प्रकृति मानव सहित सभी जीव-जंतुओं, पेड़-पौधों एवं वनस्पतियों का समुचित ध्यान रखती है। सृष्टि का छोटा से छोटा जीव प्रकृति की नजर में होता है। प्रकृति अपने तरफ से यही कोशिश करती है कि सृष्टि के छोटे से छोटे जीव को किसी तरह का कोई कष्ट न हो किंतु समय-समय पर वह इस बात के लिए भी आगाह करती रहती है कि सृष्टि के सभी जीव अपनी मर्यादा में रहें। चूंकि, सभी प्राणियों में मानव सबसे समझदार प्राणी है, इसलिए उसकी यह जिम्मेदारी बनती है कि वह प्रकृति के निमयों के अनुरूप स्वयं चले एवं अन्य प्राणियों का भी ध्यान रखे किंतु मानव अपना हित साधने के फेर में सभी मर्यादाएं भूल गया है और लोभ-लालच में पड़कर प्रकृति का दोहन एवं शोषण करने में लगा हुआ है।
वैसे तो प्रकृति ने मानव सहित सभी जीव-जंतुओं को सब कुछ मुफ्त में दिया है जिससे सभी का जीवन यापन चलता रहे किंतु उसकी शर्त यह है कि प्रकृति से सिर्फ उतना ही लिया जाये जितनी आवश्यकता हो। वास्तव में प्रकृति की मोटे तौर पर व्याख्या की जाये तो कहा जा सकता है कि क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा यानी पृथ्वी, जल, अग्नि आकाश और वायु ही प्रकृति है। इन्हें ही पंच तत्व कहा जाता है। इन्हीं पंच तत्वों में मानव सहित सभी प्राणी एवं जीव-जंतु जन्म लेते हैं और इसी में विलीन हो जाते हैं। इन्हीं पंच तत्वों का संतुलन जब तक बना रहता है तब तक सब कुछ ठीक रहता है और प्रकृति भी प्रसन्न रहती है। इन पंच तत्वों का संतुलन जब बिगड़ता है तो प्राणि जगत की परेशानियां बढ़ जाती हैं और प्रकृति भी दुखी होती है।
यह कल्पना की जा सकती है कि जब पृथ्वी दुखी होगी तो क्या होगा? मानव इस दृष्टि से बेहद सौभाग्यशाली है कि उसे पंच तत्वों के उपयोग का सौभाग्य मिला है, इसीलिए तो देवता भी मानव के रूप में जन्म लेने हेतु इच्छुक रहते हैं।
वर्तमान दौर की बात की जाये तो बिना किसी लाग-लपेट के कहा जा सकता है कि मानव के व्यवहार से प्रकृति बहुत दुखी है। प्रकृति जब दुखी होती है तो वह समय-समय पर इशारा भी करती है। प्रकृति का इशारा इसलिए होता है कि मानव उसे समझकर प्रकृति के अनुरूप चलने एवं अपना आचरण ठीक करने का प्रयास करे किंतु मानव तो मानव है, वह समझने के लिए कहां तैयार है?
प्रकृति के इशारों या यूं कहें कि उसके प्रहार को समझने की कोशिश की जाये तो सब कुछ अपने आप स्पष्ट हो जाता है। अति वर्षा यानी बाढ़, सूखा, भूस्खलन, अति हिमपात, अति गर्मी, जंगलों की आग, भूकंप आदि के माध्यम से प्रकृति मानव को सचेत करती रहती है। पूरी दुनिया में जिन्हें विकसित देश कहा जाता है, वहां प्राकृतिक आपदायें और अधिक बढ़ रही हैं, उसका संभवतः कारण यही है कि वहां विकास की आड़ में प्रकृति का दोहन एवं शोषण बहुत अधिक हुआ है। विकास की अति महत्वाकांक्षा के लिए विकसित देश किस अंधी सुरंग में जा रहे हैं, शायद उन्हें इसका पता ही नहीं है?
