भारत सहित पूरी दुनिया में विकास की नई-नई गाथाएं आये दिन देखने-सुनने को मिलती रहती हैं किन्तु प्रश्न यह उठता है कि विकास की जो गाथाएं देखने-सुनने को मिल रही हैं, क्या भविष्य में उन्हें सुरक्षित रखने एवं सजाने-संवारने के लिए योग्य एवं काबिल लोग रहेंगे? प्रश्न बहुत सामान्य है कि क्या हमारी जो युवा पीढ़ी है, उसमें इस प्रकार के संस्कार देने के प्रयास किये जा रहे हैं या फिर ऐसा कर पाने की संभावना बन रही है।
हमारी सनातन संस्कृति में प्राचीन काल से ही एक कहावत प्रचलित है कि पुत्र यदि लायक एवं संस्कारी है तो पिता भले ही अपने जीवन में कुछ न कर पाया हो किन्तु पुत्र घर-परिवार की मान-मर्यादा को आगे ही बढ़ाने का कार्य करेगा परंतु पुत्र यदि नालायक एवं कुसंस्कारी हो तो पिता चाहे जितनी भी दौलत और शोहरत हासिल कर ले किन्तु इस बात की कोई संभावना नहीं होती कि नालायक पुत्र अपने माता-पिता और कुल-खानदान की दौलत और शोहरत को भविष्य में भी बरकरार रख पायेगा। कुल मिलाकर कहने का आशय यही है कि किसी भी परिवार, घर, समाज एवं राष्ट्र का भविष्य इस बात पर निर्भर है कि उसकी युवा पीढ़ी कैसी है, वहां के लोग कैसे हैं, वहां का समाज कैसा है?
उदाहरण के तौर पर सड़क पर जब कोई घायल व्यक्ति तड़प-तड़प कर मदद की गुहार लगाता है तो तमाम लोग यह सोचकर कन्नी काटकर निकल जाते हैं कि मेरा क्या मतलब? मैं क्यों सिरदर्दी पालूं किन्तु उस व्यक्ति को यह नहीं पता कि किसी दिन उसका भी यही हश्र हो सकता है परंतु ऐसी स्थिति में तमाम लोग ऐसे भी होते हैं जो अपने महत्वपूर्ण कार्यों को छोड़कर सड़क पर तड़प रहे व्यक्ति को सर्वप्रथम मदद करते हैं और उसे अस्पताल पहुंचाते हैं। ऐसे लोग इस बात की जरा भी परवाह नहीं करते कि ऐसा करने से उन्हें दिक्कत भी हो सकती है। ऐसे लोग यदि कन्नी काटना चाहें तो भी नहीं काट सकते हैं क्योंकि उनकी आत्मा उन्हें ऐसा नहीं करने देती है। इसका यदि विश्लेषण किया जाये तो स्पष्ट तौर पर देखने को मिलता है कि सड़क पर तड़पते व्यक्ति की जिसने मदद की, ऐसा उसने अपने एवं अपने परिवार के संस्कारों की वजह से की और जिसने मदद नहीं की, ऐसा उसने अपने संस्कारों की वजह से ही किया।
कुल मिलाकर कहने का आशय यही है कि जीवन में संस्कारों का बहुत महत्व है। सरकारें चाहे जितना भी विकास कर लें किन्तु यदि देश के नागरिकों में इस प्रकार का भाव नहीं होगा कि सरकारी संपत्ति मेरी व्यक्तिगत संपत्ति से भी बढ़कर है, इसकी मैं किसी भी कीमत पर रक्षा एवं देखभाल करूंगा, तब तक विकास के कोई मायने नहीं रह जाते। सरकारी संपत्ति की लूट-खसोट एवं नुकसान पहुंचाने वालों की संख्या कितनी अधिक है, यह बात किसी से छिपी नहीं है। सड़क पर यदि कोई पत्थर या ऐसा कोई सामान पड़ा हो, जिसकी वजह से आवागमन में बाधा उत्पन्न हो रही हो और लोग