अजय सिंह चौहान || दिल्ली के महरौली में स्थित कुतुब मीनार देश में ही नहीं बल्कि दुनियाभर के पर्यटकों के लिए आकर्षण का केन्द्र है। लाल पत्थर और मार्बल से बनी यह एतिहासिक इमारत एक ‘यूनेस्को वल्र्ड हेरिटेज’ साईट भी है। 120 मीटर ऊँची यह मीनार दुनिया की सबसे ऊंची और सबसे प्राचीन मिनारों में से एक है। कुछ इतिहासकारों के अनुसार दिल्ली सल्तनत के संस्थापक कुतुब-उद-दिन ऐबक ने कुतुब मीनार का निर्माण करवाया था। जबकि, सच तो ये है कि आज जिसे दुनिया कुतुब मिनार के नाम से जानती है उसका निर्माण स्वयं सम्राट विक्रमाादित्य के समय में हुआ था और इस मिनार का असली नाम ‘मेरू स्तंभ’ या ‘विष्णु ध्वज’ है जो अपने समय में खगोल विज्ञान और ज्योतिष के अध्ययन और शोध के एक बड़े केन्द्र के रूप में विख्यात था।
एक ओर जहां आम लोग यह मान बैठे हैं कि इस मिनार को कुतुब-उद-दिन ऐबक ने ही बनवाया बनवाया था वहीं, यहां आने वाला एक आम पर्यटक हो या कोई जानकार, अगर वह कुतुब मिनार परिसर के दीदार करता है तो उसे इसमें बिखरे हिंदू मंदिरों के सैकड़ों अवशेषों को देखकर एक दम यकीन हो जाता है कि यह संरचना हिंदू मंदिरों की नींव पर ही खड़ी है। इतिहास में इस बात के सैकड़ों प्रमाण भी मौजुद हैं कि कुतुब मिनार के इस परिसर में बनी अनेकों मस्जिद रूपी इमारतें जो आज खंडहरों में बदल चुकी हैं वे किसी जमाने में समृद्ध मंदिरों के रूप में खड़ीं थीं।
कुतुब मीनार, जिसके बारे में कहा जाता है कि इसको कुतुब-उद-दिन ऐबक ने बनवाया है उसको अगर बारीकी से देखा जाय तो उसमें साफ-साफ हिंदू संरचना की झलक दिख जाती है। ऐसे में हर किसी को विश्वास होना स्वाभाविक है कि यह इमारत शत प्रतिशत हिंदू संरचना ही है। जबकि मात्र इसके ऊपरी हिस्सों को ही बेवजह बनावटी मुगलशैली का रूप देने की कोशिश की गई थी। लेकिन उसमें भी उन्होंने चतुराई दिखाने की जगह सैकड़ों गलतियां कर दी और जल्दीबाजी के कारण हिंदू शैली के तमाम सबूतों को हटाने और मिटाने में कई जगहों पर भूल कर दीं।
कुतुब मिनार को कुतुब-उद-दिन ऐबक ने ही बनवाया हो इसका कोई साहित्यिक प्रमाण एबक के समकालीन इतिहास या साहित्य में कहीं भी नहीं पाया जाता है जिससे कि यह सिद्ध हो सके कि इस मिनार को कुतुब-उद-दिन ऐबक ने ही बनवाया है। एक फारसी कवि हसन निजामी ने अपनी पुस्तक ताजुल-मसिर में दिल्ली सल्तनत के पहले आधिकारिक इतिहास का विस्तार से संकलन किया है।
हसन निजामी ने अपने उस संकलन में उसने कुतुब मिनार का जिक्र तो किया है लेकिन उसके निर्माण को लेकर कहीं कोई जिक्र नहीं किया है। यानि अगर एबक ने इस मिनार का निर्माण करवाया होता तो वह इसका उल्लेख अपनी किताब में जरूर करता। जबकि उसने अपनी किताब में इस बात का जिक्र जरूर किया है कि दिल्ली में 26-27 मंदिरों को तोड़ कर जामे मस्जिद बनवाया गया। यानि अगर कोई इतनी बड़ी और खास इमारत का निर्माण करवा रहा हो तो उसका जिक्र न हो ऐसा कैसे संभव है।
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महमूद गजनी और मोहम्मद गौरी के इतिहास के बारे में लिखने वाले इतिहासकारों ने भी एबक द्वारा कुतुब मिनार के निर्माण कराए जाने का जिक्र नहीं किया है। अलाउद्दीन खिलजी के समकालीन अमीर खूसरो ने अपनी पुस्तक ‘तहरिक ए अलाई’ में इस बात का उल्लेख जरूर किया है कि अलाउद्दीन खिलजी ने कुतुब मिनार के पास ही में एक दूसरा मिनार बनवाने का प्रयास किया था। खिलजी उस मिनार को इतनी ऊंचाई वाला बनवाना चाहता था कि उससे ऊंची कोई दूसरी मिनार नहीं बनवाई जा सके। अमीर खूसरो ने अपनी इस पुस्तक में कुतुब मिनार को जिक्र तो किया है लेकिन, एबक द्वारा इस कुतुब मिनार को बनवाये जाने का जिर्क कहीं भी नहीं किया।
