आज समाज में तमाम तरह के सामाजिक संगठन एवं राजनैतिक दल कार्यरत हैं और राजनैतिक लोग समाज में अपना रुतबा भी बढ़ा लेते हैं किंतु निचले स्तर यानी जमीनी स्तर पर क्या चल रहा है, इस संबंध में बिना किसी लाग-लपेट के कहा जा सकता है कि वहां सब कुछ ठीक-ठाक नहीं चल रहा है। यदि इस तरफ ध्यान नहीं दिया गया तो स्थितियां बद से बदतर होती जायेंगी। वैसे भी जब जमीनी स्तर की बात होती है तो जमीन यानी पृथ्वी जो सृष्टि के पंच तत्वों में सबसे महत्वपूर्ण तत्व है। सामाजिक संगठनों एवं राजनैतिक दलों के विश्लेषण की दृष्टि से जमीन यानी पृथ्वी भले ही प्रतीकात्मक एवं संकेतात्मक हो किंतु जमीनी स्तर पर सामाजिक संगठनों, उनकी उत्पत्ति एवं उनका कार्य कैसे प्रारंभ हुआ, इसकी व्याख्या बहुत जरूरी है।
सामाजिक संगठनों एवं राजनैतिक दलों के गठन के बारे में जानकारी के लिए अतीत में जायें तो बिना किसी संकोच के कहा जा सकता है कि सृष्टि के संचालन में जमीन यानी पृथ्वी की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका है यानी यह कहा जा सकता है कि पृथ्वी से बढ़कर अन्य किसी तत्व का इतना महत्व नहीं है। हालांकि, सृष्टि के अन्य चारों तत्वों- जल, वायु, आकाश और अग्नि भी कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। सही अर्थों में इन्हीं पंच तत्वों की कृपा पर पूरी सृष्टि टिकी हुई है। अतः किसी भी कीमत पर इन पंच तत्वों का सतुलन बना रहना चाहिए। किसी भी तत्व के असंतुलन से सृष्टि का संचालन डगमगा जाता है।
चंूंकि, पृथ्वी पर सभी जीव-जन्तु निवास करते हैं और अपनी दिनचर्या को पूर्ण करने हेतु विचरण करते रहते हैं। प्राणियों के जीवन यापन के लिए अनाज, फल एवं अन्य वनस्पतियां पृथ्वी पर ही उगती हैं। सभी प्राणियों की देखभाल करने की वजह से पृृथ्वी को माता भी कहा जाता है। अन्य चार तत्वों के सहयोग से पृथ्वी ने माता की भूमिका कैसे निभायी है, इसे जानना एवं समझना अत्यंत जरूरी है। सभी जीवों में मनुष्य सबसे समझदार प्राणी है। पृथ्वी पर मौजूद सभी जीवों के संरक्षण-संवर्धन की जिम्मेदारी पंच तत्वों के बाद सबसे अधिक मानव की है।
बहरहाल, पृथ्वी पर रहते हुए मानव या मानव समूह ने अतीत में अपनी एक जीवनशैली, नियम, रीति-रिवाज एवं अन्य तौर-तरीकों को विकसित कर लिया। ये रीति-रिवाज जब धीरे-धीरे विकसित हुए तो उन्हें मानने एवं उस पर अमल करने वाले इकट्ठे होकर समूह से जुड़ते गये। आवागमन एवं अन्य समस्याओं को ध्यान में रखकर अनेक समूहों को मिलाकर गांव बने और कालांतर में गांव से ब्लाॅक, ब्लाॅक से तहसील, तहसील से जिला, जिला से कमिश्नरी, कमिश्नरी से प्रदेश तक की यात्रा करते हुए देश का निर्माण हो गया। समूह से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक की समस्याओं के समाधान के लिए एक निश्चित तौर-तरीका विकसित हुआ और समय-समय पर इसमें सुधार भी होता गया।