उस पत्थर या सामान की अनदेखी कर निकलते जा रहे हों किन्तु कोई व्यक्ति ऐसा भी आता है जो उस पत्थर या सामान को उठाकर यह सोच कर रख देता है कि इसकी वजह से सभी को परेशानी हो रही है तो यह बात यह स्पष्ट करने के लिए पर्याप्त है कि देश को सजाने-संवारने में कैसे लोगों की आवश्यकता है? कुल मिलाकर कहने का आशय यही है कि पहले लोगों को संस्कारित किया जाये जिससे घर, परिवार, समाज एवं राष्ट्र का भविष्य उज्जवल बना रह सके।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखाओं में प्रायः एक गीत सुनने को मिलता है कि ‘देश हमें देता है सब कुछ, हम भी तो कुछ देना सीखें’ यानी हम राष्ट्र के प्रति अपना कर्तव्य निभाने के लिए हमेशा तत्पर रहें। इसके अतिरिक्त एक गीत अकसर यह भी सुनने को मिलता रहता है कि ‘तेरा वैभव अमर रहे मां, हम दिन चार रहें या न।’ इस प्रकार के तमाम गीत एवं कार्य संघ की शाखाओं में प्रतिदिन होते हैं, जिससे शाखा में जाने वाले बच्चे एवं लोग राष्ट्र के लिए एक संस्कारी एवं जिम्मेदार नागरिक बन सकें इसीलिए समाज में संघ के बारे में एक आम धारणा प्रचलित है कि संघ की शाखाओं में नियमित जाने वाले बच्चे एवं लोग राष्ट्र भक्त ही बनेंगे, इस बात की गारंटी है। ऐसा पूरा समाज मानता है।
विगत कुछ वर्षों से देखने-सुनने में आ रहा है कि बालीवुड एवं संभ्रात परिवारों के बच्चों में भी काफी संख्या में वे तमाम दुर्गुण देखने को मिल रहे हैं, जो अमूमन उन सड़क छाप बच्चों एवं परिवारों में देखने को मिलते हैं जिनका न तो ठीक से पालन-पोषण हुआ है और न ही उचित तरीके से शिक्षा-दीक्षा यानी अब उन महंगे शिक्षण संस्थाओं पर भी प्रश्न चिन्ह लगने लगे हैं जो मोटी धनराशि लेकर बच्चों को डिग्रियां तो दे रहे हैं किन्तु उनमें संस्कारों का नामो-निशान नहीं है। जिस उम्र में सरदार भगत सिंह देश की आजादी के लिए फांसी पर झूल गये थे, उस उम्र के तमाम बच्चे गांजा, भांग एवं ड्रग्स की लत में फंसे पड़े हैं।
आज आवश्यकता इस बात की है कि सभी स्कूलों, कॉलेजों एवं शिक्षण संस्थाओं में मुख्य कोर्स के साथ नैतिक शिक्षा पर भी ध्यान दिया जाये क्योंकि नैतिक शिक्षा से वंचित छात्र-छात्राएं एवं युवा पीढ़ी राष्ट्र एवं समाज के लिए कदम-कदम पर सिर दर्द साबित हो सकते हैं।
गहराई से यदि विश्लेषण किया जाए तो बात एकदम स्पष्ट है कि शिक्षा के नाम पर पैसा तो खूब लिया जा रहा है किन्तु बच्चों को संस्कारित कैसे किया जाये, इस तरफ ध्यान देने के प्रयास नहीं किये जा रहे हैं। हमारे देश में अनवरत वृद्धाश्रम, विधवाश्रम एवं अनाथालय बढ़ते जा रहे हैं। हमारी सनातन संस्कृति में यह सब नहीं था। इन सबके बढ़ने का सीधा सा आशय यही है कि ऐसा संस्कारों की कमी की वजह से हो रहा है।