अलग-अलग पृष्ठभूमि के इतने इतिहासकार अगर मोहम्मद गौरी, कुतुबुद्दिन एबक और अलाउद्दीन खिलजी के इतिहास के बारे में लिखते हैं और कुतुब मिनार के निर्माण के बारे में कुछ भी नहीं लिखते हैं तो यह तो बड़े आश्चर्य की बात है।
कुतुब परिसर में बनी मस्जिद के हर स्तंभ, दिवार और अन्य अनेकों जगहों पर बनी नक्काशियां, प्रतिमाएं, तोरण, खंभों और अन्य अनेक कलात्मक कार्य इस बात को स्पष्ट रूप से प्रदर्शित करते हैं कि यह किसी अद्भूत और समृद्ध मंदिरों के अंग रहे हैं जिनको बड़ी ही निर्दयता से आक्रमणकारियों ने तोड़ डाला। यहां खड़े पिलर आज भी साफ दर्शाते हैं कि वे 9वीं या 10वीं शताब्दी से भी पहले के बने हुए हैं।
‘रिहला’ नाम पुस्तक के लेखक इब्न बतुता ने भी इस बात का विस्तार से वर्णन किया है कि दिल्ली को फतह करने के बाद मंदिरों के एक समूह को तोड़कर उन्हें ‘कुव्वतुल इस्लाम मस्जिद’ में बदल दिया गया। इसके अलावा, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के संस्थापक और भारत-पाकिस्तान विभाजन की थ्योरी देने वाले सर सैयद अहमद खान ने भी अपनी एक पुस्तक ‘अतहर असनादीद’ में कुतुब मिनार के इस परिसर में बने प्राचीन मंदिरों को तोड़कर मस्जिद बनाने की बात का साफ-साफ उल्लेख किया है।
सबसे बड़े प्रमाण के तौर पर मस्जिद के पूर्वी द्वार पर लगे खुद भारतीय पुरातत्व के शिलापट्ट में भी इस बात को स्पष्ट रूप से बताया गया है कि इस मस्जिद का निर्माण 27 मंदिरों को तोड़ कर किया गया।
इतिहासकार जाॅन एल. एस्पोसिटो ने भी अपनी एक पुस्तक ‘द आक्सफोर्ड हिस्ट्री आफ इस्लाम’ में लिखा है कि कुवतुल इस्लाम मस्जिद 1191 में बनना शुरू हुई थी, जिसका निर्माण हिंदू मंदिरों को ध्वस्त कर उनकी आधी-अधुरी इमारतों को ही नया रूप दे कर मस्जिद का निर्माण किया गया। मस्जिद बनाने में प्रयोग की गई अधिकतर सामग्री में भी उन्हीं मंदिरों के मलबे का प्रयोग किया गया है। जाॅन एल. एस्पोसिटो ने यह भी लिखा है कि मंदिर परिसर 400 ईसा पूर्व निर्मित है और यहां विष्णु को समर्पित एक विशाल लौह स्तंभ भी है।
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एक अन्य इतिहासकार देवेंद्र स्वरूप के अनुसार, कुतुबमिनार आज जिस क्षेत्र में स्थित है वह क्षेत्र मुगलकाल से पहले हिंदू सत्ता का केन्द्र हुआ करता था। 1974 में सहारनपुर से प्रकाशित ‘वराहमिहिर स्मृति ग्रन्थ’ के संपादक केदारनाथ प्रभाकर के अनुसार ‘मेरू स्तंभ’ या ‘विष्णु ध्वज’ को ही कुतुब मिनार के नाम से जाना जाता है। और इस मेरू ध्वज की संरचना श्रीमद्भागवत पुराण में वर्णित मेरू पर्वत से मिलती है। पुराण के अनुसार मेरू की ऊंचाई पृथ्वी से ऊपर 84 हजार योजन और पृथ्वी के भतीर 16 हजार योजन है। दोनों को मिलाने पर एक लाख योजन बनता है। इसके निचले हिस्से का परिमाप भी 16 हजार योजन है।
यहां बनी एक मस्जिद की बाहरी दिवार पर आज भी गणेश जी की एक प्रतिमा स्थापित है। इस परिसर में मौजूद लौह स्तंभ पर भी राजा चंद्रगुप्त द्वितीय के पराक्रम एवं शौर्य की गाथा साफ-साफ अंकित है। कुव्वतुल इस्लाम मस्जिद कहे जाने वाली इमारत की दिवारों पर बने हुए भित्ती चित्र, प्रतिमाएं और स्तंभों पर बने हुए हिंदू धर्म के विभिन्न अलंकरण इसके मंदिर होने का साक्षात प्रमाण है।
भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण के पहले महा निदेशक अलेक्जैंडर कन्निघम के सहयोगी जेडी बेगलर ने भी सन 1871-72 में अपनी रिपोर्ट में इस मिनार को हिंदू धर्म से जुड़ी हुई इमारत माना और कहा कि मस्जिद वाले स्थान पर एक विशाल मंदिर के अस्तित्व होने की पूरी संभावना है। लेकिन, न जाने ऐसा क्या हुआ कि उस रिपोर्ट को अलेक्जैंडर कन्निघम ने अस्वीकार कर दिया और इसे एक इस्लामी इमारत मान बैठा।