शासन के तौर-तरीकों से अलग जब कोई नई समस्या या मांग आई तो उसके समाधान न होने की स्थिति में विरोध-प्रदर्शन या यूं कहें कि आंदोलन होने लगे। ऐसी स्थिति में जो श्ािक्तयां राज करती थीं या व्यवस्था को संचालित करती थीं, वे सभी समस्याओं के समाधान एवं निराकरण में कामयाब नहीं हुई तो उनके विरुद्ध आंदोलन होने लगे और कहा जा सकता है कि यहीं से राजनीति की शुरुआत हुई और सही अर्थों में देखा जाये तो इन्हीं समस्याओं के समाधान के लिए विधिवत राजनीतिक दलों एवं सामाजिक संगठनों का निर्माण हुआ। कालांतर में अपनी विचारधारा के अनुरूप समस्याओं के समाधान के लिए राजनैतिक दलों एवं संगठनों ने घूम-घूम कर संगठित तरीके से अपनी बात करनी शुरू कर दी। यहां यह कहना उपयुक्त होगा कि राजनैतिक दलों ने तो जो कुछ किया, वह किया ही, इसके साथ ही सामाजिक संगठनों की भी भूमिका राष्ट्र एवं समाज निर्माण में कम नहीं रही है जो आज तक भी सटीक एवं कारगर है।
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रामराज्य की स्थापना के पश्चात चाणक्यरूपी महात्माओं ने समाज व राजनैतिक व्यवस्थाओं की एक नियमावली स्थापित की। आचार्य विनोबा भावे के नेतृत्व में भू-दान आंदोलन, पंडित मदन मोहन मालवीय की अगुवाई में बनारस विश्व विद्यालय की स्थापना, भारत रत्न मदर टेरेसा के नेतृत्व में दीन-दुखियों की सेवा, गौरी देवी के नेतृत्व में जंगलों को बचाने के लिए ऐतिहासिक चिपको आंदोलन सहित तमाम ऐसे आंदोलन हुए हैं जिनसे राष्ट्र एवं समाज को एक दिशा मिली है और इन आंदोलनों के आगे सरकारों का झुकना पड़ा है किंतु यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि उस समय इन आंदोलनों को नेतृत्व जिन लोगों ने किया था, उनका नैतिक बल कितना ऊंचा था और उनके नैतिक आचरण से प्रभावित होकर समाज उनसे जुड़ा और उसका परिणाम सामने आया। उस समय सामाजिक आंदोलनों एवं राजनैतिक दलों में मनी पावर (धन शक्ति) एवं मैन पावर (जन शक्ति) के बीच संतुलन हुआ करता था जिसकी वजह से सामाजिक संगठनों एवं राजनैतिक दलों को कामयाबी मिल जाती थी किंतु आज क्या हो रहा है और सामाजिक संगठनों-राजनैतिक दलों को क्यों सावधान होने की जरूरत है? वर्तमान परिवेश में मूल्यांकन एवं विश्लेषण की बात की जाये तो इसी विषय पर कार्य करने की आवश्यकता है।
वैसे भी राजनैतिक दलों एवं सामाजिक संगठनों में एक विकृति आई है कि शक्तियों का केन्द्रीयकरण हो गया है। यही हाल कमोबेश सत्ता का भी है। जबकि इतिहास गवाह है कि शक्तियों का विकेन्द्रीकरण न होने की वजह से सिर्फ नुकसान होता है और कार्यकर्ताओं में हताशा एवं निराशा पनपती है। इससे संगठन धीरे-धीरे पतन की राह पर बढ़ने लगते हैं।
वास्तव में देखा जाये तो सामाजिक संगठन एवं राजनैतिक दलों की संख्या अपने देश में अनगिनत है किंतु उनकी स्थिति क्या है और वे कर क्या रहे हैं? यदि इन बातों का विश्लेषण किया जायेगा तो निराशा ही हाथ लगेगी। किसी भी रूप में जो लोग समाज का नेतृत्व कर रहे हैं उनके बारे में यह जानने की आवश्यकता है कि उनका अपने मिशन के प्रति समर्पण कैसा है? ईमानदारी, चरित्र एवं शिक्षा के मामले में वे कहां टिकते हैं? सत्य, सरलता एवं प्रेम नेतृत्वकर्ता के आचरण में तो कूट-कूट कर होनी ही चाहिए।
