आज पूरी दुनिया में लोकतंत्र की जड़ों को और अधिक मजबूत करने के लिए तमाम तरह के प्रयास किये जा रहे हैं। लोकतांत्रिक देशों की बात की जाये तो भारत को सबसे बड़े लोकतंत्र के प्रहरी के रूप में पूरी दुनिया में माना जाता है। ऐसी स्थिति में आज एक प्रश्न यह उठता है कि लोकतंत्र को लेकर जो मूल भावना थी, क्या हमारा लोकतंत्र उस दिशा में अग्रसर हो रहा है? यदि उस दिशा में हमारा लोकतंत्र अग्रसर हुआ है तो उसमें कितनी सफलता मिली है? वास्तव में लोकतंत्र को मोटे तौर पर परिभाषित किया जाये तो कहा जा सकता है कि जनता के द्वारा, जनता के लिए जनता की जो सरकार चुनी जाती है, उसे लोकतंत्र कहा जाता है किन्तु आज एक विचारणीय प्रश्न यह है कि हमारे देश में लोकतंत्र सफलता एवं समग्रता की दृष्टि से कहां खड़ा है? साथ ही यह भी विचार करने का विषय है कि हमारा लोकतंत्र कल कैसा था, आज कैसा है और भविष्य में कैसा होने की संभावना है?
वैसे तो लोकतंत्र के बारे में कहा जाता है कि इसमें सभी को समान अवसर मिलता है किन्तु व्यावहारिक धरातल पर क्या स्थिति है, इस पर भी व्यापक रूप से मंथन की आवश्यकता है। लोकतंत्र में आम जनता के प्रति ईमानदारी, निष्ठा, कर्तव्य परायणता एवं वफादारी ही सबसे बड़ा आधार है एवं सर्वप्रथम साथ-साथ राष्ट्रहित की भावना को जन-जन में बीजारोपण करने की क्षमता हो। यदि इन बातों से भटककर लोकतंत्र कहीं अन्य दिशा में जाता है तो यह निहायत ही सोच-विचार का विषय है? जातिवाद, क्षेत्रवाद, प्रांतवाद, भाषावाद, परिवारवाद, संप्रदायवाद, आतंकवाद, नक्सलवाद आदि मुद्दे राजनीति की पहचान बन चुके हैं।
अभी ताजा घटनाक्रम में हिमाचल प्रदेश, गुजरात एवं दिल्ली में टिकट वितरण को लेकर अमूमन सभी दलों पर व्यापक स्तर पर टिकट बेचने एवं धांधली के आरोप लगे हैं, उससे लोकतंत्र नैतिक रूप से व्यापक स्तर पर धराशायी हुआ है। हिंदुस्तान के दलों की बात जब आम जनता में की जाती है तो थोड़े-बहुत अंतर के साथ सभी दलों को एक समान मानती है। राजनैतिक दल जब टिकट बांटते हैं तो सबसे अधिक इस बात का विचार करते हैं कि उस क्षेत्र में किस धर्म, जाति, प्रांत एवं भाषा के लोग अधिक रहते हैं। इस पैमाने पर खरा उतरने वाला प्रत्याशी भले ही आपराधिक प्रवृत्ति का हो किंतु क्षेत्र में दबदबा रखने वाला हो। और तो और, मतदाताओं को भी इस स्थिति में ला दिया गया है कि वे भी जातिवाद, भाषावाद, संप्रदायवाद, डर-भय, क्षेत्रवाद या अन्य आधार पर मतदान करने लगे हैं। अपने देश में अतीत में लोकतंत्र के श्रेष्ठ उदाहरण भरे पड़े हैं किन्तु आज आवश्यकता इस बात की है कि उन श्रेष्ठ परंपराओं एवं उदाहरणों पर अमल किया जाये।
