योगवशिष्ठ में एक बहुत महत्वपूर्ण आख्यायिका आती है। यह उपाख्यान जीवन के उद्देश्य रहस्यों और मृत्यु के उपरान्त जीवन परम्परा पर प्रकाश डालता है इसलिये विद्वद्जन इसे योगवशिष्ठ की सर्वाधिक उपयोगी आख्यायिका मानते हैं। वर्णन इस प्रकार है –
किसी समय आर्यावर्त में “पद्म” नाम का एक राजा राज्य करता था । “लीला” नामक उसकी धर्मशील धर्मपत्नी उसे बहुत प्यार करती थी । जब कभी वह मृत्यु की बात सोचती वियोग की कल्पना से घबरा उठती । कोई उपाय न देखकर उसने विद्या की अधिष्ठात्री – भगवती सरस्वती की उपासना की और यह वर प्राप्त कर लिया कि यदि उसके पति की मृत्यु पहले हो जाय तो पति की अंतःचेतना राजमहल से बाहर न जाये। भगवती सरस्वती ने यह भी आशीर्वाद दिया कि तुम जब चाहोगी अपने पति से भेट भी कर सकोगी। कुछ दिन बीते राजा पद्म का देहान्त हो गया। लीला ने पति का शव सुरक्षित रखवा कर भगवती सरस्वती का ध्यान किया । सरस्वती ने उपस्थित होकर कहा -भद्रे ! दुःख न करो तुम्हारे पति इस समय यहीं है पर वे दूसरी सृष्टि में है उनसे भेट करने के लिए तुम्हें उसी सृष्टि वाले शरीर (मानसिक – कल्पना ) में प्रवेश करना चाहिए।
लीला ने अपने मन को एकाग्र किया, अपने पति की याद की और उस लोक में प्रवेश किया जिसमें पद्म की अंतर्चेतना विद्यमान थी । लीला नक जाकर जाकर कुछ क्षण जो कुछ दृश्य देखा उससे बड़ी आश्चर्यचकित हुई । उस समय सम्राट पद्म इस लोक के 16 वर्ष के महाराज थे और एक विस्तृत क्षेत्र में शासन कर रहे थे । लीला को अपने ही कमरे में इतना बड़ा साम्राज्य और एक ही क्षण के भीतर 16 वर्ष व्यतीत हो गये देखकर बड़ा विस्मय हुआ। भगवती सरस्वती ने समझाया भद्रे ! –
सर्गे सर्गे पृथग्रुपं सर्गान्तराण्यपि। तेष्पन्सन्तः स्थसर्गोधाः कदलीदल पीठवत्। योगवशिष्ठ – ४।१८।१६। ७७
आकाशे परमाण्वन्तर्द्र व्यादेरगुकेअपि च। जीवाणुर्यत्र तत्रेदं जगद्वेत्ति निजं वपुः॥ योगवशिष्ठ ३।४४ । ३४ । ३५
अर्थात्- “”हे लीला! जिस प्रकार केले के तने के अन्दर एक के बाद एक परतें निकलती चली आती है उसी प्रकार प्रत्येक सृष्टि क्रम विद्यमान है इस प्रकार एक के अन्दर अनेक सृष्टियों का क्रम चलता है। संसार में व्याप्त चेतना के प्रत्येक परमाणु में जिस प्रकार स्वप्न लोक विद्यमान है उसी प्रकार जगत में अनंत द्रव्य के अनंत परमाणुओं के भीतर अनेक प्रकार के जीव और उनके जगत विद्यमान है।”
अपने कथन की पुष्टि में एक जगत दिखाने के बाद कहा- देवी तुम्हारे पति की मृत्यु ७० वर्ष की आयु में हुई है ऐसा तुम मानती हो इससे पहले तुम्हारे पति एक ब्राह्मण थे और वत उनकी पत्नी । ब्राह्मण की कुटिया में उसका मरा हुआ शव अभी भी विद्यमान है यह कहकर भगवती सरस्वती लीला को और भी सूक्ष्म जगत में ले गई लीला ने वहाँ अपने पति का मृत शरीर देखा -उनकी उस जीवन की स्मृतियाँ भी याद हो आई और उससे भी बड़ा आश्चर्य यह हुआ के जिसे वह 70 वर्षों की आयु समझे हुये थी वह और इतने जीवन काल में घटित सारी घटना उस कल्प के कुल 7 दिनों के बराबर थी।