हमारी सनातन संस्कृति संस्कारों की बहुत ही श्रेष्ठ उदाहरणों एवं परंपराओं से भरी पड़ी है। श्रवण कुमार अपने अंधे माता-पिता को कांवड़ में बैठाकर तीर्थ यात्रा के लिए निकले तो उनके अंदर समाहित संस्कारों की वजह से ही ऐसा संभव हो पाया था। त्रेता युग में प्रभु श्रीराम के लिए चौदह वर्ष का वनवास उनकी सौतेली माता महारानी कैकेई ने राजा दशरथ से मांगा था। कैकई की इस मांग से राजा दशरथ इतने व्यथित हुए कि उन्होंने मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम से कहा कि मैं तो अपने वचनों को लेकर कैकई के प्रति वचनबद्ध हूं किन्तु तुम किसी भी रूप में मेरा आदेश मानने के लिए वचनबद्ध एवं विवश नहीं हो परंतु प्रभु श्रीराम ने पिता की बातों को अनसुना कर वनवास को ही स्वीकार किया।
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इस पूरे घटनाक्रम में इससे बड़ा श्रेष्ठ उदाहरण यह देखने को मिला कि माता जानकी और लक्ष्मण जिन्हें वनवास मिला ही नहीं था, वे भी प्रभु श्रीराम के साथ जंगल में चल दिये। उससे श्रेष्ठ उदाहरण यह देखने को मिला कि जिन्हें अयोध्या का राज मिला, भरत जी, वे प्रभु श्रीराम को मनाने जंगल में चल दिये किन्तु जब वे नहीं माने तो उनका खड़ाऊं लेकर अयोध्या आ गये और वे कभी सिंहासन पर बैठे ही नहीं। यही हाल प्रभु श्रीराम के छोटे भाई शत्रुघ्न का रहा, उन्होंने भी अपने आपको राजसी सुख-सुविधा से दूर कर लिया। कुल मिलाकर स्थिति यह बन गई कि चारों भाइयों ने एक दूसरे के साथ प्यार-स्नेह, त्याग एवं समर्पण का भाव दिखाते हुए अयोध्या के राज मुकुट को ठोकर मार दिया। इन सबसे अच्छी बात यह देखने को मिली कि जिस प्रभु श्रीराम के पास शासन-प्रशासन की कोई शक्ति एवं पद नहीं था, उन्होंने अयोध्या राजवंश की गौरवगाथा को और अधिक गौरवान्वित करने का काम किया। सभी दुष्टों का नाश करते हुए श्रीलंका की जनता का भी उद्धार किया।
कुल मिलाकर कहने का आशय यही है कि ये जितने भी आदर्श एवं श्रेष्ठ उदाहरण सुनने को मिलते हैं, यह सब श्रेष्ठ संस्कारों की वजह से ही संभव हो पाया था। द्वापर युग में एकलव्य ने अपना अंगूठा काटकर गुरु द्रोणाचार्य को सौंप दिया था। दानवीर कर्ण ने अपना कवच-कुंडल राजा इंद्र को यह जानते हुए भी सौंप दिया कि इसके अभाव में वे मारे जा सकते हैं किन्तु श्रेष्ठ संस्कारों ने उन्हें ऐसा करने के लिए प्रेरित किया किन्तु आज क्या हो रहा है? दो वर्ष की बच्ची से लेकर अस्सी वर्ष की वृद्धा के साथ बलात्कार की घटनाएं देखने-सुनने को मिल रही हैं। कोरोना काल में एक हजार की दवा दस हजार से ऊपर की बिकी। ऑनलाइन ठगी के माध्यम से लाचार एवं मजबूर लोगों को जमकर ठगा गया। ये सब बातें यह बताने के लिए पर्याप्त हैं कि समाज में संस्कारों का ग्राफ निहायत ही निम्न स्तर तक चला गया है।
