न्यायालय में एक मुकदमा आया। ये मुकदमा बहुत ही अलग किस्म का था। मुकदमा ऐसा की सभी को झकझोर दिया।
लगभग 70 साल के एक बूढ़े व्यक्ति ने अपने 75 साल के बूढ़े भाई पर मुकदमा किया था।
मुकदमा कुछ यूं था कि ‘मेरा 75 साल का बड़ा भाई, अब बूढ़ा हो चला है, इसलिए वह खुद अपना ख्याल भी ठीक से नहीं रख पाता, मगर मेरे मना करने पर भी वह हमारी 100 साल की बूढी मां की देखभाल कर रहा है। मैं अभी ठीक हूं, चलफिर सकता हूँ, इसलिए अब मुझे मां की सेवा करने का मौका दिया जाय और मां को मुझे सौंप दिया जाय’।
न्यायाधीश महोदय का दिमाग घूम गया और मुकदमा भी चर्चा में आ गया। न्यायाधीश महोदय ने दोनों भाइयों को समझाने की कोशिश की कि आप लोग 15-15 दिनों के लिए मां को देखभाल के लिए रख लो।
मगर कोई टस से मस नहीं हुआ, बड़े भाई का कहना था कि मैं अपने स्वर्ग को खुद से दूर क्यों होने दूं। अगर मां कह दे कि उसको मेरे पास कोई परेशानी है या मैं उसकी देखभाल ठीक से नहीं करता तो अवश्य छोटे भाई को दे दो। छोटा भाई कहता कि पिछले 40 साल से अकेले ये सेवा किये जा रहा है, आखिर मैं अपना कर्तव्य कब पूरा करूँगा।
परेशान न्यायाधीश महोदय ने सभी प्रयास कर लिये, मगर कोई हल नहीं निकला। आखिर उन्होंने मां की राय जानने के लिए उनको बुलवाया और पूंछा कि वह किसके साथ रहना चाहती हैं?
मां कुल 30 किलो की बेहद कमजोर सी थीं और बड़ी मुश्किल से व्हील चेयर पर आई थीं। उन्होंने दुखी मन से कहा कि मेरे लिए दोनों संतान बराबर हैं। मैं किसी एक के पक्ष में फैसला सुनाकर, दूसरे का दिल नहीं दुखा सकती। आप न्यायाधीश हैं, निर्णय करना आपका काम है। जो आपका निर्णय होगा, मैं उसको ही मान लूंगी।
आखिर, न्यायाधीश महोदय ने भारी मन से निर्णय दिया कि न्यायालय छोटे भाई की भावनाओं से सहमत है कि बड़ा भाई वाकई बूढ़ा और कमजोर है। ऐसे में मां की सेवा की जिम्मेदारी छोटे भाई को दी जाती है।
फैसला सुनकर बड़ा भाई जोर-जोर से रोने लगा और कहा कि इस बुढ़ापे ने मेरे स्वर्ग को मुझसे छीन लिया।
अदालत में मौजूद न्यायाधीश समेत सभी रोने लगे।