लीला ने देखा- उस समय मेरा नाम अरुन्धती था- एक दिन एक राजा की सवारी निकली उसे देखते ही मुझे राजसी भोग भोगने की इच्छा हुई। उस वासना के फलस्वरूप ही उसने लीला का शरीर प्राप्त किया और राजा पद्म को प्राप्त हुई।इसी समय भगवती सरस्वती की प्रेरणा से राजा पद्म जो अन्य कल्प में था उसे फिर से पद्म के रूप में राज्य-भोग की वासना जाग उठी, लीला को उसी समय फिर पूर्ववर्ती भोग की वासना ने प्रेरित किया फलस्वरूप वह भी अपने व्यक्त शरीर में आ गई और राजा पद्म भी अपने शव में प्रविष्ट होकर जी उठे फिर कुछ दिन तक उन्होंने राज्य-भोग भोगे और अन्त में मृत्यु को प्राप्त हुए।
इस कथानक में महर्षि वशिष्ठ ने मन की वासना के अनुसार जीवन की अनवरत यात्रा, मनुष्येत्तर योनियों में भ्रमण समय आकर ब्रह्माण्ड (टाइम एण्ड स्पेश) में चेतना के अभ्युदय और अस्तित्व तथा प्राण विद्या के गूढ रहस्यों पर बड़ा ही रोचक और बोधगम्य प्रकाश डाला है। पढ़ने सुनने में कथानक परियों की सी कथा या जादुई चिराग जैसा लगता है किन्तु भारतीय दर्शन की उस सूक्ष्मतम खोज आज विज्ञान का हर क्षेत्र कर रहा है। प्रस्तुत पंक्तियों में दिये गये वैज्ञानिक उद्धरण किन्तु पुष्टि करेंगे, विस्मय भी होगा कि भारतीय योगियों ने इस सूक्ष्मतम विज्ञान को बिना किसी यन्त्र की सहायता के कैसे जाना।
नारायण! देखने में लगता है कि आप भारतवर्ष के निवासी है, पर उसी समय आप पृथ्वी के भी निवासी है, उसी समय सौर मण्डल के भी। सूर्य एक सेकेंड में १००० ट्रिलियन अर्थात् १००० मिलियन (1००००००० किलोवाट) किलोवाट ऊर्जा पृथ्वी में फेंक सकते हैं। सारी पृथ्वी की एक अरब आबादी तथा चींटी, मक्खी, कौवे, गिद्ध, भेड़, बकरी, गाय, हाथी, शेर, पेड़-पौधे, बादल, समुद्र सभी इस शक्ति से ही गतिशील है जिसमें यह शक्ति जितनी अधिक है (प्राणतत्व की अधिकता) वह उतना ही शक्तिशाली और वैभव का स्वामी है। कीड़े मकोड़े उसके एक कण से ही जीवित है तो वृक्ष-वनस्पतियां उसका सबसे अधिक भाग उपयोग में लाती है। मनुष्य इन सबसे भाग्यशाली है क्योंकि वह इस शक्ति के सुरक्षित और संचित कोष को भी प्राणायाम और योग-साधनाओं द्वारा मन चाही मात्रा में प्राप्त भी कर सकता है।
हमारे लिये वर्ष ३६५ – १/४ दिन का होता है पर सूर्य के लिये वह अपनी एक हजार किरणों के घूमने भर का समय, सूर्य का प्रकाश हर क्षण पृथ्वी के आधे भाग पर पड़ता है अर्थात् सूर्य का एक सेकेंड पृथ्वी के निवासी के लिये १२ घण्टे। कीट पतंगों के लिये तो उसे कल्प ही कहना चाहिये। सूर्य अरबों वर्ष से जी रहा है और करोड़ों वर्ष तक जियेगा पर इतनी अवधि में तो मनुष्यों की लाखों पीढ़ियां मर खप चुकी यदि सृष्टि के प्रारम्भ से लेकर अब तक जितने लोग जन्म ले चुके उन सबके नाम लिखना सम्भव हो तो उसके लिये पृथ्वी के भार से कम कागज की आवश्यकता न पड़ेगी। सूर्य का एक जन्म इतना बड़ा है कि मनुष्य उसकी तुलना में अरबवें हिस्से की भी जिन्दगी नहीं ले पाया।
