़कों पर माताओं-बहनों को सदा इज्जत मिलती रहेगी। महिलाओं के प्रति सच्चा प्रेम तो अधिकांश मामलों में वासना में बदलता जा रहा है।
एकल परिवार में एक समस्या यह भी देखने को मिल रही है कि व्यक्ति जब किसी संकट में फंसता है तो उसे सहारा देने वाला कोई नहीं मिलता। वह अपने आपको अकेला पाता है और तमाम मामलों में वह डिप्रेशन (अवसाद) का शिकार हो जाता है। ऐसी स्थिति में बच्चे नौकर-चाकरों के भरोसे रहते हैं। नौकर कितनी आत्मीयता के साथ बच्चों का पालन-पोषण करेंगे, यह किसी से छिपा नहीं है।
ये सारी बातें लिखने का आशय मेरा यह है कि जब हमारे देश के अतीत में इतनी खूबियां थीं तो हम इस स्थिति में कैसे पहुंच गये? एक लंबी गुलामी के बाद हमारी परिस्थितियों एवं मानसिकता के स्तर पर बहुत व्यापक स्तर पर परिवर्तन हुआ है किन्तु हमारी मूल संस्कृति आज भी वही है जो पहले थी। आज भी यदि हम पाश्चात्य जगत की गुलामी छोड़कर अपने अतीत में जीने लगें तो हमें विश्व गुरु बनने से कोई नहीं रोक सकता है। और तो और अब तो आधुनिक संसाधनों एवं सम्पर्कों के कारण पूरा विश्व एक बाजार बन चुका है जहां पर हम अपने अतीत के कुटीर उद्योगों के लिए अच्छे अवसर खोज सकते हैं।
मेरा यह कहने का कतई आशय नहीं है कि पश्चिम या दुनिया ने हमें कुछ नहीं दिया किन्तु मेरा निश्चित रूप से यह मानना है कि दुनिया ने हमसे लिया ज्यादा एवं दिया कम है। पश्चिम ने तो हमें देने के नाम पर कुछ ऐसी चीजें दे दी है जिससे उबर पाना बहुत मुश्किल होता जा रहा है। दिखावा, ऋण लेकर घी पीने की प्रवृत्ति, फैशन, एकल परिवार सहित तमाम चीजें हमें पश्चिम से ही मिली हैं। निश्चित रूप से ये सारी बातें भारत को विश्व गुरु बनने के मार्ग में बाधक हैं।
उदाहरण के तौर पर देखा जाये तो कोरोना काल में जब पूरी दुनिया सदमे में आ गई तो भारत की प्राचीन जीवन शैली से ही जीने का रास्ता मिला, क्योंकि कोरोना काल मे ंविश्व स्वास्थ्य संगठन की तरफ से जो भी गाइड लाइन बनाई गयी थी, वे सभी अतीत में भारतीय जीवन पद्धति का हिस्सा थीं। कुल मिलाकर कहने का आशय यही है कि अतीत में भारत यदि विश्व गुरु रहा है तो भविष्य में भी हो सकता है, बशर्ते इसके लिए आवश्यकता इस बात की है कि हमें अपनी आदतों में कुछ बदलाव करना होगा। अपने अतीत के तरफ अग्रसर होना होगा और साथ ही धर्म परायण भी होना होगा। देर-सबेर हमें इस रास्ते पर आना ही होगा। इसी रास्ते पर चलकर ही भरत पूरी दुनिया का मार्गदर्शक या यूं कहें कि अगुवा बन सकता है।
– अरूण कुमार जैन (इंजीनियर)