विकसित देशों ने प्रकृति को जिस हद तक छेड़ने या यूं कहें कि दोहन करने का काम किया है, उसका खामियाजा विकासशील एवं अन्य पिछड़े देशों को भी भुगतना पड़ रहा है। जंगल यदि कटेंगे तो सूखा झेलना ही पड़ेगा। नदियों के पेटों को यदि पाट दिया जायेगा तो बाढ़ आयेगी ही। प्रकृति के असंतुलन के कारण आज इंसान और जानवर सहित वनस्पति तक सभी परेशान हैं। थोड़ी सी ही बारिश में ही गांव-शहर डूबते जा रहे हैं। बरसात के पानी का संग्रह न होने के कारण विगत कुछ वर्षों की बात की जाये तो गर्मी का प्रकोप ऐसा कहर बरपा रहा है कि लोग त्राहिमाम कर रहे हैं। मक्का में हज यात्रा पर गये काफी संख्या में लोगों को आत्यधिक गर्मी से अपने प्राण गंवाने पड़े हैं। हीट वेव से मरने वालों की संख्या भारत सहित तमाम देशों में है। प्रकृति का संतुलन क्यों बिगड रहा है, इसके तमाम कारण हैं किंतु मोटे तौर पर देखा जाये तो बेहिसाब निकासी, जमीन में दफन तथा धरती व पहाड़ पर मौजूद खनिज, मृदा और दूसरे तत्वों का ताबड़तोड़ उत्खनन, पेड़ों एवं वनस्पतियों का लगतार कटना, प्रकृति में संतुलन बनाने वाले जीवों का विलुप्त होना, जहरीली गैसों का उत्सर्जन, अत्यधिक गाड़ियों से निकलता धुंआ आदि से पर्यावरण प्रभावित हो रहा है और पंच तत्वों का संतुलन बिगड़ रहा है।
प्रकृति के इशारों की बात की जाये तो कोरोना काल में देखने को मिला कि जब लोग भयभीत होकर घरों में सिमट गये तो हवा साफ हो गई थी, आसमान साफ हो गया, नदियां भी काफी हद तक साफ हो गयीं, पक्षियां स्वाभाविक रूप से कलरव करने लगी थीं। इसके अतिरिक्त और भी बहुत कुछ देखने को मिला था किंतु मानव को तब भी समझ में नहीं आया। जिन देशों को अपनी टेक्नोलाॅजी, वैज्ञानिक प्रगति और मेडिकल व्यवस्था पर बहुत गुमान था, वे भी प्रकृति के आगे चारों खाने चित्त हो गये।
कोरोना की दूसरी लहर में जब लोगों के शरीर में आक्सीजन की कमी होने लगी तो प्रकृति के इस इशारे को समझना चाहिए था। उस समय प्रधानमंत्री जी ने घोषणा की थी कि हिंदुस्तान के प्रमुख अस्पतालों में आक्सीजन के प्लांट लगाये जयेंगे और काफी हद तक लगाये भी गये किंतु समस्या का समाधान यह नहीं है। समस्या का समाधान तो इस बात में है कि प्रकृति को कैसे समृद्ध एवं संतुलित किया जाये। यह बात सर्वविदित है कि सृष्टि का छोटे से छोटा और बड़े से बड़ा प्राणी और वनस्पतियों में कोई भी निरर्थक नहीं है, सबका अपना महत्व है। सिर्फ महत्व ही नहीं है बल्कि पंच तत्वों के संतुलन की दृष्टि से भी महत्व है। भारतीय सभ्यता-संस्कृति में व्रत-पर्व, तीज-त्यौहार, मेले आदि की परिकल्पना बहुत सोच-समझ कर की गई है। कमोबेश इन सभी का मकसद यही है कि प्रकृति का संतुलन बना रहे।
शास्त्र बताते हैं कि प्रकृति के नियमों के मुताबिक जो लोग जीवन जीते हैं, उन पर ईश्वर की कृपा बरसती है। इस संबंध में यह भी कहा जा सकता है कि जो लोग प्राकृतिक नियमों का अनवरत पालन करते हैं उनके सामने देवता भी नत मस्तक होने के लिए विवश होते हैं। ऐसे तमाम उदाहरण हमारे शास्त्रों में वर्णित हैं, जब प्रकृति के साथ अक्षरशः चलने वालों के पास देवता एवं स्वयं नारायण भी आये हैं। सृष्टि के अति से छोटे जीव चींटी का भी अस्तित्व बना रहे इसके लिए चींटियों को आटा डालने की परंपरा विकसित की गई है। जहरीले जीव सांपों का अस्तित्व बचा रहे, इसके लिए नागपंचमी के दिन सांपों को दूध पिलाया जाता है। यह सब लिखने का आशय मेरा मात्र इतना ही है कि लोग यदि प्रकृति के इशारों को समझेंगे तो प्राकृतिक नियमों के मुताबिक जीवन जीने का प्रयास निश्चित रूप से करेंगे।