ठीक यही बात मनुष्य की तुलना में कीट-पतंग की है वायु मण्डल में ऐसे जीव है जो इतने सूक्ष्म है कि उनको इलेक्ट्रानिक सूक्ष्मदर्शी से ही देखना सम्भव है उनमें एक ही कोश (सेल) होता है। उसमें केन्द्रक सूर्य का ही एक कण होता है अन्य तत्वों में कोई भी खनिज, लवण या प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट मिलेंगे। अर्थात् जीव-चेतना और प्रकृति का समन्वय ही दृश्य जगत है। मनुष्य में गर्मी अधिक है, १०० वर्ष का जीवन उसे प्राप्त है पर कीड़े-मकोड़े शक्ति के एक अणु और शरीर के एक कोश से ही मनुष्य जैसी आयु भोग लेते हैं। मनुष्य जितने दिन में एक आयु भोगता है उतने में कीट-पतंगों के कई कल्प हो जाते हैं।
प्रसिद्ध रूसी वैज्ञानिक एन.एस. श्चेरविनोस्की एक कृषि विशेषज्ञ थे उन्होंने ५० वर्ष तक कीट-पतंगों के जीवन का सूक्ष्म अध्ययन किया और उससे कृषि नाशक कीटाणुओं के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण खोजे की। उन्हीं खोजो में भारतीय दर्शन को प्रमाणित करने वाले तथ्य भी प्रकाश में आये। वे लिखते है-टिड्डियों की सामूहिक वंशवृद्धि की अवधि सूर्य के एक चक्र अर्थात् ११ वर्ष से है अर्थात् ११ वर्ष में उनकी प्रलय और नई सृष्टि का एक क्रम पूरा हो जाता है वह भी ११ वर्षीय चक्र से सम्बन्धित है पर कुछ कीड़ों की सामूहिक वृद्धि २२ वर्ष, कुछ की ३३ वर्ष है इस आधार पर उन्होंने लिखा है कि पृथ्वी का सारा जीवन ही सूर्य पर आधारित है। सिद्ध होता है कि नन्हे- नन्हे जीवाणु (बैक्टीरिया) तथा विषाणु (वायरस) सभी का जीवन कोश (नाभिक या न्यूक्लियस) सूर्य का ही प्रकाश स्फुल्लिंग और चेतन परमाणु है जबकि उनके कोशिका सार (साइटोप्लाज्म )में अन्य पार्थिव तत्व। जीवन चेतना सर्वत्र एक सी है, परिभ्रमण केवल मन की वासना के अनुसार ही चलता रहता है।
नाभिक में भी नाभिक (न्यूक्लियस) होते हैं जिसमें यह भी सिद्ध होता है कि जिस प्रकार कोशिका सार (साइटोप्लाज्म ) का सूर्य नाभिक होता नाभिक अग्नि तत्व होता है, अग्नि या प्राण में ही मन होता है उसी प्रकार मन की चेतना में ही विश्व चेतना या ईश्वरीय चेतना समासीन होनी चाहिये। प्रत्यक्ष में सूर्य भी स्व-प्रकाशित नहीं वह आकाश गंगा और निहारिकाओं के माध्यम से किसी सुदूर केन्द्रक से ही जीवन प्राप्त कर रहा है अर्थात् सृष्टि के समस्त मूल में एक सर्वोपरि शक्ति है उसे ही परमात्मा, माना गया है वही चेतना पदार्थ के संयोग से जीवों के रूप में व्यक्त होती है श्री शंकराचार्य ने तत्वबोध में इसी तथ्य की पुष्टि करते हुये लिखा है-
नित्य शुद्ध विमुक्तैक कखण्डानन्दमद्वयम्। सत्यु ज्ञानमनन्तं यत्परं ब्रह्माहमेवतत्॥
एवं निरन्तराभ्यस्ता ब्रह्मै वास्मीति वासना। हरत्यविद्या विक्षेपान रोगानिव रसायनम्॥ तत्वबोध ६६-६७