जनसंघ के पूर्व अध्यक्ष एवं भाजपा के वैचारिक प्रणेता पं. दीनदयाल उपाध्याय जी उत्तर प्रदेश के जौनपुर से चुनाव लड़ रहे थे। चुनाव के दौरान पंडित जी से कुछ लोगों ने कहा कि यदि चुनाव में थोड़ा सा जातिवाद कर लिया जाये तो चुनाव आसानी से जीता जा सकता है किन्तु पं. दीनदयाल जी ने कहा कि चुनाव में विजयश्री मिले या न किन्तु उन्हें चुनावों में रंच मात्र भी जातिवाद की बात करना मंजूर नहीं है। ‘येन-केन-प्रकारेण’ सत्ता प्राप्ति का उद्देश्य उनका रंच मात्र भी नहीं था। हालांकि, जौनपुर में पंडित दीनदयाल जी चुनाव में पराजित हुए किन्तु उन्होंने जातिवाद करना बिल्कुल भी मुनासिब नहीं समझा।
लोकतंत्र की मर्यादा की दृष्टि से देखा जाये तो भारत रत्न पूर्व प्रधानमंत्री बैकुंठवासी श्रद्धेय अटल बिहारी वाजपेयी जी ने 1996 में अपनी सरकार कुर्बान कर दी किन्तु सांसदों की खरीद-फरोख्त कर उन्होंने अपनी सरकार बचाना उचित नहीं समझा। पार्लियामेंट में बहस के दौरान अटल जी ने कहा कि अपनी सरकार को बचाने के लिए यदि किसी अनैतिक रास्ते का सहारा लेना पड़े तो ऐसी राजनीति को मैं चिमटे से भी छूना पसंद नहीं करूंगा। अटल जी ने उस समय भी एक आदर्श राजनीति का उदाहरण पेश किया जब वे प्रधानमंत्री नरसिंहा राव के आग्रह पर विपक्ष का नेता होते हुए भी भारत का पक्ष रखने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ गये थे। जिस समय अटल जी विपक्ष का नेता रहते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ में गये थे, उस समय पूरे देश में यह बात चर्चा का विषय थी कि यही है हमारे लोकतंत्र की खूबसूरती।
जिस समय पाकिस्तान का विभाजन होकर बांग्लादेश का निर्माण हुआ तो उस विभाजन के पहले विपक्ष के नेताओं ने अपनी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया था। पाकिस्तान विभाजन के पहले विपक्ष के कई नेता भारत का पक्ष रखने के लिए दुनिया के अनेक देशों में गये थे। और तो और, ऐसा कहा जाता है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने तो तत्कालीन संघ प्रमुख से भी श्रद्धेय श्री अटल बिहारी वाजपेयी एवं मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री स्वः बाबूलाल गौर जी के माध्यम से विभाजन को कार्यरूप देने की स्वीकृति प्राप्त की थी।
लोकतंत्र की रक्षा, मजबूती एवं मर्यादा की दृष्टि से पूर्व प्रधानमंत्री स्व. लाल बहादुर शास्त्री का नाम भी बहुत आदर के साथ लिया जाता है। उन्होंने अपने सार्वजनिक जीवन में कदम-कदम पर मर्यादा का पालन किया था। प्रधानमंत्री रहते हुए उन्होंने अपने घर-परिवार के लोगों के लिए कभी किसी भी रूप में सरकारी संसाधनों का उपयोग नहीं किया। श्री शास्त्री जी के बारे में कहा जाता है कि एक बार सरकारी गाड़ी का प्रयोग बच्चों ने किसी व्यक्तिगत कार्य के लिए कर लिया तो उन्होंने अपने वेतन से उतना पैसा कटवा दिया। रेलमंत्री रहते हुए एक रेल दुर्घटना होने पर श्री लाल बहादुर शास्त्री ने रेल मंत्री के पद से नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए त्याग पत्र दे दिया किन्तु क्या आज की राजनीति में ऐसे उदाहरण देखने को मिलेंगे?