यह सब मेरे लिखने का आशय मात्र इस बात से है कि नेतृत्वकर्ता की कथनी-करनी में अंतर नहीं होना चाहिए। कथनी-करनी में अंतर होगा तो कोई भी आंदोलन और नेतृत्व कामयाब नहीं हो सकता। हिंदुस्तान में जिन महापुरुषों के बताये रास्तों पर हम चल रहे हैं उनकी कथनी-करनी में अंतर नहीं था। उन्होंने जो कुछ कहा, सबसे पहले उस पर स्वयं अमल करके दिखाया। इसी से प्रेरित होकर देश के आम समाज ने उन पर विश्वास किया मगर आज की स्थिति में विचार किया जाये तो स्पष्ट रूप से देखने में आता है कि भगत सिंह पैदा तो होने चाहिए किंतु मेरे नहीं बल्कि पड़ोसी के घर में, देशभक्ति के लिए कुर्बानी तो चाहिए किंतु मेरे नहीं दूसरों के बच्चे कुर्बान हों।
एक समय ऐसा था जब जमीनी कार्यकर्ताओं यानी एकदम निचले स्तर पर काम करने वाले कार्यकर्ताओं को तरजीह दी जाती थी और किसी भी कार्यकर्ता का मूल्यांकन उसकी आर्थिक स्थिति को देखकर नहीं किया जाता था। कैडरबेस पार्टियों की समाज में बड़ी प्रतिष्ठा थी। लीडरबेस पार्टियां भी कुछ नेताओं के ऊच्च नैतिक आचरण की वजह से ही समाज में टिक पाती थीं किंतु आज पूरे देश में राजनैतिक दलों एवं सामाजिक संगठनों के बारे में राय बनती जा रही है कि जिसके पास पैसा न हो वह राजनीति की तरफ गर्दन उठाकर झांके भी नहीं। यह स्थिति कोई एक-दो दिन में नहीं बनी है।
पराक्रमी कार्यकर्ताओं पर यदि परिक्रमा वाले कार्यकर्ता भारी पड़ रहे हैं तो यह निहायत ही चिंता का विषय है। वैसे भी दमदार कार्यकर्ताओं की उपेक्षा कर दुमदार कार्यकर्ताओं के दम पर किसी मिशन को पूरा नहीं किया जा सकता है। जिन बैठकों में किसी समय 200 लोग हुआ करते थे, आज यदि वहां 40 लोग भी बैठें हों तो बहुत बड़ी उपलब्धि मानी जा रही है। आखिर राजनैतिक दलों की स्थिति यहां तक कैसे पहुंची? आर्थिक रूप से सक्षम लोगों को ढूंढ़ने में राजनैतिक दलों एवं सामाजिक संगठनों की नींव देखते ही देखते कब और कैसे हिल गई, उन्हें पता ही नहीं चल पाया। यदि पता भी चल गया तो उस पर ध्यान नहीं दिया गया।
भोले-भाले, ईमानदार, चरित्रवान एवं नैतिक रूप से परिपूर्ण कार्यकर्ताओं पर अवसरवादी, मतलबी, फरेबी एवं मक्कार कार्यकर्ता भारी पड़ रहे हैं जिसमें दिखावा व वर्चस्व बनाने की होड़ में मूल उद्देश्य की बलि चढ़ जाती है। राजनैतिक पहचान के लिए लगभग सभी संस्थाओं के पदाधीकारीगण समाज का शोषण करते रहते हैं। ऐसी स्थिति में श्रेष्ठ कार्यकर्ताओं ने अपने-अपने दलों से या तो दूरी बना ली या निराशा में निष्क्रिय होकर घर बैठ गये। तमाम दलों में तो दोतरफा संवाद की गुंजाइश ही समाप्त हो गई है। अब तो सिर्फ नेतृत्वकर्ताओं द्वारा सुनाने का कार्य किया जाता है और कार्यकर्ता सिर्फ सुनने के लिए विवश हैं। कोई जायज एवं पार्टी हित में सुझाव देना भी असंतोष की श्रेणी में माना जा रहा है। कुछ राजनैतिक दलों की तो ऐसी स्थिति हो गई है कि उनके पास सीमित कार्यकर्ता ही बचे हैं। उन्हीं से चाहे राष्ट्रीय स्तर पर कार्य करवा लिया जाये या प्रदेश, जिला एवं स्थानीय स्तर पर।
