आगरा से लगभग 27 मील दूर एक पहाड़ी की चोटी पर स्थित लाल पत्थर का एक भव्य और विशाल राजप्रासाद-संकुल स्थान ‘फतहपुर सीकरी’ (History of Fatehpur Sikri) पुकारा जाता है। प्रचलित भारतीय इतिहास ग्रन्थ और भ्रमणार्थियों का साहित्य बहुविधि घोषित करते हैं कि यह शाही-नगरी सन् 1556 से सन् 1605 तक भारत के एक विशाल भाग पर शासन करने वाले, मुगल वंश के तृतीय बादशाह अकबर ने बसायी थी। चूँकि भारत-भर में सर्वत्र फैले हुए प्रचलित सभी मध्यकालीन स्मारक, यद्यपि वे सभी मुस्लिम-पूर्व काल के उद्गम हैं, इस या उस मुस्लिम शासक के साथ भूल से जोड़ दिये गये हैं, इसलिए यह कोई आश्चर्य नहीं है कि फ़तहपुर सीकरी की शाही नगरी का भी वही भाग्य रहा। किन्तु यह सिद्ध करने के लिए अपार साक्ष्य उपलब्ध हैं कि अपने प्रचलित लाल पत्थरों के स्मारकों सहित फ़तहपुर सीकरी एक राजपूती नगरी थी जो अकबर से शताब्दियों पूर्वकाल में निर्मित हुई थी।
यद्यपि यह विषय एक पृथक् पुस्तक के लिए ही उपयुक्त होगा तथापि उपलब्ध साक्ष्य की विपुल मात्रा के आधार पर उस साक्ष्य का एक स्थूल विवेचन ही सामान्य पाठक और एक अन्वेषक, दोनों को ही समान रूप में उस बात का आधार प्रस्तुत कर देगा कि उसे अपने मानस से यह परम्परागत धारणा बाहर निकाल फेंकनी चाहिए कि फ़तहपुर-सीकरी अकबर अथवा इस दृष्टि से किसी भी अन्य मुस्लिम बादशाह ने निर्मित की थी। हमारे साक्ष्य के प्रमुख प्रमाण निम्न प्रकार एकत्र किए जा सकते हैं-
(1) अकबर से पूर्व शासन करने वाले शासकों से सम्बद्ध अनेक मुस्लिम तिथिवृत्तों में इस नगरी के सम्बंध में ‘फथपुर,’ ‘सीकरी’ और ‘फथहपुर सीकरी’ के नाम से भी अनेक बार उल्लेख हुआ है।
(2) न्यायाधीश जे.एम. शेलट द्वारा लिखित और भारतीय विद्याभवन, बम्बई द्वारा प्रकाशित ‘अकबर’ शीर्षक ऐतिहासिक पुस्तक के 82वें पृष्ठ के सम्मुख एक फलक दिया गया है जिसके चित्र का शीर्षक है- “हुमायूँ की टुकड़ियाँ फथपुर में प्रवेश कर रही हैं।” यहाँ स्मरणीय यह है कि हुमायूँ अकबर का पिता था। यह चित्र इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि फथपुर (सीकरी) अकबर से पूर्व विद्यमान थी।
(3) बाबर के स्मृति-ग्रन्थों में उल्लेख है कि पहाड़ी से दीख पड़ने वाली फ़तहपुर-सीकरी के चारों ओर ही, भारत में मुग़लवंश के संस्थापक बाबर और राणा साँगा के मध्य निर्णायक युद्ध लड़ा गया था। राणा साँगा को नगरी की चहारदीवारी से बाहर आना पड़ा था क्योंकि घेरा डालने वाली शत्रु-सेना देहातों को रौंद रही थी, निर्दोष नागरिकों को कत्ल कर रही थी, और नगरी के प्रमुख जल-भंडार अनूप झील को विषमय बना रही थी। चूँकि राणा साँगा युद्ध लड़ने के लिए नगरी के बाहर आये थे, इसीलिए बाबर ने कहा कि युद्ध पहाड़ी के निकट ही लड़ा गया था।
(4) बेखबर लोग कदाचित् तर्क करने लगें कि वह लड़ाई तो कुछ ही मील दूर कनवाहा में लड़ी गयी थी, किन्तु यह पूर्ण सत्य नहीं है। कनवाहा की लड़ाई तो बाबर की फौजों और राणा साँगा की सेना की एक टुकड़ी का प्रारम्भिक संघर्ष भर थी। अन्तिम निर्णायक युद्ध तो कुछ दिनों के पश्चात् फतहपुर सीकरी के चहुँओर लड़ा गया था जिसमें स्वयं राणा साँगा ने अपनी सेना का नेतृत्व किया था।
(5) सम्पूर्ण नगरी और समतल मैदान के सैकड़ों एकड़ क्षेत्र को परिवेष्टित करने वाली विशाल प्राचीर अभी भी गोलाबारी के चिह्नों से युक्त है। दीवारों में दरारों वाले छेद बाबर की सैन्य टुकड़ियों द्वारा राणा की सुरक्षा-पंक्तियों पर बन्दूकों के आक्रमण के प्रमाण हैं।
