आज पूरे विश्व में विकास की रफ्तार बहुत तेज है, लोग चांद एवं मंगल पर घर बसाने का सपना देखने लगे हैं। अत्यधिक सुख-सुविधाओं एवं ऐशो-आराम की जिंदगी के लिए तेज रफ्तार से भागे जा रहे हैं किंतु इतने सारे विकास के आयाम स्थापित करने के बाद भी अधिकांश लोग बेचैनी के शिकार हैं। ऐसे लोगों को लगता है कि वर्तमान में उनका जो रुतबा है, कहीं वह फिसल न जाये। इस बात को सोचकर हताशा एवं निराशा उनका पीछा छोड़ने के लिए तैयार ही नहीं है।
एक बार यदि कोई बीमारी आ गई तो वह जाने का नाम ही नहीं ले रही है। यदि किसी प्रकार बीमारी जाना भी चाहती है तो कुछ लोग स्वार्थ के वशीभूत होकर बीमारियों को स्थायी रूप से रोके रखना चाहते हैं। मेडिकल क्षेत्र बहुत आगे निकल चुका है किन्तु बीपी एवं शुगर जैसी बीमारियों का भी इलाज स्थायी रूप से ढूंढ़ा नहीं जा सका है। अंग्रेजी दवाओं के साइड इफेक्ट को जाने बगैर दवा खाते रहो, बीपी-शुगर चेक कराते रहो और चलते रहो। कुछ इसी प्रकार का वातावरण बना हुआ है। ऐसी स्थिति में अब प्रश्न यह उठता है कि आखिर इन समस्याओं का समाधान क्या है?
समाधान की बात की जाये तो ले-देकर हमारे पास एक ही विकल्प बचता है कि अपनी सनातन संस्कृति, ग्रामीण जीवनशैली एवं कृषि प्रधान समाज की स्थापना। इसी की बदौलत भारत पूरी दुनिया का गुरु यानी विश्व गुरु रह चुका है और भारत को यदि सोने की चिड़िया कहा जाता था तो कुछ तो कारण रहे होंगे? भारत सोने की चिड़िया था, तभी तो भारत को लूटने के लिए लोग बाहर से आये और वर्षों भारत गुलाम रहा किन्तु भारतीयों का जब स्वाभिमान एवं आत्म-सम्मान जागा तो उन्होंने गुलामी की बेड़ियों को तोड़ डाला।
आजादी के बाद भारत विकास की दिशा में बेहद तेजी से आगे बढ़ा है किन्तु क्या इस विकास से भारत पुनः विश्व गुरु का दर्जा हासिल कर सकता है और फिर से सोने की चिड़िया बन सकता है? यदि इस बात का विश्लेषण किया जाये तो ऐसे विकास से भारत न तो विश्व गुरु बन सकता है और न ही सोने की चिड़िया बन सकता है। विश्व गुरु बनने के लिए सबसे जरूरी बात यह है कि लोग अपने विचार, आचरण एवं व्यवहार में संतुष्ट दिखें। जाहिर सी बात है कि लोग जब संतुष्ट हो जायेंगे तो उनकी तमाम समस्याओं का समाधान स्वतः हो जायेगा और वे धीरे-धीरे प्रगति के पथ पर आगे बढ़ते जायेंगे।
इन सभी परिस्थितियों में बिना किसी संकोच एवं लाग-लपेट के यह कहा जा सकता है कि यदि भारत को पुनः विश्व गुरु एवं सोने की चिड़िया बनना है तो देश को कृषि प्रधान देश बनाना ही होगा। देश को कृषि प्रधान बनाने का सीधा सा आशय है कि सुबह से शाम तक व्यक्ति की जीवनशैली ऐसी होगी जिसमें बीमारियों को ठीक करने की बजाय यह सोच विकसित होगी कि बीमारियां हों ही नहीं यानी अधिक से अधिक इस बात का प्रयास होगा कि बीमारियों को होने ही न दिया जाये।
