अजय सिंह चौहान | आज अगर हम बात करें कि आजादी से पहले या फिर भारत देश में मुगलों के आने से पहले के सननातन धर्म को मानने वाले उस अखण्ड भारत की और उसके उस समय के तीर्थ स्थलों और धार्मिक स्थलों की तो सवाल यह उठता है कि उस समय का अखण्ड भारत तो बहुत ही बड़ा और विस्तृत आकार और क्षेत्रफल वाला हुआ करता था। तो फिर उस समय के तीर्थ स्थल भी बहुत सारे रह होंगे?
जी हां हम बात कर रहे हैं उसी भारतवर्ष की जो 18वीं शताब्दी तक भी अखण्ड भारत ही हुआ करता था। लेकिन, उसके बाद से तो यह कई हिस्सों में बंटता चला गया और अब उसमें से कम से कम 15 छोटे-बड़े देश बन गये और स्वतंत्र होते-होते अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बलूचिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, तिब्बत, भूटान, बर्मा, मलेशिया, जावा, इंडोनेशिया, कंबोडिया, वियतनाम, सुमात्रा, मालदीव और अन्य कई छोटे-बड़े देश अस्तित्व में आ गये। हालांकि अखण्ड भारत के उन सभी क्षेत्रों के राजा अलग-अलग हुआ करते थे।
तो फिर उस दौर में सनातन धर्म से संबंधित तीर्थ स्थान भी असंख्य और अनगिनत रहे ही होंगे। क्योंकि सनातन संस्कृति में उत्सवों और धार्मिक स्थलों की कभी भी कोई कमी ना तो थी और ना अब है।
लेकिन, यहां सबसे बड़ा सवाल यह उठता है कि क्या हजारों वर्ष पूर्व भी आज ही की तरह ही मात्र यही कुछ प्रमुख स्थान रहे होंगे जो कि आज के भारतवर्ष के एक छोटे से नक्शे में सिमट कर रह गये हैं या फिर अखण्ड भारत के उस नक्शे पर भी दूर-दूर तक चारों दिशाओं में ऐसे ही अनगिनत तीर्थ स्थल फैले हुए थे।
दरअसल, जिस प्रकार से आज भी हर किसी मुहल्ले में या शहर में एक न एक मंदिर या अन्य प्रकार के धार्मिक स्थान बने होते हैं उसी प्रकार से उस दौर में भी हुआ करते थे। लेकिन इतना जरूर है कि कुछ ऐसे तीर्थ या प्रसिद्ध स्थान हैं जो ना तो उस समय हर जगह होते थे और ना ही आज भी हैं। जैसे कि भगवान राम का जन्म स्थान अगर अयोध्या में है तो वह अफगानिस्तान में या थाइलैंड में नहीं हो सकता थ। उसी तरह उज्जैन का महाकालेश्वर ज्योतिर्लिं मंदिर तिब्बत में नहीं हो सकता, या फिर हिंगलाज माता का शक्तिपीठ मंदिर अगर बलूचिस्तान में है तो वह नेपाल में नहीं हो सकता।
लेकिन, यहां एक महत्वपूर्ण बात और देखने को मिलती है कि आज के भारत में लगभग वे सारे ही तीर्थ मौजूद हैं जो हजारों और लाखों वर्षों से हमारी संस्कृति के लिए महत्वपूर्ण माने जाते रहे हैं। तो ऐसा क्या कारण है कि ऐसे कुछ बड़े और पवित्र तीर्थ स्थल उन खंडित प्रदेशों या देशों में नहीं है? आखिर वे भी तो भारत का ही हिस्सा हुआ करता थे।