मुझे यह बात लिखने में जरा भी संकोच नहीं है कि राजनीति के बारे में आम जनता के बीच एक अवधारणा बनती जा रही है कि राजनीति अब सेवा के बजाय मेवा यानी अर्थ कमाने का जरिया बनती जा रही है। राजनीतिक चर्चा-परिचर्चा के बीच दिल्ली नगर निगम चुनावों में इस बात की चर्चा बहुत जोर-शोर से हो रही है कि जिन पार्षदों को वेतन के नाम पर कुछ भी नहीं मिलता है, वे इतना मालामाल कैसे हो जाते हैं? प्रत्येक बैठक के लिए भत्ते के रूप में मात्र तीन सौ रुपये मिलता है।
आम जनता में यदि इस प्रकार की चर्चा हो रही है तो उसका निराकरण करने की जिम्मेदारी राजनीतिज्ञों की ही तो है। स्वस्थ लोकतंत्र के लिए यह बहुत जरूरी है कि आम जनता के मन में पनप रही शंकाओं को दूर करना ही होगा अन्यथा भविष्य में हालात और भी खतरनाक हो सकते हैं। आज की लोकतांत्रिक राजनीति में देखने को मिल रहा है कि वर्चस्व और आस्मिता की लड़ाई में राजनीतिज्ञ अपनी सीमाएं लांघते जा रहे हैं, जबकि किसी भी रूप में इससे बचने की आवश्यकता है।
अपने देश में अभी तीन राज्यों में चुनाव प्रचार चल रहे हैं। इन राज्यों के चुनाव प्रचार में देखने को मिल रहा है कि मुफ्तखोरी की राजनीति खूब परवान चढ़ रही है किन्तु यह बताने का प्रयास नहीं हो रहा है कि मुफ्त में जो कुछ भी दिया जायेगा उसकी व्यवस्था कैसे होगी?
श्री अटल बिहारी वाजपेयी के शब्दों में भुखमरी ईश्वरीय अभिशाप नहीं बल्कि मानवीय व्यवस्था की विफलता का परिणाम है। आम जनता में सामान्यतः इस बात की चर्चा होती रहती है कि मुफ्तखोरी की व्यवस्था राष्ट्रहित में नहीं है, वह देश की युवा शक्ति को पंगु बना देती है।
व्यावहारिक नजरिये से यदि देखा जाये तो देश के अधिकांश घरों में यदि महीने का खर्च हजार-दो हजार बढ़ जाये तो परिवार वालों को यह सोचना पड़ता है कि इस बढ़े हुए खर्च की भरपाई कैसे की जाये? कमोबेश सरकारें भी ऐसे ही चलती हैं? मुफ्त में कुछ देने के एवज में यदि खर्च बढ़ेगा तो उसकी भरपाई कैसे होगी? इसे एक बहुत बड़ी समस्या के रूप में देखा जाना चाहिए। सिर्फ चुनावी वादे करके जनता में लोकप्रिय होना तो आसान काम है किन्तु उसके बाद क्या होगा? यही सबसे विचारणीय प्रश्न है।
देश में लोगों को स्थायी रूप से रोजगार मिले, लोगों को क्षणिक लाभ के बजाय स्थायी रूप से लाभ मिले, इस दृष्टि से देखा जाये तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बहुत बेहतरीन कार्य कर रहे हैं। प्रधानमंत्री मोदी जी चाहते हैं कि लोगों को स्थायी रूप से रोजगार मिले। क्षणिक एवं आंशिक रूप से सरकारी मदद के माध्यम से किसी को स्थायी रूप से आत्मनिर्भर नहीं बनाया जा सकता है इसीलिए प्रधानमंत्री जी देशवासियों को स्थायी रूप से आत्मनिर्भर बनाने के लिए तमाम तरह की जन कल्याणकारी योजनाएं लेकर आये हैं।
