भक्त केवल भौतिक कामनाओं से जुड़ा हुआ नहीं होना चाहिए। भक्त के अंदर कामना केवल भक्ति, ज्ञान और आत्म-शक्ति की होनी चाहिए। चूंकि, मैंने बार-बार कहा कि जिसके अंदर भक्ति आ गई, ज्ञान आ गया, आत्मशक्ति आ गई, तो उसको दुनिया की कोई शक्ति पराजित नहीं कर सकती। कोई भी प्रलोभन उसे बांध नहीं सकता। चूंकि, वह सत्य की शरण में पहुंच चुका होता है और भक्त का मूल लक्ष्य होता है कि वह अपने ईष्ट में समा जाये, ईष्ट का हो जाये या ईष्ट को अपने अंदर समाहित कर ले। तुलना कहीं होती नहीं। किससे तुलना करें? कहां से करें, प्रकृतिसत्ता जब कण-कण में मौजूद है? हम केवल उस प्रकृतिसत्ता के हैं और प्रकृतिसत्ता में मिल जायें, उसमें समाहित हो जायें।
यह शरीर जो आपका गुरु है, कह रहा है कि इस शरीर को वह प्रकृतिसत्ता कोढ़ियों और अपाहिजों का जीवन दे दे, अंग भंग कर दे, तब भी कभी उस प्रकृतिसत्ता पर कभी अंशमात्र भी समर्पण और भक्तिभाव में कोई परिवर्तन नहीं आयेगा। चूंकि, हम तो हर पल उस प्रकृतिसत्ता से जुडे़ हैं। प्रकृतिसत्ता ने हमें वह मूल तत्व दे रखा है जो अजर-अमर-अविनाशी है, जो न कभी मरता है न कभी जीता है और जिस पर न कभी किसी चीज का प्रभाव पड़ता है। उस तत्व की शरण में तो हम जायें। हमें दिव्यता का एहसास होने लगेगा, चेतना का एहसास होने लगेगा मगर आप एक कान से सुनेंगे और दूसरे कान से निकाल देंगे, नित्य अमल नहीं करेंगे।
चूंकि, जो कुछ तुम्हारे अंदर है, उस तक पहुंचना ही तो है और पहुंचने में केवल अपने आपको एकाग्र करो, बताये हुए नियमों का पालन करो। खुद का साधक बनने का प्रयास करो, भक्त बनने का प्रयास करो। केवल कामनाओं की ही कामना नहीं कि नित्य नई-नई कामनायें चलती रहें।
एक ऋषि, मुनि, योगी जो जब खुद के अंदर जाते हैं तो उस आनन्दमय कोश में पहुंचकर उसका आनंद ही तो लेते हैं, उस नशे का पान ही तो करते रहते हैं, जिस नशे का वर्णन किया गया है कि जिस नशे की तुलना में भौतिक जगत में दूसरा कोई नशा है ही नहीं, कोई तृप्ति है ही नहीं। उस नशे की एक लहर हमारे शरीर में आती है और लगता है कि दुनिया का सब वैभव हमारे लिये क्षीण है, सब कुछ बेकार है, एक पैर से ठोकर मार देने के बराबर है। समाज के अनेकों लोग चाहें और प्रयास करें, तो उस तत्व का एहसास कर सकते हैं, उस आनंद का एहसास कर सकते हैं।
चूंकि, हम यदि भक्त बनकर केवल उस प्रकृतिसत्ता के हो जायें, तो फिर प्रकृतिसत्ता की जिम्मेदारी है कि हमें किस चीज की आवश्यकता है? हमें कपड़े की जरूरत है, हमें पहनने की जरूरत है, हमें भोजन की जरूरत है, हमारी बीमारियां दूर करने की जरूरत है, हमें व्यापार में बढ़ने की जरूरत है, हमारी नौकरी लगने की जरूरत है या हमें रानीतिक क्षेत्र में बढ़ने की जरूरत है। वह स्वतः हमें सहारा देती चली जायेंगी और यदि आप भिखारियों की तरह बहुत कुछ मांगते रहें, बार-बार गिड़गिड़ाते रहें, मगर जिस रास्ते यह वह देना चाहती है, वह मार्ग ही हमारा अवरुद्ध है, वह सुषुम्ना नाड़ी ही हमारी अवरुद्ध पड़ी है, तो आयेगी कहां से? चूंकि, प्रकृतिसत्ता जो भी कार्य करेगी, आत्मचेतना के माध्यम से ही कार्य करेगी। क्षणिक लाभ आप प्राप्त कर सकते हैं, मगर स्थायी लाभ नहीं प्राप्त कर सकते।