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जिन दलों में कभी बूथ अध्यक्ष बनने के लिए मारा-मारी होती थी, आज उन दलों को मन पसंद के वार्ड अध्यक्ष भी नहीं मिल पा रहे हैं। कमोबेश यही स्थिति सामाजिक संगठनों की भी है। ऐसी स्थिति क्यों बनी, यदि इन कारणों पर विचार किया जाये तो स्पष्ट रूप से देखने में आता है कि जिन्हें सामान्य कार्यकर्ता या निचले स्तर का कार्यकर्ता कहा जाता है, यदि वे आर्थिक रूप से कमजोर हैं तो उन्हें यह समझ में आ गया है कि अर्थ के अभाव में उनका कोई भविष्य नहीं है यानी उनका कुछ होने वाला नहीं है। उन्हें कोई महत्वपूर्ण जिम्मेदारी नहीं मिल पायेगी, चाहे वह संगठन हो या सत्ता। ऐसी स्थिति में जिम्मेदारियों का पहाड़ उन कार्यकर्ताओं पर आ रहा है जिन्होंने अपनी आर्थिक मजबूती की बदौलत दलों में महत्पूर्ण ओहदा हासिल किया है। कहने का आशय स्पष्ट रूप से यह है कि आर्थिक रूप से सक्षम कार्यकर्ताओं को ही दोनों जिम्मेदारियों का निर्वाह करना होगा यानी पैसा भी वही लगायेंगे और समय भी वही देंगे। ऐसी स्थिति में यह बात आसानी से समझी जा सकती है कि यदि आर्थिक रूप से सक्षम लोग एक सीमा से अधिक समय लगायेंगे तो उनकी भी आर्थिक स्थिति डांवाडोल हो जायेगी।
वैसे भी, संगठन उन कार्यकर्ताओं के द्वारा मजबूत बनता है जो निरंतर प्रवास पर रहते हैं। यह भी अपने आप में पूरी तरह सत्य है कि प्रवास वही करेगा जिसके पास समय होगा। इससे भी महत्वपूर्ण बात है कि जिसके पास समय है, जरूरी नहीं कि उसके पास संसाधन भी हो इसीलिए समय एवं संसाधन दोनों का संतुलन बहुत जरूरी है। यही संतुलन जब बिगड़ता है तो राजनैतिक दल एवं सामाजिक संगठन कमजोर होने लगते हैं। कमोबेश इसी प्रकार की स्थिति आज सर्वत्र दिखाई दे रही है।
इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि सोशल मीडिया के दौर में श्रेष्ठ कार्यकर्ताओं की पहचान ही गायब होती जा रही है। फोटो खींचने एवं खिंचवाने में जिन्हें महारत हासिल है, उनकी सर्वत्र जय-जयकार हो रही है। अच्छे से अच्छा कार्यकर्ता यदि सोशल मीडिया के उपयोग में कमजोर है तो उसके योगदान को कोई देखने वाला ही नहीं है। उसके सारे प्रयास बेकार। किसी समय राजनैतिक दलों में एक ऐसी टीम हुआ करती थी, जो सभी कार्यकर्ताओं का गुप्त रूप से मूल्यांकन करती थी, संगठन में जिसे तीसरी आंख के नाम से जाना जाता था, आज उसका नितांत अभाव है।
कुल मिलाकर कहने का आशय यह है कि आज के सोशल मीडिया के दौर में काम भी करना है और अपने काम के बारे में बताना भी है। ऐसी स्थिति में सर्वदृष्टि से तमाम श्रेष्ठ कार्यकर्ताओं की ऐसी स्थिति बन चुकी है कि ‘माल खाये मदारी, नाच करे बंदर।’ इसे यूं भी कहा जा सकता है कि काम कोई कर रहा है और उसका लाभ कोई और ले रहा है। जब इस प्रकार की स्थिति हो तो राजनैतिक दलों एवं सामाजिक संगठनों की जड़ें खोखली होने से कोई रोक नहीं सकता। नींव के पत्थर जब हिलेंगे तो बुलंद से बुलंद इमारत को कभी न कभी गिरना ही होगा।
ऐसी स्थिति में राजनैतिक दलों एवं सामाजिक संगठनों को समग्र दृष्टि से विचार करना होगा, वरना आने वाले समय में सिर्फ नेता होंगे, कार्यकर्ता टाॅर्च लेकर ढूंढ़ने पर भी नहीं मिलेंगें। राजनैतिक दल या सामाजिक संगठन पूर्वजों की कमाई पर कब तक पलेंगे यानी जिनके वे उत्तराधिकारी हैं, उनके कर्मों पर वे कब तक टिकेंगे, इसलिए अब सावधान होने का वक्त आ गया है। वक्त रहते यदि नहीं संभले तो अंजाम बहुत भयानक देखने को मिलेगा। अभी वक्त है, वक्त पर संभलकर, वक्त के मुताबिक संभल जायें, अन्यथा…!
– अरूण कुमार जैन (इंजीनियर) (पूर्व ट्रस्टी श्रीराम-जन्मभूमि न्यास एवं पूर्व केन्द्रीय कार्यालय सचिव, भा.ज.पा.)