अर्थात्-जो तीनों कालों में रहने वाला, कभी नाश नहीं होता जिसका, जो मल रहित और संसार से विरक्त, एक और अखण्ड अद्वितीय आनन्द रूप है वही ब्रह्म है किन्तु वही ईश्वरीय चेतना “मैं हूँ” के अहंकार भाव के निरन्तर अभ्यास से उत्पन्न हुई वासना रोगों को रसायन के समान अविद्या से उत्पन्न होने वाले चित्त विक्षेप के कारण वास्तविक ज्ञान के कारण वास्तविक ज्ञान को काम करती हुई वासनाओं की पूर्ति में कभी यह कभी वह शरीर धारण करती भ्रमण करने लगती है ।
हमें मालूम है कि सूर्य ही नहीं चन्द्रमा, बृहस्पति शुक्र, शनि तथा सभी तारागण तक विकरण करते हैं। किसी भी एक बिन्दु को ले लें और कल्पना करे कि वहाँ सभी विकरण आड़ी टेढ़ी दिशा में गमन कर रहे है तो पता चलेगा कि एक ही स्थान पर सूर्य प्रकाश का कण चन्द्रमा के कण को, चंद्रमा का बृहस्पति के कण को बृहस्पति का शनि के कण को पार कर रहा होगा-फिर यह क्रम निरन्तर चल रहा होगा अर्थात् सिनेमा के पर्दे की तरह की गति और दृश्य उस समय हर ग्रह-नक्षत्र के अंतर्वर्ती क्षेत्र का विद्यमान होगा।जिस प्रकार सूर्य के रासायनिक आकाश मंडल में हाइड्रोजन, हीलियम, कार्बन, नाइट्रोजन, आक्सीजन, सोडियम, सिलिकन, गन्धक, टाइटेनियम, मैंगनीज, कोबाल्ट, निकेल जिंक आदि २४ रासायनिक तत्व विद्यमान है उसी प्रकार हर ग्रह के आकाश क्षेत्र में भिन्न जाति के आकाश मंडल है यह तत्व ही ब्रह्माण्ड का निर्माण करते हैं विकिरण उनका प्रभाव क्षेत्र लिये होगे अर्थात् वातावरण के हर बिन्दु पर विश्व का हर दृश्य विद्यमान है मूल चेतना उनमें से अपनी इच्छा (इच्छा आकाश स्वरूप है) और वासना के क्षेत्र में विद्यमान रहती होगी तो कुछ आश्चर्य नहीं यदि वह पृथ्वी के ही किसी आकाश में रहकर भी किसी अन्य ग्रह दृश्यों और रासायनिक अनुभूतियों का रस ले रही हो। भले ही जैसा कि योगवशिष्ठ ने उनके काल और ब्रह्माण्ड की कल्पना की है उनका संसार कैसा भी क्यों न हो पर उस अणु में भी जीव-चेतना के लिये विराट् ब्रह्माण्ड दिखता होगा।
वायुमंडल ही नहीं जीवन से रिक्त कोई स्थान नहीं। प्रसिद्ध डच व्यापारी एन्टान वान लीवेनहोक को जब भी अवकाश मिलता वह शीशों के कोने रगड़-रगड़ कर लेन्स बनाया करता उसने एकबार एक ऐसा लेन्स बनाया जो वस्तु को २७० गुना बड़ा करके दिखा सकता था। उसने पहली बार गन्दे पानी और सड़े अन्न में हजारों जीवों की सृष्टि देखी। कौतूहलवश एकबार उसने की थी कि आया शुद्ध जल एकत्र किया उसकी मंशा यह जानने की थी कि आया शुद्ध जल में भी कीटाणु होते हैं क्या वह यह देखकर आश्चर्य चकित रह गया कि उसमें भी जीवाणु उपस्थित थे उसने अपनी पुत्री मारिया को बुलाकर एक विलक्षण संसार दिखाया-यह जीवाणु जल में तैर ही नहीं रहे थे तरह-तरह की क्रीडा करते हुये यह दिखा रहे थे कि उनमें यह इच्छायें, आकांक्षाएं मनुष्य के समान ही है भले ही मनुष्य जटिल कोश प्रणाली वाला जीव क्यों न हो पर चेतना के गुणों की दृष्टि से मनुष्य और उन छोटे जीवाणुओं में कोई अन्तर नहीं था। यह जीवाणु हवा से पानी में आये थे।
