हिरण्यगर्भ, एक ऐसा शब्द है जो सनातन धर्म और भारतीय विचारधारा में सृष्टि का आरंभिक स्रोत माना जाता है। इस शब्द का सर्वप्रथम उल्लेख ऋग्वेद में हुआ है। हिरण्यगर्भ का शाब्दिक अर्थ – प्रदीप्त गर्भ या अंडा अथवा उत्पत्ति-स्थान माना गया है। सामान्यतः हिरण्यगर्भ शब्द का प्रयोग जीवात्मा के लिए हुआ है जिसे ब्रह्मा जी भी कहा गया है।
इस शब्द को यदि सरल भाषा में समझे तो पता चलता है कि हिरण्यगर्भ यानी सोने के अंडे के भीतर रहने वाला। तो फिर सोने का अंडा क्या है और सोने के अंडे के भीतर रहने वाला कौन है?
ऋग्वेद के अनुसार- पूर्ण रूप से शुद्ध ज्ञान की शांतावस्था ही हिरण्य है, यानी सोने का अंडा है, और उसके अंदर निवास करने वाला चैतन्य ज्ञान ही उसका गर्भ है जिसे हिरण्यगर्भ कहते हैं।
स्वर्ण आभा को पूर्ण और शुद्ध ज्ञान का प्रतीक माना गया है जो शान्ति और आनन्द देता है, ठीक उसी तरह जैसे प्रातः कालीन सूर्य की अरुणिमा, सूर्य के उगने या जन्म का संकेत है।
ऋग्वेद के अनुसार ब्रह्म की चार अवस्थाएँ मानी जाती हैं जिसमे सबसे पहली अवस्था अव्यक्त है, यानी जिसे कहा नहीं जा सकता, बताया नहीं जा सकता। दूसरी प्राज्ञ है जिसे पूर्ण विशुद्ध ज्ञान की शांतावस्था कहा जाता है और इसे ही हिरण्य कह सकते हैं। क्षीर सागर में नाग शय्या पर लेटे श्री हरि विष्णु का चित्रण इसी के आधार पर किया गया है।
शैवों ने इसे ही शिव कहा है, और मनुष्य की सुषुप्ति भी इसका प्रतिरूप मानी जा सकती है। सुषुप्ति की अवस्था में ही ऐसे विचार उठते हैं जिन्हें दार्शनिक या वैज्ञानिक स्तर का कहा जा सके। भौतिक विज्ञानियों या वैज्ञानिकों को इसी सुषुप्ति की अवस्था में आविष्कारों की सूझती है।
तीसरी अवस्था तैजस है जो हिरण्य में जन्म लेता है इसे हिरण्यगर्भ कहा है। यहाँ ब्रह्म ईश्वर कहलाता है। इसे ही ब्रह्मा जी कहा है। मनुष्य की स्वप्नावाथा इसका प्रतिरूप है। यही मनुष्य में जीवात्मा है। यह जगत के आरम्भ में जन्म लेता है और जगत के अन्त के साथ लुप्त हो जाता है। ब्रह्म की चैथी अवस्था वैश्वानर है। सम्पूर्ण सृष्टि का निर्माण विस्तार ब्रह्म का वैश्वानर स्वरूप है। मनुष्य की जाग्रत अवस्था इसका प्रतिरूप कहा गया है।
ऋग्वेद में यह बात भी स्पष्ट रूप से कही गई है कि, इससे यह न समझें कि ब्रह्म या ईश्वर चार प्रकार का होता है। क्योंकि यहां ब्रह्म तो एक ही है लेकिन, उसकी चार अलग-अलग अवस्थाओं को बताया गया है। ब्रह्म के वही छायारूप या प्रतिरूप जैसे- जाग्रत, स्वप्न, सुसुप्ति और स्वरूप की स्थितियां मनुष्य की चार अवास्थों में भी मिलती है।
वेदान्त और दर्शन शास्त्र के ग्रंथों में हिरण्यगर्भ शब्द का प्रयोग कई बार हुआ है। इसके अलावा भी अनेक भारतीय परम्पराओं में इस शब्द का अर्थ अलग प्रकार से लगाया जाता है।
- अमृति देवी