(6) ‘अकबर इस प्रकार ध्वस्त हुई नगरी में रहा था’ – इसका प्रमाण ब्रिटिशसम्राट् के उस प्रतिनिधि द्वारा मिलता है जो अकबर की मृत्यु के पश्चात् जहाँगीर के सिंहासनारूढ़ होने के बाद उसके पास आया था। इस प्रतिनिधि ने लिखा है कि नगरी ध्वस्त हो चुकी थी। यह मान भी लिया जाए कि इस नगरी का निर्माण अकबर द्वारा हुआ था, तो भी जब हम इसके सभी भव्य स्मारकों को अक्षत पाते हैं जैसे कल ही बने हों, तो यह समझ में नहीं आता कि यह नगरी जो सन् 1583 में पूर्ण हुई विश्वास की जाती है, किस प्रकार केवल 23 वर्ष में ही ध्वस्त हो गयी, जब वह अंग्रेज जहाँगीर के पास आया। साक्ष्य का यह अंश स्पष्ट करता है कि अकबर अपने पितामह द्वारा कुछ दशाब्द-पूर्व ध्वस्तकी गयी राजपूती नगरी में ही रहता था ।
(7) एक अन्य अंग्रेज – राल्फ फिच- फ़तहपुर-सीकरी सन् 1583 में सितम्बर मास में आया था। अपनी यात्रा के जो टिप्पण वह छोड़ गया है, उसमें उसने आगरा और फ़तहपुर-सीकरी की परस्पर तुलना की है, जो इस बात का द्योतक है कि वह दोनों नगरों को ही प्राचीन मानता था जैसाकि मुस्लिम तिथिवृत्तों में झूठा दावा किया गया है, यदि फ़तहपुर सीकरी सन् 1583 ई. के आसपास बनी बिल्कुल नई नगरी रही होती, तो उसने वैसा ही कहा होता और उन दोनों नगरों की तुलना न की होती । वह यह भी कहता है कि व्यपारी अपनी बहुमूल्य सामग्री बेचने के लिए फ़तहपुर सीकरी में जमा हुआ करते थे। यह टिप्पण भीइस बात का द्योतक है कि यह व्यापार-संगम एक प्राचीन प्रथा थी । यदि फतहपुर सीकरी एक नई नगरी ही होती, तो फिच ने इसकी तुलना प्राचीन आगरा से कभी न की होती-कम-से-कम फतहपुर सीकरी का नई नगरी के रूप में विशेष नामोल्लेख तो अवश्य ही किया होता।
(8) फ़तेहपुर-सीकरी के बाहर (अब शुष्क पड़ी) विशाल झील का संस्कृत (अनूप) नाम भी सिद्ध करता है कि यह मुस्लिम-पूर्व काल में राजपूतों द्वारा बनायी गयी थी।
(9) यह तथ्य भी, कि अनूप झील सन् 1583 में फूटकर बह निकली और अन्त में विवश होकर अकबर को वह नगरी सदैव के लिए छोड़ देनी पड़ी. विचार प्रस्तुत करता है कि अनेक दशाब्दियों से यह झील देखभाल और मरम्मतादि से उपेक्षित रही प्रतीत होती है (जब से बाबर ने इसे रौंदा और फ़तहपुर सीकरी को अपने अधीन किया था)। यदि फ़तहपुर-सीकरी के जलभंडार के रूप में यह नई-नई ही बनी थी, तो इसके फूटकर बह निकलने की बात न होती।
(10) फ़तहपुर सीकरी के निर्माण प्रारम्भ का समय परम्परागत मुस्लिम तिथिवृत्त ईसा पश्चात् 1564, 1569, 1570 और 1571 बताते हैं। ये विभिन्न वर्णन स्वयं ही असत्यता को सिद्ध करते हैं।
(11) वे उल्लेख करते हैं कि नगरी सन् 1583 के आसपास पूर्ण हो गयी थी यदि ऐसा हुआ, तो उसने इसे सन् 1585 तक छोड़ क्यों दिया? वास्तविक कारण यह था कि झील के सन् 1583 के उफान ने अकबर के लिए प्राचीन राजपूती राजप्रासाद में रहना असम्भव कर दिया। यदि अकबर ने ही इस नगरी और झील, दोनों का निर्माण सन् 1583 के आस-पास पूर्ण कराया होता तो प्रथम बात यह है कि सन् 1583 में ही झील फूट न गई होती; और दूसरी बात यह है कि अकबर ने इस नये निर्मित राजप्रासाद-संकुल को त्याग देने के स्थान पर इस झील की मरम्मत करायी होती। किन्तु अकबर को यह नगरी त्यागनी ही पड़ी क्योंकि उसे झील की मरम्मत कराने का कुछ भी ज्ञान न था।
(12) जहाँ पर हाथीपोल (गज-द्वार) झील में खुलता है, वहीं पर एक छोटा स्तम्भ है जिसमें एक चक्करदार सीढ़ी भी है। स्तम्भ में बिसियों प्रस्तरदीप हैं। यह एक परम्परागत हिन्दू दीप-स्तम्भ है जो मन्दिरों और राजप्रासादों के सामने होता था। इन टेकों पर मिट्टी के दीपक रखे जाते थे। जगमग जगमग दीख पड़ने के कारण यह दीप-स्तम्भ ‘हिरण्यमय’ (स्वर्णिम) कहलाता था। वही संस्कृत शब्द अब विदग्धतापूर्वक ‘हिरनमीनार’ में बदल दिया गया है जिससे कि वह जाली अकबर-कथा में ठीक बैठ जाये, और, स्तम्भ अकबर के प्रिय हिरण के मरण-स्थान के रूप में माना जाता है। क्या अकबर के हिरण ने मरने के समय अपनी अन्तिम इच्छा प्रकट की थी कि उसको एक चक्करदार सीढ़ी-युक्त हिन्दू-दीप-स्तम्भ के रूप में स्मारक में स्थान दिया जाए?