आज गर्मी बेतहाशा बढ़ रही है। इसकी व्याख्या तमाम तरह से हो रही है किंतु इस बात की चर्चा कम हो रही है कि यह प्रकृति का एक संदेश या यूं कहें कि इशारा है। आज गर्मी का असर उन देशों में भी देखने को मिल रहा है कि जिन्हें ठंडा देश माना जाता रहा है। वैज्ञानिक यह बात स्पष्ट रूप से कह रहे हैं कि इंसानी गतिविधियों से दुनियाभर में गर्मी बढ़ रही है। हालांकि, अल-नीनो ने इसमें आग में घी डालने जैसा काम किया है जिसे इस रिकाॅर्ड तोड़ गर्मी की बड़ी वजह माना जा रहा है। इंटर गवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंजर (आईपीसीसी) की विशेष रिपोर्ट में कहा गया है कि अगर तापमान में 1.5 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा बढ़ोत्तरी होती है तो अत्यधिक व तेज बारिश, सूखा और लू जैसे गंभीर नतीजे भुगतने पड़ सकते हैं।
वैज्ञानिक आजकल शायराना अंदाज में कहने लगे हैं कि ‘धरती को बुखार हो गया है।’ इसका मतलब यह है कि तापमान 1850-1900 के औद्योगिक क्रांति से पहले के औसत की तुलना में 1.5 और 2 डिग्री से समय की सीमा को पार करने के करीब हैं। यह लोगों को गर्मी से होने वाली मुश्किलों, जैसे जलवायु परिवर्तन के खतरों की तरफ धकेल रहा है। साल 2023 में ही बढ़ती गर्मी के संकेत पूरी तरह सामने और स्पष्ट थे। भूमध्य सागरीय क्षेत्र और संयुक्त राज्य अमेरिका में लू चलना, कनाड़ा, ग्रीस, आस्ट्रेलिया और इंडोनेशिया के जंगलों में आग लगना, अफ्रीका के हार्न में लंबे समय तक सूखा के बाद बाढ़ यह सब प्रकृति के संकेत ही हैं।
ध्वनि प्रदूषण, जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण सहित यदि प्रदूषणों की व्याख्या की जाये तो इनकी संख्या लगातार बढ़ती ही जा रही है। जमीन पर गाड़ियों की अधिक संख्या होने के कारण ट्रैफिक जाम की समस्या तो है ही, किंतु अब तो मामला उससे आगे निकल गया है। अब तो आकाश मार्ग में भी ट्रैफिक की समस्या उत्पन्न हो गई है। आखिर इन सबको क्या कहा जा सकता है। आज दुनिया के कई देशों में युद्ध चल रहा है। इन युद्धों में काफी संख्या में गोला-बारूद का उपयोग हो रहा है। रूस-यूक्रेन में युद्ध चल रहा है। इजरायल और हमास का युद्ध चल रहा है। इन युद्धों में जो भी युद्ध सामग्री उपयोग में लाई जा रही है, उससे पर्यावरण बुरी तरह प्रभावित हो रहा है। जहां कहीं भी लंबे समय तक युद्ध की स्थिति रहती है। वहां युद्ध समाप्त होने के बाद भी स्थिति सामान्य नहीं हो पाती हैं, उसके दुष्प्रभाव लंबे समय तक देखने को मिलते रहते हैं।
दूसरे विश्व युद्ध में अमेरिका ने नागाशाकी और हिरोशिमा में परमाणु बम गिराया था, उसके दुष्प्रभाव आज भी देखने को मिल रहे हैं। भोपाल गैस कांड का दुष्प्रभाव एक लंबे समय बाद आज भी देखने को मिल रहा है। संघर्षों से नुकसान का जो अनुमान लगाया जाता है, अकसर वह अनुमान से ज्यादा ही निकलता है। फ्रांस में प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटेन की खूनी लड़ाई ने एक समय उपजाऊ मानी जाने वाली कृषि भूमि को प्रदूषित कर दिया थ। आज उस युद्ध के एक सदी से अधिक समय के बाद भी कोई उस क्षेत्र में नहीं रह समाता जिसे अब रेड जोन कहा जाता है।
