अजय सिंह चौहान || हमारे देश के मात्र किसी एक जिले या प्रदेश में ही नहीं बल्कि संपूर्ण भारत में कई स्थानों पर आज भी ऐसी कई प्राचीन, ऐतिहासिक और धार्मिक महत्व की संरचनाएं, धरोहरें और पवित्र मंदिर हैं जो उपेक्षा का शिकार हैं। और ऐसा ही एक मंदिर है उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले में स्थित देवी दूर्गा के अष्टभुजा धाम सिद्ध पीठ मंदिर।
यह सच है कि हिंदू धर्म के अनुसार अगर कोई भी मूर्ति मामूली-सी भी खण्डित हो जाती है तो उसकी पूजा-पाठ करना एक दम वर्जित है, लेकिन, बावजूद इसके, इस मंदिर में बिना सिर वाली कई खंडित मूर्तियों को आज भी संरक्षित भी रखा गया है और इनकी पूजा-पाठ भी करीब-करीब 320 वर्षों से लगातार होती आ रही है। लेकिन, हिन्दू धर्म के किसी भी जानकार ने यहां इन मूर्तियों की पूजा-पाठ का आज तक ना तो विरोध किया और ना ही कोई आवाज ही उठाई है।
मंदिर का भी दूर्भाग्य ही कहा जा सकता है कि इसमें ऐतिहासिक दौर की जो मूर्ति स्थापित थी, वह अष्टधातु से बनी वह प्राचीन मूर्ति भी करीब 17 वर्ष पहले चोरी हो चुकी है। हालांकि, अब उस स्थान पर स्थानीय लोगों के सामूहिक सहयोग से एक नई मूर्ति का निर्माण करवाकर यहां स्थापित किया गया है।
इससे पहले हम यहां आपको यह बता दें कि यह एक खंडित मूर्तियों वाले प्राचीन मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। और इसमें की करीब-करीब सभी प्राचीन मुर्तियां खंडित हैं। बावजूद इसके यहां आज भी पूजा-पाठ होती आ रही है।
यह ‘अष्टभुजा धाम मंदिर’ लखनऊ से करीब 170 किमी की दूरी पर प्रतापगढ़ के गोंडे गांव में स्थित है। ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार इस मंदिर की वर्तमान संरचना का निर्माण आज से करीब 900 वर्ष पहले हुआ था।
मंदिर को लेकर मान्यता है कि यह मंदिर यहां त्रेता युग में स्थापित किया गया था। स्वयं भगवान राम भी इस मंदिर में दर्शन करने आया करते थे। इसके अलावा कहा जाता है कि महाभारत में जिस भयहरण नाथ मंदिर का वर्णन आता वह यही मंदिर है। महाभारत के अनुसार बकासुर नाम के दानव का वध कर करने के बाद भीम ने इसी मंदिर में एक शिवलिंग की भी स्थापना की थी। लेकिन, ऐसे लगता है कि अब धीरे-धीरे यह गुमनामी के अंधेरे में विलुप्त होता जा रहा है।
खंडित मूर्तियों की दर्दभरी कहानी कहता अष्टभुजा धाम मंदिर | Ruined Temple
पुरातात्विक विभाग और इतिहासकारों के अनुसार इस मंदिर का निर्माण 11वीं शताब्दी में हुआ था। यानी यह इमारत आज से करीब 900 वर्षों से भी अधिक पुरानी हो चुकी है। इसकी दीवारों पर अंकित नक्काशियां और विभिन्न प्रकार की आकृतियां देखने लायक हैं। इसके प्रवेश द्वार पर बनीं कलाकृतियां मध्य प्रदेश के खजुराहो में बने मंदिरों से काफी हद तक मिलती-जुलती हैं।
मंदिर की दीवारों में की गई नक्काशियां सिन्धु घाटी सभ्यता में मिली पत्थर की मूर्तियों व नक्काशियों से मिलती है। गजेटियर से प्राप्त कुछ जानकारियों के अनुसार सोमवंशी क्षत्रिय घराने के राजा के द्वारा 11वीं शताब्दी में इस मंदिर का निर्माण करवाया गया था।
मंदिर की प्राचीनता का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि इसकी दिवारों पर की गई नक्काशियां सिंधू घाटी सभ्यता से प्राप्त पत्थर की मूर्तियों और नक्काशियों से हूबहू मिलती-जुलती हुई सी लगती हैं।
इस अष्टभुजा धाम मंदिर मंदिर की एक विशेषता यह भी है कि यह चार दिवारी के घीरे एक खुले प्रांगण के मध्य में बना हुआ है। पुरातत्वविद मानते हैं कि इस प्रकार के मंदिर सिंधु घाटी सभ्यता में पाये गये हैं।
इस मंदिर के गर्भगृह के प्रवेश द्वार पर प्राचीन काल का एक ऐसा शिलालेख लगा हुआ है जिसे अभी तक कोई भी पढ़ नहीं पाया है। यह शिलालेख किस भाषा में है और यहां कब से है, या फिर, यहां कैसे आया इस बारे में भी कोई निश्चित जानकारी उपलब्ध नहीं है।
सन 2007 में दिल्ली से आये कुछ पुरातत्वविदों ने ही इस मंदिर की वर्तमान संरचना का निर्माण काल 11वीं शताब्दी का बताया है।
इस मंदिर के बारे में मान्यता है कि यहां मन मांगी मुरादे पूरी हो जाती हैं। जो श्रद्धालु इस अष्टभुजा धाम मंदिर के महत्व को जानते या सूनते हैं, वे दूर-दूर से यहां अपनी मुरादें लेकर आते हैं। और जब उनकी मुरादें पूरी हो जाती हैं तो वे दौबारा आते हैं और मंदिर में विशेष पूजा-अर्चना के साथ-साथ चढ़ावा भी चढ़ाते हैं।