किस समय एवं किस मौसम में क्या बोया जाए, क्या खाया जाये और किसका परहेज किया जाये? इन सबकी जानकारी यदि किसी को हो जाये तो तमाम समस्याओं का समाधान इसी बात से हो जायेगा। ग्रामीण जीवनशैली की सबसे खासियत यह है कि सुबह से रात्रि विश्राम तक दिनचर्या के जो भी तौर-तरीके जितने आध्यात्मिक एवं धार्मिक हैं, उससे अधिक वैज्ञानिक भी हैं। इसी जीवनशैली को अपनाकर हम सभी को स्वस्थ रहना होगा और स्वस्थ रहने के लिए निरंतर योग भी करते रहना होगा।
बहरहाल, जब हम कृषि प्रधान देश की बात करते हैं तो उसमें मात्र कृषि ही नहीं आती है बल्कि कृषि प्रधान देश बनाने के लिए पूरी मानसिकता पर भी विचार करना होगा। उसमें यह भी आता है कि देश को कृषि प्रधान क्यों बनाया जाये? विश्व प्रसिद्ध इतिहास लेखक एंगस मेडिसिन ने अपनी पुस्तक ‘विश्व का आर्थिक इतिहासः एक सहस्त्राब्दीगत दृष्टिपात’ में स्पष्ट रूप से लिखा है कि भारत एक से सन पंद्रह सौ तक विश्व का सबसे धनी देश रहा है। एडिसन ने यह भी लिखा है कि इस दौर में वैश्विक अर्थव्यवस्था में भारत का हिस्सा 34 से 40 प्रतिशत रहा है। यह बात प्रमाणित करने के लिए काफी है कि उस समय अपना देश कृषि प्रधान रहा है तभी भारत इतना संपन्न रहा है।
देश पुनः कृषि प्रधान बने, इसके लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केन्द्र सरकार ने बहुत ही व्यापक स्तर पर इस बात की पहल भी की है। प्रधानमंत्री ने गुजरात में एक कार्यक्रम में पंचायतों से आह्वान किया कि वे कम से कम एक गांव को प्राकृतिक खेती के लिए अवश्य तैयार करें। प्रधानमंत्री जी ने यह भी कहा कि खेती को रसायन की प्रयोगशाला से निकाल कर प्रकृति की प्रयोगशाला से जोड़ने का समय आ गया है।
देश को कृषि प्रधान बनाने के लिए सबसे पहले आवश्यकता इस बात की है कि रासायनिक खादों से दूरी बना कर आर्गेनिक खेती के लिए अधिक से अधिक प्रोत्सहित किया जाये। इसमें कोई दो राय नहीं है कि रासायनिक खादों के प्रयोग से उत्पादन बढ़ा तो है किन्तु यह भी अपने आप में सत्य है कि रासायनिक खादों के प्रयोग से बीमारियां भी बढ़ी हैं और इसका दुष्प्रभाव बहुत व्यापक स्तर पर देखने को मिला है। रायायनिक खादों के निरंतर प्रयोग से भूमि के हर तीन-चार साल बाद ऊसर एवं बंजर हो जाने की संभावना बनी रहती है। इसके साथ ही सूखे जैसे हालात उत्पन्न होने की भी आशंका बनी रहती है।
सड़कें, पुल, रेलवे लाइन, अस्पताल, स्कूल, स्टेडियम एवं अन्य विकास कार्यों के लिए बहुत ही बड़े पैमाने पर जमीन का अधिग्रहण पहले भी हुआ है और आज भी हो रहा है, इससे कृषि योग्य भूमि निरंतर कम होती जा रही है। ऐसे में एक चुनौती बहुत बड़ी यह है कि कम कृषि योग्य भूमि में अधिक उत्पादन कैसे किया जाये? कृषि योग्य भूमि बहुत कम न हो, इसके लिए आवश्यकता इस बात की है कि विकास कार्यों को वहां ज्यादा तरजीह दी जाये, जहां की भूमि अभी कृषि योग्य नहीं है। इसके साथ ही इस बात पर ध्यान दिये जाने की आवश्यकता है कि बंजर एवं ऊसर भूमि को अधिक से अधिक कृषि योग्य बनाया जाये।