१८३८ में पौधे की संरचना का परीक्षण करते समय वैज्ञानिक “माथियास शेलिडेन” ने देखा कि पौधे भी कोशिकाओं से बने है और यह कोशिकाएं शक्ति भी बड़े जीव के भीतर एक जीवित जीव है इस प्रकार हर योनिधारी का शरीर ब्रह्माण्ड है और उनमें रह रहे अनेकों चेतन कोश जीव जो अपनी वासना के अनुसार काम करते हैं। हर कोश में विराट् ब्रह्माण्ड की बात विज्ञान भी स्वीकार करता है।
यह इलेक्ट्रानिक प्रकाश की बौछार से ही देखे जा सकते हैं इलेक्ट्रानिक विद्युदाणु होते हैं। मन भी एक प्रकार का सचेतन विद्युत परमाणु है-योग ग्रंथों से उसे “अग्नि स्फुल्लिंग कहा जाता है उसे ध्यान की एकाग्रता के समय अत्यन्त सूक्ष्म किन्तु दिव्य प्रकाश कण के रूप में त्रिकुटी-दोनों भौहों के बीच आज्ञा चक्र नामक स्थान में देखा जाता है यही कीट-पतंगों में भी मन और मन की विशेषताओं के होने का प्रमाण है जो किसी भी विज्ञान से कम महत्व का नहीं।
कोशिका के अन्दर के दोनों भाग (१) केन्द्रक (न्यूक्लियस) और (२) कोशिकासार अर्थात् कोश को जीवित रखने वाले समस्त (साइटोप्लाज्म) भिन्न तत्व है एक दर्शक है , चेतन है और चेतना के सभी गुणों को धारण करके रखता है-वह नाभिक हुआ। कोशिकासार का समस्त रासायनिक पदार्थ-जैसे कार्बोहाइड्रेट प्रोटीन, बसा, लवण (सोडियम क्लोराइड आदि), खनिज (लोहा आदि), कार्बन तत्व (आर्सनिक कम्पाउण्ड) एक विशिष्ट झिल्ली से घिरा हुआ होता है। इस झिल्ली में अत्यन्त बारीक छेद होते हैं जिसमें से होकर आक्सीजन अन्दर जाता है और कोशिका के जीवन को सुरक्षित रखता तथा केशिका की रासायनिक क्रियाओं को जारी रखता है। कोशिकासार के परमाणु इन छेदों से बड़े होते हैं इसी कारण वे झिल्ली के भीतर रह पाते हैं अन्यथा सभी रासायनिक पदार्थ बह जाते और कोशिका मर कर नष्ट हो जाती। कोशिका स्वयं अत्यन्त सूक्ष्म इकाई है। फिर उसके संघटक रासायनिक तत्वों के अणु तो और भी सूक्ष्म हुये। वे १००००० गुना बड़े करके ही इलेक्ट्रानिक सूक्ष्मदर्शी द्वारा देखे जा सकते हैं फिर इन छेदों की लघुता की तो कल्पना ही नहीं हो सकती। सूक्ष्मदर्शी से देखने पर ही कोशिका के वह दृश्य दिखाई देते हैं जिनकी योगवासिष्ठकार ने व्याख्या दी है पर कोशिका में प्रवाहित उन्मुक्त चेतना अन्दर के मन और उसकी चेष्टाओं का विज्ञान – आज की फ्रायड और एलडर की साइकोलॉजी नहीं भारतीय दर्शन की प्रतिस्थापनाएं या भारतीय साधनापरक मनोविज्ञान ही दे सकता है।
माना कि मनुष्य को ईश्वरीय अनुदान अधिक मिले है किन्तु यदि केवल वासना और इच्छा पूर्ति ही उसका लक्ष्य है तो वह तो इतर मानव योनियाँ भी मनुष्य की तरह ही भोगती है उसमें कोई विशेषता नहीं। मनुष्य ने सूक्ष्म बुद्धि और विवेक की क्षमता प्राप्त की है तो उसे अंतर्जगत के सत्यों को समझना और आत्म-कल्याण का मार्ग प्रशस्त करना ही उसकी बुद्धिमानी हो सकती है अन्यथा मनुष्य जीवन भी एक प्रकार का उदार-शिश्न परायण कीट-जीवन में पड़ा इन मानवेत्तर सृष्टियों में चक्कर काटता रहता है जहाँ उसको इच्छा पूर्ति के साधन मिल सकते हैं आत्मोद्धार के नहीं।
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