तो ऐसे में सबसे महत्वपूर्ण बात यह आती है कि सनातन धर्म से संबंधित लगभग जितनी भी महत्वूर्ण ऐतिहासिक धटनायें प्राचिनकाल में घटित हुई थीं संभवतः वे सभी की सभी इसी क्षेत्र या भू-भाग में हुई थी। जैसे कि हिमालय पर्वत पर भगवान शिव का वास, अयोध्या में भगवान राम का जन्म, कृष्ण की कर्मभूमि, महाभारत का युद्ध, पवित्र नदियों की उत्पत्ति, द्वारका नगरी, बद्रीनाथ जी का धाम और इसी प्रकार के अनगिनत धार्मिक और ऐतिहासिक महत्व के घटनाक्रमों को माना जा सकता है।
हालांकि, इसी तरह के धार्मिक महत्व के कई पवित्र स्थान उन खण्डित प्रदेशों में भी हुए हैं। लेकिन, समय और ऐतिहासिक घटनाक्रमों के अनुसार उनका अस्तित्व भौगोलिक, धार्मिक और मानव सभ्यता और संस्कृति के अनुसार परिवर्तित हो चुका है।
हमारा दूर्भाग्य यह रहा है कि आज से लगभग 300 वर्ष पूर्व से जो काल्पनिक इतिहास लेखन का दौर शुरू हुआ था उसमें ऐसे महत्वपूर्ण और विशेष स्थानों और पौराणिक एवं ऐतिहासिक घटनाओं को षडयंत्रकारी इतिहासकारों ने नकार दिया और इतिहास के पन्नों से हटा दिया, जिसके कारण आज वे स्थान हमारी जानकारी से लगभग बाहर हो चुके हैं।
हालांकि, आज भी उनमें से कई स्थानों के कुछ प्रमाण हमारे प्राचिन गं्रथों और इतिहास की किताबों में मौजूद हैं। और अगर उन प्रमाणों की जानकारी जुटाई जाये तो उसके लिए हमें उन विदेशी यात्रियों के यात्रा वृतांतों को पढ़ना पड़ेगा जिन्होंने आज से 500 या 1000 साल पहले भारत की यात्रा की थी। जबकि सही मायने में कहा जाय तो सन 1947 की आजादी के बाद तो भारत में उपलब्ध उस प्राचिनतम इतिहास को यानी उन यात्रियों द्वारा लिखे गये यात्रा वृतांतों को या उस इतिहास को इतिहास को लगभग समाप्त ही कर दिया गया और चाटूकार इतिहासकारों ने उस इतिहास की जगह अपना ही एक काल्पनिक इतिहास लिख दिया। यह नया इतिहास इतिहास कम और वामपंथियों की जीवनियां ज्यादा लग रहा है। यानी इसमें कुछ लोगों की जीवनी को ही इतिहास बनाकर भारत में पेश कर दिया गया, जिसका परिणाम आज भातर को भुगतना पड़ रहा है।
लेकिन, यहां इसे हम एक चमत्कार कहें या फिर हमारा भाग्य कि पौराणिक और धार्मिक महत्व की शत-प्रतिशत प्रकार की घटनाएं इसी भूभाग पर घटित हुई थीं। हालांकि उस दौर में भी इन घटनाओं या इन घटनाओं का असर या प्रभाव अखण्ड भारत के दूर-दराज के क्षेत्रों तक देखा जाता था। और इस बात के प्रमाण हमारे विभिन्न पुराणों में मिलते भी हैं। लेकिन, अब वे सभी समय के साथ-साथ विकसित मानव सभ्यता और आधुनिक संस्कृति की भेंट चढ़ चुके हैं और लगभग नष्ट हो चुके हैं। और कल तक जो क्षेत्रफल हमारे अखण्ड भारत का भाग हुआ करता था आज उसमें से अधिकतर पर मुस्लिमों ने कब्जा कर लिया है औ शेष भाग में बोद्ध धर्म का शासन चल रहा है।
