देवशयनी एकादशी के दिन से देवता चार माह तक विश्राम करने चले जाते हैं। लेकिन इसका यह अर्थ यह नहीं है कि देवता सो सो जाते हैं, बल्कि इसका एक वैज्ञानिक आधार है। धर्म प्रधान समाज होने के कारण भारत में विज्ञान को भी सनातन धर्म के आधार पर ही समझाया गया है। अर्थात देववशयनी एकादशी भी विज्ञान से जुड़ा हुआ ही तथ्य है।
वास्तव में तो पंचतत्व (पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु और आकाश) में ही सम्पूर्ण देवता निहित है। वर्षा ऋतु प्रारम्भ होते ही ये पाँचों तत्व अपना स्वभाव बदल लेते हैं। इस दौरान पृथ्वी पर अनेक प्रकार की वनस्पतियां उग आती है। जगह-जगह पानी भर जाने से मार्ग अवरुद्ध हो जाते हैं। विभिन्न प्रकार के रेंगने वाले जहरीले जीव-जंतु बिलों में पानी भर जाने से सतह पर आ जाते हैं। अग्नि मन्द पड़ जाती है।
इस दौरान खुले में हवन आदि शुभ धार्मिक कार्य करना कठिन हो जाता है। वर्षा जल मिल जाने से अधिकांश पेय जल दूषित हो जाता है तथा हवा में भी लगभग चालीस प्रतिशत पानी की मात्रा हो जाती है।आकाश में बादल छाये रहने के कारण पर्याप्त धूप धरती तक नहीं पहुँच पाती। इसे हम विज्ञान की भाषा में कहें तो पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु और आकाश रूपी पाँचों प्रमुख देवता अपना स्वभाव बदल लेते हैं। जिसके कारण ऐसे समय कोई सामाजिक (विवाह आदि) अथवा मांगलिक कार्य करने में अनेक संकटों का सामना करना पड़ेगा और हमारा शरीर भी तो इन पाँच तत्वों से मिलकर ही बना है इसलिये जो प्रभाव बाहर है वही हमारे शरीर के अंदर भी उत्पन्न हो जाते हैं। यानी अगर बाहर मन्दाग्नि है तो हमारे शरीर की अग्नि जिसे हम पाचन क्षमता कहते हैं वो भी कमजोर पड़ जाती है।
हमारे पूर्वजों ने इन सब बातों का ध्यान करके देवशयनी ग्यारस से लेकर देवउठनी ग्यारस (शरद ऋतु) तक को चातुर्मास का रूप देते हुए एवं इसे देवता विश्राम काल मानते हुए लम्बी यात्राओं, सामाजिक तथा विशेष मांगलिक कार्यक्रमों पर धार्मिक रोक लगा दी। ताकि कोई अस्वस्थ न हो सके और अपने स्वस्थ का ध्यान रख सकें।
इसे हम विज्ञान माने या धर्मप्रधान जीवन शैली, लेकिन ये सच है कि जो कोई भी इस जीवन शैली को मानता है उसके लिए वर्षा ऋतु प्रारम्भ होते ही समुद्र, नदियों एवं तालाबों में मछलियाँ पकड़ने पर भी रोक लग जाती है, क्योंकि यह जलीय जीवों का प्रजनन काल रहता है।
धर्मप्रधान समाज एवं जीवन शैली के मानने वाले हमारे पूर्वजों ने मन से यह स्वीकार कर लिया था कि इस दौरान एक स्थान पर रहते हुए अपना व्यावसायिक कर्म के साथ व्यक्तिगत धार्मिक उपासना को प्राथमिकता दी जानी चाहिये। इसी लिए इस दौरान गाँव-गाँव में, मंदिरों और चौपालों पर, सावन-भादौ में रामचरित मानस या अन्य धार्मिक ग्रंथों का वाचन होता है।
भले ही आज की पश्चिमी सभ्यता और संस्कृति इसे न मानती हो लेकिन हमारे पूर्वजों ने यह साबित कर दिया की विज्ञान को आये हुए मात्र कुछ वर्ष ही हुए हैं लेकिन वे ही असली विज्ञानी थे और आज भी उनका विज्ञान सबसे आगे है।
– कार्तिकेय चौहान, इंदौर