राजस्थान, मध्य प्रदेश, मालवा, महाराष्ट्र और गुजरात के कुछ भागों सहित बिहार और उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल वाले अधिकतर क्षेत्रों के देहाती और कस्बा क्षेत्रों के कई लोग जानते हैं कि दीवाली के अगले दिन यानी रूप चौदस के दिन परम्परागत तरीके से एक विशेष पर्व मनाया जाता है, जिसको निमाड़ क्षेत्र में “पोला पर्व” कहा जाता है या इसी प्रकार से क्षेत्रीय भाषा और बोली के अनुसार अलग-अलग नामों से जाना जाता है। देश के अन्य भागों में भी किसी न किसी रूप में इस दिन इस त्यौहार और परंपरा को ग्रामीण क्षेत्रों में अवश्य ही मनाया जाता है।
यह पर्व मुख्यतः ग्रामीण लोगों द्वारा अपने पशुधन की पूजा के लिए मनाया जाता है। क्योंकि यह मुख्य रूप से भगवान् श्री कृष्णा से जुड़ा हुआ है। भगवान् श्री कृष्णा को पशुओं से लगाव था और वे पशुओं को धन के तौर पर मानते थे। इसीलिए पडवा के दिन प्रातः काल पशुधन की पूजा कर इस पर्व को मनाया जाता है। हालाँकि अब इसका असर बहुत ही कम हो गया है क्योंकि पशुधन भी अब बहुत ही कम किसानों के पास रह गया है, लेकिन जिन किसाओं के पास भी आज पशुधन है वे इसको पाम्परागत तरीके से उत्साह के साथ मनाते हैं।
इस पर्व के दौरान हर गृहस्थ अपने गाय-बैल, भेंस और बकरी आदि सभी पशुओं को नदी, तालाब या पोखर में नहला धुला कर उन्हें सजाता सँवारता है। उनके सींगों को वार्निश से रंग कर चमकाते हैं, गले में घुंगरू वाली माला पहनाते हैं, और साथ में एक नई घंटी भी बांधते हैं। ख़ास तौर पर बैल यदि सफेद हैं तो उनकी पीठ पर गेरू के प्राकृतिक रंग की छाप से ॐ, स्वास्तिक और अन्य प्रकार के फुल पत्ती बनाकर सजाया जाता है। इसके बाद उनकी पूजा की जाती है और आरती उतारकर उन्हें चारा-पानी देकर पुरे दिन आराम दिया जाता है।
इस दिन किसान अपने बैलों से कोई भी काम नहीं कराते, बल्कि उनके साथ साथ स्वयं भी छुट्टी मना लेते हैं। इस विशेष दिन के अवसर पर ग्रामिण बच्चों में अपने पशुओं को सजाने-संवारने की होड़ इस बात को लेकर लगी रहती कि किसके बैल सबसे अधिक सुन्दर लग रहे हैं। इसके बाद वे लोग अपने पशुओं को जंगलों या खेतों में लेजाकर चरने के लिए खुला छोड़ देते हैं और उनकी रखवाली करते रहते हैं।
दरअसल, दिवाली एक ऐसा समय है जहां से गर्मी समाप्त हो जाती है और जाड़े की शुरुआत लगभग इन्ही दिनों से होती है, इसलिए इसी दिन पशुओं को नई ओढ़नी भी दी जाती थी। और उस ओढ़नी को तेयार तेयार करने के लिए पुरुषों को इस दिन समय भी मिल जाता है इसलिए गाँव के अधिकतर लोग एक जगह जमा होकर बड़े मजे से अपने-अपने पशुओं के लिए ओढ़नी तेयार करते देखे जाते हैं।
ग्रामीण सामाजिक जीवन में इस परंपरागत त्योहार का असर आज भले ही कम हो गया है लेकिन जो लोग आज भी इसको ज़िंदा रखे हुए हैं वे जानते हैं कि पशुधन और मशीन के बीच क्या फर्क है। आज का मशीनी किसान भले ही संपन्न हो रहा है लेकिन, परम्परा और प्रकति से दूर भी होता जा रहा है। खेतों में पराली जलाने की समस्या पशुधन की कमी और ट्रेक्टरों की भरमार के कारण पिछले कुछ वर्षों से ही सबसे अधिक देखी जा रही है। वरना इससे पहले तो वही परली अगले साल भर के लिए अपने पशुधन का पेट भरने के लिए ही जमा की जाती थी।
तरक्की की चाह में जहां एक और ग्रामीणों ने पशुधन से दुरी बनाकर मशीनों को अपना लिया है वहीं शहरी आबादी के बेतहाशा बढ़ने के कारण आनाज की कमी को पूरा करने के लिए भी अब अधिक से अधिक अनाज की आवश्यकता पड़ने लगी है, जिसके चलते पशुधन से खेती कर अधिक फसल उपजापाना संभव नहीं है।
जिस पशु को हम कभी “धन” मानते थे आज उसे बोझ समझ कर कसाइयों के हाथों में स्वयं ही सोंपने लगे हैं। क्योंकि उन बैलों के काम को मशीने खा गई। उनके हिस्से की चारागाह को डेवलपमेंट का राक्षस खाता जा रहा है। बछड़ों को नहला धुला कर उनके गले में माला बांधने वाली पीढ़ी के लड़के शहरों की भीड़ में कहीं खोते जा रहे हैं।
आज भले ही बैल कम हो चुके हैं, लेकिन गायें जरुर बची हैं, हालाँकि वे भी अब विदेशी और हाइब्रिड नस्लों की ही देखने को मिल रहीं हैं। अधिक से अधिक दूध के लालच ने देशी नस्ल की गाय को समाप्त करने की ठान ली है। बछड़ा जैसे ही थोड़ा बड़ा होता है किसी न किसी कसाई के हाथों बेच दिया जाता है। ठीक है की उस बछड़े को बेचने के लिए किसान भी विवश है, क्योंकि उसके पास उस बछड़े का कोई उपयोग भी तो नहीं है। रही बात धर्म की तो अब न ही धर्म बचा और न ही मानवता।
सरकारें भी अब न किसी काम की हैं और न ही किसी धर्म की जो यह तय कर सकें की पशुधन का उपयोग किस प्रकार से करवाया जाय। सरकारें कितनी भी राष्ट्रवादी हों या हिंदूवादी होने का दम भरतीं हों, असली परीक्षा तो उसको कागजों में नहीं बल्कि कार्यक्षेत्रों में देनी होती है। इसमें दोषी कौन है इस बात को लेकर कोई फैसला नहीं हो पायेगा, लेकिन धर्म और धन की रक्षा के लिए हिन्दुओं को ही आगे आना होगा, न की सरकारों को। क्योंकि सरकारें स्वयं धर्म को नहीं जानतीं वे भला कैसे इसको बचा सकेंगी?
– अमृती देवी