(13) हाथीपोल दरवाजे के निकट दो बड़े हाथियों की विशालकाय मूर्तियाँ अपने राजपूती मूल की शान्ति-अवाक् साक्षियाँ हैं। प्रस्तर गज-मूर्तियों के शीर्ष तोड़ डाले गये हैं। उनकी सूँडों की प्रवेशद्वार पर मेहराब हुआ करती थी जैसे कि आज भी राजपूती रियासत की राजधानी कोटा के राजमहल में है। इसी प्रकार के गज-द्वार चित्तौड़ में और आगरा व दिल्ली के लाल-किले में हैं। इस्लाम तो सभी मूर्तियों से चिढ़ता है। और भी बात यह है कि गज तो हिन्दूधार्मिक आस्था और इतिहास में सदैव श्रेष्ठता और दैवी शक्ति, बल और यशका प्रतीक रहा है। यह विशिष्टता लिये हुए भारतीय पशु भी है। यह सिद्ध करता है कि फतहपुर-सीकरी का हाथीपोल दरवाजा तो बनाना दूर, अकबर ने उन हाथियों के शीर्ष कटवा दिये थे और उनकी भव्य मेहराबदार सूँडें तुड़वा दी थीं।
(14) इसी प्रकार की मूर्ति-भंजकता फ़तहपुर-सीकरी के अन्दर के अनेक भवनों में परिलक्षित की जा सकती है, जहाँ दीवारों पर बने मयूर पक्षी चित्रों को तराश दिया गया है ।
(15) अश्वों के लिए अश्वशाला और गजों के लिए गजशाला सहित परस्परगुंफित अलंकृत हिन्दू कलाकृति और लक्षणों-युक्त यह सम्पूर्ण नगरी ही परम्परागत राजपूती शैली में है।
(16) इसके नाम और समुच्चयों की संज्ञा भी लगभग पूर्ण रूप में हिन्दू हीहै; यथा-पंचमहल, जोधाबाई का महल, तानसेन महल, बीरबल महल आदि। यह प्रदर्शित करता है कि विदेशी मुस्लिम सरदार अपनी धार्मिक मान्यताओं केकारण उन अलंकृत भवनों को उपयोग में न ला सके ।
(17) तथाकथित सलीम चिश्ती का मकबरा अलंकृत रूप में अन्दर खुदाई किया हुआ संगमरमर का हिन्दू मन्दिर है। इसके भीतर पूरी तरह बेल-बूटों से युक्त एक संगमरमर का स्तम्भ है जिसको मूलरूप में सत्य ही मकबरे में कोई स्थान उपलब्ध न होता।
(18) भारतवर्ष में कहीं भी किसी मुस्लिम फ़कीर के मकबरे का अस्तित्व स्वयं ही प्रमाण है कि उस स्थान पर एक प्राचीन भारतीय नगरी है, क्योंकि मध्यकालीन मुस्लिम फ़कीर ध्वस्त स्मारकों में ही अपने निवास की व्यवस्था कर लिया करते थे। दिल्ली में निजामुद्दीन और बख्तियार काकी के मकबरे और अजमेर में मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाहों का सर्वेक्षण कर इस तथ्य को सत्यापित किया जा सकता है।
और इसी प्रकार से इस पुस्तक में ऐसे सैकड़ों तथ्यात्मक उदाहरण दिए गए हैं जिनसे साबित होता है की किस प्रकार से सम्पूर्ण देश और प्राचीन हिंदू संरचनाओं के साथ भेदभाव और गलत इतिहास का षड्यंत्र रचकर मुस्लिम आक्रांताओं ने न सिर्फ अपना बना लिया बल्कि आजादी के बाद की सरकारों ने भी उनके पक्ष में ही इसको रहने दिया।
साभार- श्री पी.एन. ओक द्वारा लिखित “भारतीय इतिहास की भयंकर भूलें” नामक पुस्तक के पृष्ठ संख्या 53-57 से।