जिनकी कूटनीति, दूरदर्शिताएवं आर्थिक प्रबंधन का पूरी दुनिया ने लोहा माना…
वैसे यदि विश्लेषण किया जाये और थोड़ा सा भी प्रकृति एवं अध्यात्म की तरफ आया जाये तो अपने आप स्पष्ट हो जाता है कि प्रकृति ने मानव के लिए सब कुछ मुफ्त में बनाया है और उसका उपयोग कैसे किया जाय, यह भी तय किया है? किस मौसम में हम कैसे रहें, हमारी दिनचर्या कैसी हो और क्या खायें, आदि इन बातों की जानकारी हमें हो जाये तो कोरोना नामक बीमारी से डरने एवं लाखों रुपये लगाने के बावजूद ईश्वर के पास जाने की नौबत ही नहीं आयेगी।
वैसे तो ईश्वर ने सबकी सांसें तय कर रखी है कि किसको कितने दिन तक रहना है किन्तु इतनी तो राहत मिलेगी कि बीमारियों के खौफ के साये में तो नहीं जीना पड़ेगा। इसके लिए देश को कृषि प्रधान बनना ही होगा। सनातन जीवन शैली या यूं कहें कि ग्रामीण जीवनशैली को अपनाना ही होगा। जब हम कृषि प्रधान देश की बात करते हैं तो उसमें इस बात का ध्यान देना आवश्यक है कि इसका दायरा बहुत व्यापक है यानी इसके अंतर्गत धर्म, अध्यात्म, प्रकृति, योग, प्राकृतिक जीवनशैली, योग, सनातन संस्कृति, पशु-पक्षी, जीव-जन्तु, नदी-पहाड़, जड़ी-बूटी, रीति-रिवाज, संस्कार, गुरुकुल शिक्षा प्रणाली, ग्रामीण शासन व्यवस्था से लेकर बहुत कुछ शामिल है यानी इसे बहुत व्यापक स्तर पर देखने की आवश्यकता है।
भारत कृषि प्रधान देश तभी होगा जब पशुपालन को बढ़ावा मिलेगा, आर्गेनिक खाद बनाने के तौर-तरीके प्राकृतिक एवं सर्वसुलभ होंगे। शासन-प्रशासन का बहुत अधिक हस्तक्षेप नहीं होगा। पर्यावरण को शुद्ध रखने एवं प्रदूषण को रोकने के लिए जंगलों को समृद्ध करना होगा। नदियों का प्रवाह व्यापक रूप से होता रहे, इसकी व्यवस्था करनी होगी। कुल मिलाकर कहने का आशय यही है कि मानव जीवन जितना अधिक प्रकृति के करीब हो, उसका रहन-सहन जितना अधिक प्राकृतिक होगा, देश उतना ही कृषि प्रधान बनने की दिशा में अग्रसर होगा।
जैसे-जैसे परिवार बढ़ रहे हैं और बंटवारे के बाद खेत छोटे होते जा रहे हैं, ऐसे में यह बहुत आवश्यक हो जाता है कि बैलों से खेती को प्रोत्साहन दिया जाये। इसके लिए सरकारी स्तर पर बहुत कुछ किये जाने की आवश्यकता है। ‘संतोषं परमं् सुखम्’ का भाव कृषि प्रधान समाज या यूं कहें कि प्रकृति की गोद में ही आकर हो सकता है। प्रकृति के लिए, प्रकृति के साथ, प्राकृतिक तौर-तरीकों को ही अपनाना होगा। बिना विलंब किये हमें इस दिशा में अति शीघ्र बढ़ना चाहिए। फाइव स्टार होटलों एवं आलीशान महलों में रहकर कृषि प्रधान देश एवं समाज की कल्पना तो की जा सकती है किन्तु वास्तव में उसका एहसास करने एवं अन्य लोगों को कराने के लिए प्रकृति के करीब आकर प्राकृतिक जीवन को आत्मसात करना ही होगा।
कर खर्चों पर हो मात्र आटे में नमक बराबर, न कि आय पर कर…