गुरुकुल शिक्षा प्रणाली को तमाम लोग भले ही अव्यावहारिक एवं दकियानूसी करार दें किन्तु गुरुकुल शिक्षा प्रणाली समाज के लिए निहायत जरूरी है। बेईमानी, रिश्वतखोरी, कालाबाजारी एवं अन्य अवांछित कार्य यदि समाज में व्यापक स्तर पर बढे़ हैं तो उसके पीछे निश्चित रूप से संस्कारों की ही कमी है। आज भी श्रेष्ठ संस्कारों की वजह से एक सैनिक देश के लिए अपनी जान कुर्बान करता है तो उसका बेटा, पत्नी एवं परिवार के अन्य सदस्य सेना में जाने के लिए तैयार हो जाते हैं। यहां भी यदि देखा जाये तो संस्कार ही देखने को मिलते हैं। नामी-गिरामी स्कूल-कॉलेज यदि बच्चों को संस्कारी नहीं बना पा रहे हैं तो उन्हें सोचने की जरूरत है और इसके साथ-साथ बच्चों के माता-पिता एवं उस पर अभिभावकों को भी सोचने-समझने एवं अमल करने की आवश्यकता है।
आज यह बात बेहद व्यापक स्तर पर प्रमाणित हो चुकी है कि संस्कारहीन सुविधाएं पतन का कारण बनती हैं। संस्कार बिना मानव चलता-फिरता बारूद है। वह कब और कहां फट जाये, इस बात की कोई गारंटी नहीं है? हम घर, परिवार एवं समाज में क्या करते हैं और कैसे रहते हैं, इसी से हमारे संस्कारों का मूल्यांकन होता है। पाश्चात्य जगत की अत्यधिक नकल, अति आधुनिकता, अश्लीलता एवं सदैव पैसा कमाने की होड़ निश्चित रूप से समाज को संस्कारों से दूर करने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह कर रही है।
आज की युवा पीढ़ी थोड़ी सी समस्या आने पर टूट एवं बिखर जा रही है। उसके अंदर हताशा, निराशा एवं डिप्रेशन का ग्राफ अनवरत बढ़ता ही जा रहा है जबकि हमारी सनातन संस्कृति में कठिन से कठिन दौर से निकलने के लिए तमाम तरीकों एवं उदाहरणों के माध्यम से बताया एवं समझाया गया है। श्रीमद्भागवत के बारे में कहा जाता है कि ऐसी कोई समस्या नहीं हैं जिसका समाधान श्रीमद्भगवत गीता में न हो। कठिन से कठिन समस्या से कैसे निकला जाये, यही तो हमारी सनातन संस्कृति एवं जीवनशैली का मूल तत्व है।
यह सभी को अच्छी तरह पता है कि बच्चे ही देश का भविष्य हैं। यह भी पूरी तरह सत्य है कि बच्चे बताने से ज्यादा देखकर सीखते हैं यानी बच्चा जैसा देखता है, वैसा ही सीखता है। आज समाज में यदि हानि-लाभ के आधार पर लोगों का सम्मान होगा तो बच्चे भी ऐसे ही बनेंगे और समाज और राष्ट्र भी ऐसा ही बनेगा। अतः कुल मिलाकर कहने का मूल आशय यही है कि जब तक किसी भी देश में श्रेष्ठ एवं संस्कारी नागरिकों एवं समाज का निर्माण नहीं होगा तब तक विकास चाहे जितना भी कर लिया जाये उसका कोई मतलब नहीं होगा इसलिए यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं है कि विकास के पहले संस्कारों की आवश्यकता है। बिना इसके श्रेष्ठ समाज एवं राष्ट्र की स्थापना नहीं की जा सकती है।
– सिम्मी जैन
दिल्ली प्रदेश कार्यकारिणी सदस्य- भाजपा, पूर्व चेयरपर्सन – समाज कल्याण बोर्ड- दिल्ली, पूर्व निगम पार्षद (द.दि.न.नि.) वार्ड सं. 55एस।