अजय सिंह चैहान || आप या हम, चाहे किसी भी उम्र के हों, जब कभी भी मंदिर जाते हैं तो अक्सर सबसे पहले उस मंदिर की सीढ़ियों पर पैर रखने से पहले उन सीढ़ियों को नमन करते हैं उसके बाद ही प्रवेश करते हैं। और जब, दर्शन करने के बाद मंदिर से बाहर आते हैं तो उनमें से कुछ श्रद्धालु मंदिर की उन सीढ़ियों से उतरने से पहले कुछ पल के लिए ही सही मगर उन सीढ़ियों पर बैठकर या तो कुछ मंत्र या फिर किसी देवी या देवता का नाम जपते हुए भी देखे जाते हैं। मंदिरों में ऐसे दृश्य अक्सर देखे जाते हैं लेकिन, शायद कभी ध्यान ही नहीं देते कि ऐसा क्यों होता है या ऐसा क्यों किया जाता है।
संसद भवन भी तो मंदिर ही है –
ठीक इसी तरह का एक सबसे सटीक और सबसे अच्छा उदाहरण जो हम सबने और दुनिया ने देखा जब वर्ष 2014 में प्रधानमंत्री माननीय श्री नरेंद्र मोदी जी ने संसद भवन में प्रवेश करने के पहले उसकी सीढ़ियों पर मत्था टेका था। श्री नरेंद्र मोदी ने संसद भवन को एक मंदिर के प्रतीक के तौर पर मानकर इसमें प्रवेश से पहले मत्था टेका और संवेधानिक और राजनीतिक आत्मशक्ति और आत्मविश्वास की प्राप्ति के लिए दुआ मांगी थी।
भले ही कुछ लोगों को मोदी की यह क्रिया यह पसंद नहीं आयी होगी, लेकिन श्री मोदी का संसद भवन की सीढ़ियों पर मत्था टेकने का यही एकमात्र कारण था। श्री मोदी का वह उद्देश्य किसी भी प्रकार के पूजास्थलों में यानी मंदिरों में पर पाई जाने वाली सकारात्मक ऊर्जा और आत्मशक्ति की भांति ही संसद भवन में भी व्याप्त सकारात्मक ऊर्जा को अपने अंदर समाहित करने के लिए आहवान करना था।
आत्मशक्ति की ऊर्जा के लिए –
अब सवाल उठता है कि हमें मंदिर की सीढ़ियों क्यों बैठना चाहिए, या फिर क्यों बैठा जाता है? दरअसल, जब कोई भी श्रद्धालु मंदिर में भगवान के दर्शन करने के बाद बाहर निकलने से पहले कुछ देर के लिए मंदिर के प्रांगण में या फिर सीढ़ियों पर बैठता है तो इससे आपके मन और मस्तिष्क में एक प्रकार से आत्मशक्ति की ऊर्जा का संचार होता है। और आप अपने आप को ईश्वर के प्रति समर्पित पाओगे और आपको भी महसूस होगा कि कहीं न कहीं ईश्वरीय शक्तियां हमारे आसपास ही मौजूद रहतीं है इसलिए हमारे ऊपर उसकी छत्रछाया सदैव बनी रहेगी।
सीढ़ियों पर माथा टेकना –
इसके अलावा मंदिर में घंटी बजाने से भी पहले ही उसके प्रवेश द्वार पर या सीढ़ियों पर सभी श्रद्धालु माथा टेकते हैं। जिन धार्मिक जगहों में या मंदिरों में हर दिन घंटी सुनाई देती है ऐसे मंदिरों को जागृत देव स्थान या जागृत मंदिर कहा जाता है। ऐसे स्थानों पर या ऐसे मंदिरों के प्रवेश द्वार पर घंटी बजाने से ईश्वर की अपार कृपा मिलती रहती है।
यही प्रक्रिया हम अपने घरों के पूजास्थलों में यानी मंदिरों में पूजापाठ के बाद करते हैं। इसे आप मात्र अंधविश्वास या एक आस्था ना समझें। बल्कि यह एक वैज्ञानिक और आध्यात्मिक स्तर पर सिद्ध हो चुकी और प्राचीन काल से ही चली आ रही एक प्रक्रिया है और इसका पालन भी हर श्रद्धालु करता आ रहा है।
मन ही मन स्मरण करें –
इसके अलावा मंदिर में ईश्वर की मूर्ति के दर्शन करने के बाद वहां के सभा मंडप में या फिर किसी भी भाग में बैठकर या फिर सीढ़ियों पर बैठकर हमें मन ही मन एक विशेष श्लोक भी बोलना चाहिए। यह विशेष श्लोक इस प्रकार है –
अनायासेन मरणम् , बिना देन्येन जीवनम्।
देहान्त तव सानिध्यम, देहि मे परमेश्वरम्।।
