धन की आवश्यकता हर किसी को होती है। क्योंकि धन यानी रुपये-पैसे के माध्यम से हम अपनी जरूरत की हर एक चीज का प्रबंध कर लेते हैं। इसलिए चाहे वैदिक काल हो या आज का दौर। धन की आवश्यकता और महत्व हमेशा से हर किसी के लिए महत्वपूर्ण रही है।
हमारे शास्त्रों में धन के इस्तमाल और उसके महत्व के बारे में विभिनन प्रकार के उपायों को विस्तार से बताया गया है। साथ ही साथ यह भी बताया गया है कि यदि आवश्यकता पड़ने पर कर्ज लेना पड़ जाये तो उसके लिए नियत और नियम कया होने चाहिए, ताकि, आप कर्ज लिए हुए धन का सही और आवश्यकता के अनुसार उपयोग करते हुए, समय पर उसकी वापसी कर सकते हैं और भविष्य में किसी भी तरह की परेशानी से जूझना भी न पड़े।
धन के विषय में एक आम धारणा यही है कि जब हम और आप पैसे कमाते हैं तो किसी उद्देश्य से ही कमाते हैं। यानी धन की प्रकृति खर्च करने की होती है। लेकिन, हमारे शास्त्रों में यह भी बताया गया है कि यदि मेहतन से कमाये हुए धन को उचित तरीके से खर्च नहीं किया जाता है तो यह उसका निरादर माना जाता है।
हमारे शास्त्रों में मुख्य रूप से बताया गया है कि धन कमाने के बाद ऐसे दो काम अवश्य करना चाहिए जिससे कि धन का निरादर न हो। और यदि ये दो काम नहीं किए गए, तो हमारे सामने इसके बुरे परिणाम भी आ सकते हैं। इनमें से पहला काम तो ये है कि – धन कमाने के बाद कमाई का कुछ हिस्सा गरीबों और जरूरमंदों को दान जरूर करना चाहिए।
शास्त्रों के अनुसार, दान इसलिए करना चाहिए क्योंकि यदि आप ने किसी अनमाने में ही सही, अन्य के हिस्से का धन कमा लिया हो तो उसका एक छोटा अंश भी दान में देने से आप उसके दुष्परिणों से बच सकते हैं।
और दूसरा काम ये करना चाहिए कि धन कमाने के साथ-साथ आवश्यकता के अनुसार उसका भोग करना यानी खर्च करना भी आवश्यक होता है। क्योंकि धन कमाना ही मात्रा उद्देश्य नहीं बल्कि उसका खर्च करना और उसका कुछ अंश दान करना भी आवश्यक होता है।
जहां एक ओर, हमारे शास्त्रों में जहां एक ओर धन-दौलत को लेकर तमाम प्रकार के नियम बताये गये हैं वहीं भगवान श्रीकृष्ण ने सबसे बड़ा धन अपने परिवार और कुटुंब को बताया है। और यह भी बताया है कि परिवार की प्रगति ही धन से कमाये हुए लाभ के समान होता है। साथ ही साथ, यहां भगवान श्रीकृष्ण ने यह भी कहा है कि परिवाररूपी धन सिर्फ उन्हीं लोगों को नसीब होता है जो इसको निस्वार्थ पाने की लालसा रखते हैं। और उसको संचय करने की क्षमता यानी अपने कुटुंब और परिवार को बनाए रखने और उसकी खुशहाली की लालसा रखता हो।
हमारे शास्त्र इस विषय में कहते हैं कि जो लोग धन का आवश्यकता से अधिक संचय करते हैं वे कंजूस होते हैं। क्योंकि ऐसे लोग अभाव में रहकर भी न तो स्वयं धन का भोग करते हैं और न ही किसी अन्य को उसका लाभ उठाने देते। ऐसे कंजूस लोग जल्द बर्बाद हो जाते हैं। इसलिए धन के साथ सुखी जीवन जीने वाले व्यक्ति सदैव आत्मसंतुष्ट, समृद्ध व खुशहाल बने रहते हैं।
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