अजय सिंह चौहान || उत्तर प्रदेश का अमरोहा जिला इतिहास का एक ऐसा अति प्राचीन नगर है जो अपने पौराणिक इतिहास और साक्ष्यों के लिए युगों-युगों से भारत के इतिहास में दर्ज होता आया है। क्योंकि हमारे पौराणिक साक्ष्यों के अनुसार अमरोहा की स्थापना आज से लगभग 5,000 वर्ष पूर्व हस्तिनापुर के राजा आम्रहग्रोह ने की थी जो पांडवों के वंशज थे, और संभवतः उन्हीं के नाम पर इस नगर का नाम भी अमरोहा पड़ा। गाजियाबाद और बुलंदशहर जिलों के पश्चिम में स्थित इस पवित्र सथान यानी अमरोहा की पवित्र नदियों में गंगा और कृष्णा नदियां प्रमुख हैं।
वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य से देखें तो इसके उत्तर में बिजनौर और पूर्व में मेरठ जिला पड़ता है। यानी गंगा के किनारे पर बसे जिस प्राचीन नगर अमरोहा के आसपास का संपूर्ण क्षेत्र भी अगर अपनी विरासतों और पौराणिक मान्यताओं और साक्ष्यों से अति संबृद्ध रहा हो भला वह क्षेत्र भी कैसे पीछे रह सकता है।
हमारे पुराणों में बताया गया है कि आज के अमरोहा जिले का वर्तमान क्षेत्र, द्वापर युग के पंचाल देश के राज्य का ही एक हिस्सा हुआ करता था। लेकिन, उनको हस्तिनापुर के कौरवों ने पराजित करके यहां अपना राज कायम कर लिया था।
अगर अमरोहा के प्राचीनतम और पौराणिक इतिहास दौर की बात करें तो द्वापर युग में यह अंबिकानगर के नाम से पहचाना जाता था। पौराणिक साक्ष्यों के अनुसार इसकी स्थापना आज से लगभग 5,000 वर्ष पूर्व हस्तिनापुर के राजा आम्रहग्रोह ने की थी जो पांडवों के वंशज थे, और संभवतः उन्हीं के नाम पर इस नगर का नाम भी अमरोहा पड़ा।
लेकिन, वहीं प्रसिद्ध इतिहासकार रामनाथ शर्मा ‘रमन‘ अमरोहवी का मानना है कि अमरोहा की स्थापना हुई तो 5,000 वर्ष पहले ही थी, लेकिन, उस समय इसको इन्द्रप्रस्थ के राजा अमरचैड़ ने बसाया था इसलिए इसे अमरोहा नगर नाम दिया गया था।
जबकि अमरोहा के नाम को लेकर कुछ लोग यहां यह तर्क भी देते हैं कि 12 वीं शताब्दी के शुरुआती दौर में शुर्फद्दीन उर्फ विलायत शाह नाम के एक मुगल आक्रमणकारी ने यहां शासन किया था और उसी ने इस क्षेत्र के रसीले आमों और रोहू नामक मछली की विशेषताओं और इनकी भरपूर पैदावार के कारण इस स्थान का नाम आमरोहू रख दिया था, जो आगे चलकर अमरोहा हो गया।
फिलहाल सन 1997 के बाद से इसे महात्मा ज्योतिबा फुले की याद में ज्योतिबा फुले नगर के रूप में घोषित किया गया है। लेकिन, आज भी यह इसके वास्तविक नाम अमरोहा के नाम से ही जाना जाता है।
कहा जाता है कि अमरोहा में स्थित प्राचीन श्रीवासुदेव तीर्थ सरोवर महाभारतकाल में पाण्डवों के अज्ञातवास का साक्षी रहा है। पौराणिक ग्रन्थों के अनुसार द्वापर युग में पाण्डवों ने अज्ञातवास के दौरान कुछ समय यहां भी बिताया था और उनकी उसी यात्रा के दौरान भगवान श्रीकृष्ण, उनसे यहां आकर मिले थे। और क्योंकि श्रीकृष्ण का एक नाम वासुदेव भी है इसलिए आगे चलकर उस स्थान को राजा अमरचैड़ ने यहां वासुदेव उद्यान और श्रीवासुदेव सरोवर का भी निर्माण करवाया था जो आज भी मौजूद है।
इस सरोवर के पश्चिमी तट पर एक वासुदेव मंदिर भी है जिसमें राधा-कृष्ण, राम-सीता, शिव-पार्वती, देवी दुर्गा, और हनुमानजी सहित अन्य कई देवी-देवताओं की मूर्तियां स्थापित हैं।
अमरोहा के गुप्तकालिन दौर की करें तो इसमें गुप्त साम्राज्य का प्रभुत्व भी लगभग दो शताब्दियों तक बना रहा और फिर गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद यहां राजा हर्ष का शासन भी रहा। इसके अलावा यहां गढ़वाल के तोमर और कुलों ने भी शासन किया।
समय के साथ-साथ यह क्षेत्र पृथ्वी राज चैहान के सुनहरे दौर का भी गवाह बना। लेकिन, पृथ्वी राज चैहान के बाद यहां लगातार असमंजस और अराजकता की स्थिति बनी रही।
अमरोहा नगर पर सन 1141 तक राजपूतों के सुनहरे शासन का दौर जारी रहा। लेकिन, मुगल आक्रमणकारियों के आतंक और लूटमार के कारण यहां का सुनहरा काल समाप्त होता चला गया और यहां की सत्ता धीरे-धीरे मुगलों के हाथों में जाती देखकर इस क्षेत्र के बरगुजर, कटेहरी, तोमर, राजपूतों, गौर और अन्य लड़ाका जातियों और कबीलों ने मिलकर मुस्लिम आक्रमणों का सामना करते हुए एकजुटता दिखाई और मुगल सल्तनतों को चुनातियां देते रहे।
इस प्राचीन नगर अमरोहा और इसके आस-पास के क्षेत्रों में आज भी हिन्दू राजाओं के समय में बनाई गई ऐसी अनेकों इमारतों के आधे-अधूरे अवशेष देखने को मिल जाते हैं जो मुगलकाल के दौरान नष्ट कर दी गई थीं। उन अवशेषों में प्राचीन काल के हिंदू राजाओं के द्वारा बनवाए हुए किले, कुएं और तालाब जैसी अमुल्य धरोहरों हैं।
आज भले ही अमरोहा मुसलमानों के लिए तीर्थस्थान माना जाता है। लेकिन, ऐतिहासिक तथ्य स्पष्ट तौर पर बताते हैं कि आगरा विश्वविद्यालय से संबद्ध महाविद्यालयों के अलावा यहां की जो सबसे पुरानी शेख सद्दू की मस्जिद मानी जाती है उसकी वह इमारत कभी हिंदुओं का पवित्र मंदिर हुआ करता था।
आज भी इस मस्जिद की दीवारों पर कहीं-कहीं हिंदू कला की झलक स्पष्ट दिखाई देती है। धार्मिक स्थलों को ध्वस्त कर उनको नया रंग-रूप देने का यह बदलाव भरा दौर लगभग 2 वर्षों तक यानी 1286 से 1288 के बीच के मुगलकाल के दौरान बहुत जोर-शोर से चला था। वर्तमान दौर में अमरोहा एक घनी मुस्लिम आबादी वाला क्षेत्र बन चुका है और यहां की हजरत शाह विलायत नाम की दरगाह दूर-दूर तक बिच्छू वाली मजार के नाम से प्रसिद्ध है।