युद्ध के दौरान अकसर बारूदी सुरंगों का इस्तेमाल आमतौर पर बहुत हानिकारक होता है, क्योंकि ये तब तक अपनी जगह कायम रहती हैं, जब तक उन्हें छूने से उनमें विस्फोट न हो जाये। युद्ध समाप्त होने के काफी समय बाद लीबिया, यूक्रेन, लेबनान, बोस्निया, हर्जेगोबिना में बाढ़ का पानी गुजरने के बाद जमीन के बारूदी सुरंग होने का पता चला है। कई बार ऐसा भी हुआ है कि युद्ध समाप्त होने के बाद चे एवं खराब हुए हथियारों को समुद्र में डाल दिया जाता है किंतु इसके क्या दुष्प्रभाव हो सकते हैं, उस तरफ भी ध्यान देने की आवश्यकता है।
प्रकृति जब मानव को इशारों के द्वारा सचेत करने का प्रयास करती है तो मानव का भी यह कर्तव्य बनता है कि वह प्रकृति के संरक्षण का भरपूर प्रयास करे। आक्सीजन देने वाले हवादार एवं फलदार पेड़ों को अधिक संख्या में लगाया जाये। जल संरक्षण, वायु संरक्षण पर समग्र रूप से ध्यान केंद्रित किया जाये। विलुप्त होती प्रजातियों, वनस्पतियों, पशु-पक्षियों के संरक्षण की आवश्यकता है। पर्यावरण को नियंत्रित करने के लिए समग्र दृष्टिकोण की आवश्यकता है। कुल मिलाकर कहने का आशय यह है कि प्रकृति के संरक्षण एवं संवर्धन पर जब तक पूरी तरह ध्यान फोकस नहीं किया जायेगा, तब तक प्रकृति के गुस्से से बच पाना आसान नहीं होगा।
दुनिया के तमाम घटनाओं एवं अनुमानों के आधार पर वैज्ञानिक निष्कर्ष भले ही निकाले जाते हैं किंतु जिन लोगों ने प्राकृतिक जीवनशैली का अक्षरशः पालन किया है, उन्हें प्रकृति के इशारों से ही पता चल जाता है कि भविष्य में क्या होने वाला है? कब बाढ़ आायेगी, कब सूखा पड़ेगा, कब भूकंप आयेगा, कब भूस्खलन होगा आदि का पता प्रकृति के इशारे से पहले भी चल जाता था किंतु उस दौर में मानव प्रकृति के प्रति बहुत सचेत, सतर्क एवं श्रद्धालु था। नदियों, पहाड़ों, जंगलों, पशु-पक्षियों आदि की भाषा अतीत में लोग समझते थे।
अतीत में जब लोग प्रकृति के इशारों को समझ जाते थे तो उसके अनुरूप प्राकृतिक आपदाओं से बचने का उपाय करते थे और कदम-कदम पर प्रकृति के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए क्षमा प्रार्थना करते थे किंतु आज का मानव अपने को शक्तिमान समझ चुका है, क्षमा मांगना तो दूर की बात, प्रकृति के प्रति कृतज्ञता भी व्यक्त नहीं करना चाहता है। पहले जब बाढ़, सूखा या किसी प्रकार की आपदा आती थी तो लोग उससे उबरने के लिए प्रकृति की पूजा करते थे यानी प्रकृति को मनाने का कार्य करते थे। कुल मिलाकर कहने का आशय यह भी है कि प्रकृति के नियमों के मुताबिक जीवन जीने का सीधा सा आशय यह है कि पूर्ण रूप से शुद्ध, सात्विक, शाकाहारी, आध्यात्मिक एवं धार्मिक तरीके से जीवन यापन। इसे इस रूप में भी कहा जा सकता है कि जो लोग प्रकृति के साथ चलने का निश्चय कर लेते हैं, कदम-कदम पर दैवीय शक्तियां भी उनका स्वागत-सम्मान करती हैं।
इस पूरे प्रकरण में ताज्जुब की बात तो यह है कि मानव सब कुछ जानता है किंतु उसके बावजूद वह पूरी तरह से अंजान बना हुआ है। वैसे भी देखा जाये तो त्रिदेव यानी ब्रह्मा, विष्णु और महेश भी सृष्टि में अनवरत संतुलन बनाने में ही लगे रहते हैं क्योंकि संतुलन में यदि किसी भी प्रकार की दिक्कत आतीं हैं तो व्यवस्था ध्वस्त हो जाती है। प्रकृति के इशारों को अच्छी तरह समझ कर आज के मानव को उस पर अमल भी करना है। इस संबंध में जहां तक भारत की बात की जाये तो उसे अपने देश के साथ-साथ पूरी दुनिया को रास्ता दिखाना पड़ेगा। इस रास्ते पर जितनी जल्दी बढ़ लिया जाये, उतना अच्छा होगा क्योंकि देर-सवेरे इसी रास्ते पर ही आना होगा।
– सिम्मी जैन – दिल्ली प्रदेश कार्यकारिणी सदस्य- भाजपा, पूर्व चेयरपर्सन – समाज कल्याण बोर्ड- दिल्ली, पूर्व निगम पार्षद (द.दि.न.नि.) वार्ड सं. 55एस।