वर्तमान समय में जिस प्रकार बीमारियां बढ़ रही हैं और उनका नामकरण हो रहा है, उससे तो यही लगता है कि भविष्य में लोगों का अधिकांश समय इलाज के लिए भाग-दौड़ में ही बीतेगा और तनाव तो जो मिलेगा उसके बारे में क्या कहना? एलौपैथ का विकास तो बहुत हुआ है किन्तु स्थायी रूप से सभी बीमारियों का इलाज संभव नहीं हो पाया है इसलिए एलोपैथ के साथ-साथ चिकित्सा की सभी पद्धतियों का विकास समान रूप से होना चाहिए।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि जब स्वास्थ्य क्षेत्र व्यापक रूप से व्यवसाय का रूप ले ले और सेवाभाव का निरंतर हरास हो रहा हो। तमाम मामलों में सिर्फ पैसे कमाने के लिए बेवजह के इलाज किये जा रहे हों, ऐसे में यह आवश्यक हो जाता है कि शिक्षा के साथ-साथ बच्चों को प्राकृतिक चिकित्सा, परंपरागत चिकित्सा या यूं कहा जा सकता है कि जड़ी-बूटियों से होने वाले सामान्य इलाज की जानकारी दी जानी चाहिए क्योंकि इलाज के नाम पर कौन कहां लूट लिया जायेगा, कितनों के जमीन-जायदाद और घर-मकान बिक जायेंगे, कुछ कहा नहीं जा सकता है। हालांकि, मेरा यह कहने का भाव बिल्कुल भी नहीं है कि चिकित्सा के क्षेत्र में सेवाभाव के लोग नहीं हैं। सेवाभाव वाले लोग निश्चित रूप से हैं किन्तु उनकी तादाद निहायत ही कम है।
कुछ वर्षों पूर्व लोग ग्रामीण भारत में लकड़ी काटने जाते थे तो कुल्हाड़ी से पैर एवं अंगुलियों में चोट लग जाती थी किन्तु टेटनेस का टीका लगवाने किसी डाॅक्टर के पास नहीं जाते थे, किसी न किसी जड़ी-बूटी का रस निकालकर चोट पर लगा देते थे और खून निकलना बंद हो जाता था। कान में दर्द होता था तो किसी जड़ी-बूटी का अर्क डाल दिया जाता था तो कान का दर्द बंद हो जाता था किन्तु आज दांत दर्द हो जाये तो उसके लिए बेहद हार्ड दवाइयां भी खानी पड़ जाती हैं।
दाल-बाटी-चूरमा का इतिहास और वर्तमान | History of Dal-Bati-Churma
कुल मिलाकर मेरे कहने का आशय यही है कि हमारी परंपरागत चिकित्सा प्रणाली में सस्ता एवं सुलभ इलाज सभी बीमारियों का है। आवश्यकता सिर्फ इस बात की है कि उन जड़ी-बूटियों एवं उनसे होने वाले इलाज की सामान्य जानकारी देने का काम किसी भी कीमत पर होना चाहिए। कोरोना काल में यह बात बहुत ही शिद्दत से महसूस की गई कि छोटी-छोटी बीमारियों का इलाज घर पर ही हो जाना चाहिए, इससे अस्पतालों में जाने वाले मरीजों का लोड भी कम होगा।
गंभीर बीमारियों में कभी-कभी देखने में मिलता है कि महंगे इलाज एवं दवाओं की बदौलत व्यक्ति बच तो जाता है किन्तु जीवन भर दवाओं पर निर्भर रहकर जिंदा लाश बन जाता है। किसी काम के योग्य नहीं रह जाता है किन्तु परंपरागत चिकित्सा प्रणाली में अधिकांश बीमारियों का स्थायी इलाज संभव है। ऐसी परिस्थितियों में आज आवश्यकता इस बात की है कि बचपन से ही बच्चों को परंपरागत चिकित्सा एवं जड़ी-बूटियों की जानकारी शिक्षा के कोर्स में शामिल कर जितनी अधिक दे दी जायेगी, उतना ही देश, स्वस्थ, सुखी एवं खुशहाल होगा, अन्यथा इलाज के नाम पर बर्बादी का भीषण दौर सदा के लिए देखने को मिलता रहेग। युवा पीढ़ी इन विषयों को जाने और समझे, इसकी जिम्मेदारी सभी को निभानी होगी।
– जगदम्बा सिंह