इस श्लोक में ‘‘अनायासेन मरणम्’’ जैसे शब्दों पर यदि गौर करें तो उसका यहां सीधा और सरल सा अर्थ यही है कि जब कभी भी हमारी मृत्यु हो तो बिना किसी तकलीफ के ही हो। यानी मृत्यु के समय हम कभी भी बीमार होकर अधिक समय तक बिस्तर पर ना रहें। ईश्वर हमें चलते-फिरते अपनी शरण में बुला लें और हमें किसी भी प्रकार से अनेकों प्रकार के कष्ट उठाकर मृत्यु प्राप्त ना हों।
इसके अलावा इस श्लोक में ‘‘बिना देन्येन जीवनम्’’ पर भी गौर करें तो उसके अनुसार ज्ञात होता है कि अंत समय में हमारा जीवन कभी भी परवशता का जीवन ना हो, यानी हमें कभी किसी के सहारे की आवश्यकता ना पड़े या हम बेबस ना हो जायें यही हमारी कामना है।
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इस श्लोक में ‘देहान्त तव सानिध्यम’’ से अभिप्राय है कि जब भी मृत्यु हो भगवान के सम्मुख ही हो, या फिर किसी विशेष पवित्र स्थान या व्यक्ति के सामने ही हो। जैसे महाभारत युद्ध के दौरान जब पितामह भीष्म की मृत्यु हुई थी उस समय स्वयं भगवान श्रीकृष्ण उनके सम्मुख जाकर खड़े हो गए। पतामह भीष्म ने उनके दर्शन करते हुए ही प्राण त्यागे थे। हालांकि ऐसा हर किसी के लिए संभव नहीं है इसलिए हमारे धर्म में मान्यता है कि मृत्यु के बाद उस व्यक्ति के शरीर की राख को किसी पवित्र स्थान पर या गंगा में प्रवाहित किया जाता है।
अब हम बात करते हैं ‘‘देहि मे परमेश्वरम्‘‘ की। ‘देहि मे परमेश्वरम्‘‘ का शब्दिक अर्थ है कि हे परमेश्वर, आप हमें अपनी शरण में लें और हमारा उद्धार करें। यानी हम उस अदृश्य देवीय शक्ति से यह प्रार्थना करते हैं कि हे परम शक्ति, हम पर इतनी कृपा करना कि हमारी आत्मा आप ही में समा जाये। यानी परमेश्वर को प्राप्त हो जाये और हमारी देह को भी मोक्ष मिल जाये।
ईश्वर के मूर्तिस्वरूप को निहारें –
इन सब बातों से हट कर हमें एक और महत्वपूर्ण बात जो हमें मंदिर में जाने पर ध्यान रखनी चाहिए वह यह है कि मंदिर में मूर्ति के सामने खड़े होकर की जाने वाली प्रार्थना के समय हमें अपनी आखें बंद नहीं रखनी चाहिए और भगवान को श्रद्धा भाव से ही निहारना चाहिए या उनके दर्शन करना चाहिए। यानी अपनी आंखों में आप उस मूर्तिस्वरूप ईश्वर या देवी के दिव्य स्वरूप को भर लें। अगर आप मंदिर में दर्शन करने जा रहे हैं तो फिर आंखें बंद क्यों करना है, हम तो मंदिर में उस अदृश्य शक्ति के दर्शन करने जाते हैं जो मूर्ति स्वरूप में होते हैं। यदि आंखें बद करके ही प्रार्थना करनी हो तो फिर तो आप यह काम अपने घर पर ही कर सकते हैं।
ध्यान लगा कर कुछ देर बैठें –
लेकिन, जब आप मंदिर में दर्शन करने के बाद गर्भगृह से बाहर आकर बैठते हैं तो वहां वह मूर्ति नहीं होती बल्कि उस मूर्ति का दिव्य स्वरूप आपकी आंखों में समाया हुआ होता है, इसलिए बाहर आकर आप अपने नेत्र बंद करके ध्यान मुद्रा में उस ईश्वर के स्वरूप को ध्यान में रख कर याद कर सकते हैं।
मंदिर से बाहर आने के बाद प्रांगण में बैठकर आंखों को बंद करके उस ईश्वर की मूर्ति का ध्यान करें और उस ईश्वर की छवि के बारे में विचार करें। उस समय आपके सामने वही छवि प्रत्यक्ष नजर आने लगेगी। लेकिन, अगर ऐसा करने से आपके मन में या बंद आंखों से आपको उस ईश्वरीय मूर्ति के दर्शन नहीं हो पाते हैं जिसके दर्शन आपने अभी-अभी इसी मंदिर में किये होते हैं तो आप दोबारा मंदिर में जाएं और उस दिव्य मूर्ति का दर्शन करें।