यहां गौर करने वाली बात यह है कि आज भी उस अखण्ड भारत के कइ भाग ऐसे हैं जहां पौराणिक ओर प्राचीनकाल के धार्मिक स्थान और तीर्थ स्थान या उनके अवशेष प्राप्त हो ही जाते हैं। उसी तरह हमें अखण्ड भारत के समय के जिन प्रमुख तीर्थों की हमें जानकारी मिलती है उनमें सबसे प्रमुख नाम आता है दक्षिण-पूर्व एशिया के कम्बोडिया में स्थित अंकोरवाट मंदिर का। यह तीर्थ वर्तमान में भारत की राजधानी दिल्ली से बहुत दूर, यानी लगभग 4,800 किलोमीटर दक्षिण-पूर्वी एशिया में है। यह संरचना भगवान विष्णु का मंदिर है जो आज भी दुनिया के लिए आकर्षण का केन्द्र है। मात्र यही नहीं, बल्कि इससे भी बहुत पहले यहां के शासकों ने यहाँ कई सारे बड़े-बड़े शिव मंदिरों का निर्माण करवाया था। पुराणों में इस स्थान को यशोधपुर तीर्थ स्थल के नाम से जाना जाता है। इन मंदिरों का निर्माण राजा सूर्यवर्मन द्वितीय के शासन काल में आज से 870 वर्ष पहले हुआ था।
इसके अलावा दक्षिण-पूर्व एशिया के इसी कम्बोडिया और इसके पड़ोसी ‘थाईलैंड में भी, जो अखण्ड भारत के राज्य हुआ करते थे उनके बीच एक अति प्राचीन महत्व का शिव मंदिर विवाद का कारण बना हुआ है। दरअसल, कंबोडिया के जिस क्षेत्र में यह मंदिर बना हुआ है उस प्रांत थाईलैंड भी यही दावा करता है कि यह उसका प्राचिन मंदिर है। एक पहाड़ी पर स्थित 11वीं शताब्दी में बने इस मंदिर में सनातन संस्कृति से संबंधित अनेक वास्तु शैलियों का साक्षात प्रभाव देखा जा सकता है।
इसके अलावा दूसरा जो सबसे खास और चर्चित नाम आता है उसमें अति प्राचिन गुफा मंदिरों में से एक हिंगलाज माता का शक्तिपीठ मंदिर है। यह शक्तिपीठ मंदिर पाकिस्तान के कब्जे वाले बलूचिस्तान प्रान्त की हिंगोल नदी के किनारे की पहाडियों में स्थित है। सन 1947 से पहले तक भी देश के कोने-कोने से श्रद्धालु यहां दर्शन करने जाया करते थे। इस शक्तिपीठ के बारे में ब्रह्मवैवर्त पुराण में कहा गया है कि जो कोई भी अगर एक बार माता हिंगलाज के दर्शन कर लेता है उसे पिछले जन्मों के कर्मों की सजा को नहीं भुगतना पड़ता।
इसके अलावा पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में स्थित कटासराज तीर्थ भगवान शिव का प्रमुख तीर्थ स्थल है। कटासराज तीर्थ सनातन धर्म से संबंधित ऐसा तीर्थ है जिसका उल्लेख हमारे शिव पुराण में भी प्रमुखता से मिलता है। पाकिस्तान में रहने वाले हिन्दू समुदाय के लिए यह मंदिर भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंगों के समान ही महत्व रखता है। बताया जाता है कि इन मंदिरों का निर्माण दसवीं शताब्दी में हुआ था। हालांकि यहां और भी बहुत सारे मंदिर हैं।
इसी तरह आज जिसे हम बांग्लादेश के नाम से जानते हैं, उसकी राजधानी ढाका में देवी ढाकेश्वरी का शक्तिपीठ मन्दिर स्थित है। यह ढाका का सबसे महत्वपूर्ण मन्दिर है। इस मंदिर को 12वीं शताब्दी में सेन राजवंश के राजा बल्लाल सेन ने बनवाया था। ढाकेश्वरी पीठ की गिनती भी सनातन धर्म से संबंधित 51 शक्तिपीठ मंदिरों में की जाती है।