लोकतंत्र में नैतिकता एवं मर्यादा की बात की जाये तो इस दृष्टि से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ग्राफ पूरी दुनिया में बहुत ऊंचा है। प्रधानमंत्री अपने खान-पान का खर्च प्रधानमंत्री को मिलने वाले वेतन से चुकाते हैं। आज की राजनीति में यदि इस प्रकार का आदर्श उदाहरण देखने को मिल रहा है तो यह अपने आप में बहुत बड़ी उपलब्धि है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एवं भारतीय जनता पार्टी में नैतिक रूप से मजबूत नेताओं की एक लंबी श्रृंखला है जिसकी चर्चा पूरे देश में होती है।
आज वर्तमान राजनीति की बात की जाये तो कुछ ऐसी कमियां देखने को मिल रही हैं जिनका निराकरण यदि समय रहते नहीं किया गया तो भविष्य में लोकतंत्र का चेहरा बहुत ही बदरंग देखने को मिलेगा, राजनीति का अपराधीकरण, राजनीति में अर्थ का बढ़ता प्रभाव, क्षेत्रवाद, जातिवाद, प्रांतवाद, भाषावाद, अलगाववाद, आतंकवाद, नक्सलवाद, संप्रदायवाद जैसे मुद्दों को चुनावों के समय लाभ के लिए उभारा जाता है किन्तु भविष्य में उसके दुष्प्रभाव देखने को निश्चित रूप से मिलेंगे ही।
राजनीति में वर्चस्व और अस्मिता की होड़, अपने उद्देश्यों एवं कर्तव्यों से भटकते राजनीतिक दल, भारतीय राजनीति में बढ़ता क्षेत्रीय दलों का दबदबा, अवसरवाद की राजनीति, राजनीतिक लाभ के लिए आयाराम-गयाराम की बढ़ती प्रवृत्ति, ईमानदार लोगों का अर्थ के अभाव में हशिये पर जाना, तानाशाही एवं परिवारवादी पार्टियों का उदय, राजनीति में हिंसात्मक प्रवृत्ति का लगातार बढ़ना आदि मामले जन-जन की जुबान पर हैं। निश्चित रूप से ये सभी बातें स्वस्थ एवं सुदृढ़ लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं हैं। हमारे देश में एक कहावत प्रचलित है कि अतीत में ‘राजा, रानी के कोख’ से पैदा होते थे किन्तु आज के राजा या जन प्रतिनिधि मत पेटियों से पैदा होते हैं। उदाहरण के तौर पर यह बात बहुत अच्छी है किंतु व्यावहारिक दृष्टि से देखा जाये तो परिवारवाद की राजनीति ने इस अवधारणा को काफी हद तक बदलने का काम किया है।
कुल मिलाकर मेरे कहने का आशय यही है कि हमारा लोकतंत्र अतीत में कैसा था, आज कैसा है और कल कैसा होगा, इस पर व्यापक रूप से विचार करने की आवश्यकता है। यदि भविष्य के लोकतंत्र को स्वस्थ एवं मर्यादित बनाना है तो शुरुआत स्वयं से ही करनी होगी अन्यथा बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधेगा, उसका इंतजार करते-करते कहीं देर न हो जाये। इसके लिए सर्वप्रथम स्वार्थवादी मानसिकता, उपयोग से अधिक संचय की मानसिकता, अर्थ आधारित उपभोक्तावादी जीवनशैली एवं नास्तिक मानसिकता इत्यादि को तिलांजलि देकर अपने और अपनों के जीवन को प्रकृतिमय एवं संस्कृति के अनुरूप बनाना होगा। वैसे भी आज नहीं तो कल यह काम करना ही होगा, इसलिए यह काम जितना शीघ्र कर लिया जाये, उतना ही अच्छा होगा। इसके अलावा और कोई अन्य विकल्प भी नहीं है।
– सिम्मी जैन