हमारे ऋषि, मुनियों एवं पूर्वजों ने यदि देश एवं समाज को कृषि प्रधान बनाया था तो यूं ही नहीं बनाया होगा, इसके लिए बहुत सोच-विचार किया होगा, बहुत सोच-विचार कर यह निर्णय लिया होगा कि हमें कैसी जीवनशैली अपनानी है और कैसा समाज बनाना है? यदि उन्होंने परिवार, समूह, गांव, क्षेत्र पंचायत, ब्लाॅक, तहसील, जिला, प्रदेश और फिर देश का क्रमशः विकास किया है तो उसके बहुत ही गूढ़ रहस्य होंगे। पहले यह माना जाता था कि गांव की आवश्यकताओं की पूर्ति गांव में ही हो जाये और उसके बाद जो कुछ बचे या किसी समस्या का समाधान न हो पाये तो ब्लाॅक, उसके बाद तहसील, जिला, प्रदेश और क्रमशः राष्ट्र तक आया जाये।
ऐसी परिकल्पना में यह आसानी से समझा जा सकता है कि गांव अपनी बदौलत कितना आत्मनिर्भर रहे होंगे। उस समय गांववासियों के मन में यह भाव बिल्कुल भी नहीं रहा होगा कि वोट के लिए चुनाव के समय हमें कोई प्रलोभन देने आयेगा या हमें ऐसे समय का इंतजार करना चाहिए। वैसे भी गुलामी के दौर में तो यह बात सोची भी नहीं जा सकती थी कि इस प्रकार की मदद गांव वालों को देने कोई आयेगा भी। उस दौर में लोग अभाव में भी संतुष्ट, सुखी एवं प्रसन्न रहते थे।
आवश्यकताओं की पूर्ति एवं समस्याओं का समाधान क्रमशः गांव से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक होता जाता था। इस पूरे सिस्टम में लगे लोग ईमानदारी एवं निष्ठा से अपनी भूमिका का निर्वाह करते थे। आचरण एवं व्यवहार में ईमानदारी थी। जिसके विचार, आचरण एवं व्यवहार में रंच मात्र भी बेईमानी देखी एवं पाई जाती थी, उसका सामाजिक रूप से बहिष्कार कर दिया जाता था। उस दौर में लोग सामाजिक बहिष्कार को बहुत बड़ी सजा मानते थे और उससे बहुत घबराते एवं डरते थे किन्तु अब तो पैसे कैसे कमाए जाएं, इसी बात की चर्चा हो रही है।
प्राचीन काल से ही भारत में विश्व गुरु बनने की क्षमता विद्यमान रही है और आज भी है। आवश्यकता सिर्फ इस बात की है कि हम संकल्प लेकर अपनी प्राचीन धरोहरों को जान, पहचान और समझ कर उनका संरक्षण और संवर्धन करें। इससे न केवल मन को संतुष्टि मिलेगी अपितु मानव जाति की सुरक्षा भी सुनिश्चित होगी। पाश्चात्य संस्कृति, रहन-सहन, खान-पान, आचार-विचार आदि को हमें तिलांजलि देनी ही होगी।
कुल मिलाकर यह सब लिखने एवं कहने का आशय मेरा मात्र इतना ही है कि देश को यदि पूर्ण रूप से आत्मनिर्भर और विश्व गुरु बनने की दिशा में अग्रसर होना है तो कृषि प्रधान देश की स्थापना करनी ही होगी। कृषि प्रधान समाज बनाने के लिए उसके सभी जरूरी मानकों पर खरा उतरना होगा और इसके लिए सभी को मिलकर सम्मिलित रूप से प्रयास करना होगा। शासन-प्रशासन के स्तर से भी इस दिशा में कार्य करना होगा। इसके अलावा अन्य कोई विकल्प भी नहीं है।
– अरूण कुमार जैन (इंजीनियर) (पूर्व ट्रस्टी।श्रीराम-जन्मभूमि न्यास एवं पूर्व केन्द्रीय कार्यालय सचिव भा.ज.पा.)