और यदि हम अफगानिस्तान की बात करें तो यहां भी आसामाई माता का एक ऐसा मंदिर स्थापित है जो राजधानी काबुल की पहाड़ियों की सबसे ऊंची चोटी पर बना हुआ है। लोगों की मान्यता है कि मां शक्ति आसामाई रूप में अपने भक्तों को कभी भी निराश नहीं करती। इसीलिए इसे आसमाई नाम से जाना जाता है। मां के इस स्वरूप के नाम पर ही इस पहाड़ी का नाम भी आसा पहाड़ी पड़ा था। इस मंदिर में माता के अलावा कई अन्य देवताओं की प्रतिमा देखी जा सकती हैं। आसामाई का यह मंदिर अखण्ड भारत के प्रमुख और पवित्र तीर्थों में से एक हुआ करता था।
और अगर बात करें भूटान की तो यहां भी देवी वज्रवराही का एक ऐसा मंदिर जो 800 इसवी का बना हुआ माना जाता है। हालांकि अब इसको हिन्दू और बोद्ध दोनों ही धर्मों का मंदिर मान लिया गया है। लेकिन, यह मुख्य रूप से देवी वराही को समर्पित मंदिर है। भूटान के चुम्फू न्या नामक स्थान पर स्थित इस मंदिर के बारे में कहा जाता है कि इसके गर्भगृह में स्थापित देवी वराही की मूर्ति एक चमत्कारी मूर्ति है जो जमीन से लगभग एक इंच ऊंची उठी हुई है, यानी यह मूर्ति बिना सपोर्ट के हवा में ही तैर रही है।
सनातन धर्म के विद्वानों का इसमें स्पष्ट मानना है कि यह कोई चमत्कार नहीं बल्कि यह एक चुबकीय मूर्ति है और सनातन धर्म पर आधारित उस मूर्ति विज्ञान का कमाल है जिसको आधार मान कर इस मूर्ति का निर्माण किया गया था। यह कोई चमत्कार नहीं बल्कि एक मूर्ति विज्ञान है जो हमें हमारे सनातन धर्म विज्ञान की ताकत को दर्शाता। मूर्ति विज्ञान का यह अद्भूत ज्ञान हमारे यहां मुगलों के आक्रमों से पहले तक भी मौजूद था। हालांकि, वर्तमान में तो संभवतः यही एक मूर्ति शेष रह गई है और यह उसका प्रमाण साक्षात भी है कि सनातन धर्म और मूर्ति विज्ञान का आज भी आपस में कितना गहरा रिश्ता है। जबकि स्थानीय लोगों का विश्वास है कि यह मूर्ति मानव निर्मित नहीं बल्कि स्वयंभू है।
तो इस प्रकार हम यदि अन्य अनेकों प्रमाणों पर गौर करें तो हमारे सामने अनगिनत ऐसे साक्ष्य मौजूद हो जायेंगे जिनसे यह सिद्ध होता है कि प्राचीन भारत के लगभग हर भाग में सनातन संस्कृति के पूजा स्थल और अन्य प्रकार के तीर्थ अनगिनत मात्रा में मौजूद थे। लेकिन, जैसे-जैसे समय बितता गया, सनातन धर्म में विभिन्न प्रकार से आसपी भेदभाव की स्थिति उत्पन्न होती गई और अखण्ड भारत छोटे-छोटे क्षेत्रों में विभाजित होता गया और अब यह एक छोटे से नक्शे में सिमट कर रह गया है। लेकिन, हम यह बात आज भी गर्व से कह सकते हैं कि अखण्ड भारत के उस नक्शे पर भी दूर-दूर तक चारों दिशाओं में ऐसे ही अनगिनत तीर्थ स्थल फैले हुए थे। जैसे कि आज भी कश्मीर से कन्याकुमारी तक देखे जाते हैं।