स्थायी मुक्ति का मार्ग आपको मिलेगा कैसे? यदि इस जीवन में भौतिक सुख-सुविधाओं में ही लिप्त होकर रह गये। मेरा मूल चिन्तन उसी दिशा की ओर है कि उस प्रकृतिसत्ता का वर्णन बहुत कुछ किया गया। हर ऋषि, मुनि, देवी-देवताओं ने स्वीकार किया है कि परमसत्ता देवी शक्ति है, जगदम्बा शक्ति है जिन्होंने समाज में जन्म लिया, वे उन्हें जगदम्बा कहकर पुकारते रहे मगर वह जगदम्बा कौन है? उसका क्या वर्णन करना चाहिए? उसका क्या उल्लेख करना चाहिए? वह वर्णन नहीं हुआ। चूंकि, जहां तक हमारी क्षणिक कामनाओं की पूर्ति की बात है कि हमने राम का वर्णन बहुत किया, मगर राम के गुरुओं का वर्णन नहीं किया। राम के गुरुओं को समझना नहीं चाहा। उन ऋषियों की हमने शरण नहीं गही। कृष्ण के ज्ञान को हमने पकड़ा नहीं।
राम ने जो मर्यादा का पाठ हमको पढ़ाया, उस मर्यादा के पथ पर हम बढ़े नहीं। यदि इसी तरह की गलतियां हम वर्तमान में भी करते चले गये, तो हमारा पतन सुनिश्चित है मगर यदि हम सत्य-पथ पर बढ़ने लगे, अपने कर्तव्य को मात्र समझने लगे, यदि हमने मानवता के कर्तव्य को समझ लिया, मानवता के पथ पर हम बढ़ने लग गये, तो हमारा जीवन निश्चित रूप से धन्य हो जायेगा। हमें नवरात्रि के पर्वों का वास्तविक फल प्राप्त हो जायेगा।
क्या पड़ोसी को कह देंगे कि यह हमारा पिता है? तो आज ईष्ट कैसे बदल देते हो? तुमने अपने ईष्ट को कैसे बदलकर रख दिया? तुम इस सत्य को कैसे स्वीकार नहीं कर सके कि हमारी ईष्ट केवल वह प्रकृतिसत्ता माता भगवती आदिशक्ति जगजननी जगदम्बा हैं? बाकी देव शक्तियां जितनी भी हैं, देवी शक्तियां जितनी भी हैं, वे सिर्फ हमारी सहायक हैं, जिस तरह समाज में हमारा कोई पड़ोसी रहता है, कोई चाचा रहता है, कोई भाई रहता है, कोई ताऊ रहता है या अन्य कोई रहता है। जिस तरह हम अपने पिता की जगह किसी दूसरे को खड़ा नहीं कर सकते कि हमारी माता एक होगी, हमारा पिता एक होगा, उसी तरह हमारा सत्य कि वह प्रकृतिसत्ता सिर्फ एक होगी, हमारी आत्मा की जननी एक होगी, अनेक नहीं हो सकती।
देवी आराधना हर काल में रही है और होती आ रही है। अतीत में झांककर देखो। जो कबीले के लोग रहते थे, अन्य लोग रहते थे, वहां देवी-देवताओं के अब भी शिलालेख मिलते हैं। उन मंदिरों के अवशेष मिलते हैं। आज भी समाज में 108 शक्तिपीठों का वर्णन मिलता है, अनेकों शक्तिपीठों का वर्णन मिलता है, मगर विस्तार नहीं हो सका है।
चूंकि, अधिकांश समाज या तो भोले का भक्त बन जाता है या राम, कृष्ण और राधा बनकर नाचने लगता है। इन्हीं में लिप्त होकर रह जाता है, राधे-राधे बस। दिन में राधे-राधे और रात में क्या चलता है, यह समाज जानता है तो कहीं न कहीं हमें और आपको सोचने की जरूरत है। हमें उस प्रकृतिसत्ता को ईष्ट के रूप में स्वीकार करना चाहिए, जिस तरह हम अपने जन्म देने वाले पिता की तुलना में किसी को खड़ा नहीं कर सकते।
– शक्तिपुत्र महाराज