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यूरोपीय देशों में अब प्राइमरी स्कूलिंग का तरीका बदला

admin 28 May 2024
Primary schooling method changed in European countries
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– न्यूजीलैंड में खुल रहे हैं कई ‘नेचर स्कूल’
– खेतों-तालाबों के आस-पास में समय गुजारते हैं बच्चे
– बच्चों को कीचड़ में खेलने के लिए छोड़ दिया जाता है

अजय सिंह चौहान || आधुनिक शिक्षा का दौर पुरी दुनिया में बदलता दिख रहा है और उसका असर भी अब धीरे-धीरे बदलता दिख रहा है। शिक्षा के इसी बदलाव के दौर में न्यूजीलैंड के कई स्कूलों के बच्चे अब अपनी प्राइमरी स्कूलिंग के तौर पर सीधे प्रकृति से जुड़ रहे हैं और खेती करने के तरीके स्कूलों से ही पूरे कर रहे हैं। यहां के कई स्कूलों में 8 से 12 वर्ष तक के बच्चों को सप्ताह में एक दिन खेतों और नदियों के बीच गुजरना होता है। इस दौरान ये बच्चे मछलियों को खाना खिलाते हैं और कीचड़ में भी खेलते हैं। ये बच्चे खेतों में रहने वाले मवेशियों की देखभाल भी करते हैं और उनके व्यवहार को भी समझते हैं।

दरअसल, कई यूरोपीय देशों में स्कूलिंग का तरीका अब धीरे-धीरे बदलता जा रहा है। बंद दरवाजों से निकाल कर कई स्कूलों के बच्चों को अब बाहर की जिंदगी के अनुभव दिये जा रहे हैं और इसमें ब्रिटेन तथा ऑस्ट्रेलिया में ‘फस्ट स्कूल बुश काइन्डीज’ खुल रही है। ऐसे ही अन्य कई देशों में इसी प्रकार से स्कूल का तरीका भी पाॅपुलर हो रहा है।

Primary schooling method changed in European countriesइसी राह पर आगे बढ़ते हुए न्यूजीलैंड में स्थानीय जीवन शैली से बच्चों को इकट्ठा करके शिक्षा दी जा रही है और यदि वहां कोई पेड़ काटा जाता है अथवा कोई पेड़ गिर जाता है तो उन बच्चों को उसके नुकसान भी बताये जा रहे हैं साथ ही साथ उन्हें उस नुकसान पर रोने के लिए भी तैयारी करवाई जाती है।

बेनिग्टन स्थित विक्टोरिया यूनिवर्सिटी में एजुकेशन प्रोफेसर जैन रिची ने 2018 में एक शोध किया था जिसमें पाया गया कि स्थानीय माओगे ज्ञान की मदद से बच्चों और प्रकृति को बेहतर तरीके से जोड़ा जा सकता है। ऐसे ही एक अन्य स्कूल के संस्थापक भी इससे सहमत दिखे, जिसके बाद यह निर्ण लिया गया कि क्यों न बच्चों को प्रकृति के साथ सीधे जोड़ा जाये।

जल्द ही इसका असर भी देखने को मिला। स्थानीय लोगों का कहना है कि यहां प्रशासन द्वारा करीब 20 से अधिक पेड़ काटे गये थे जिनको हमने बच्चों को दिखाया तो वे अभिभूत हो गये और उन गिरे हुए पेड़ों को देखकर वे स्कूली बच्चे रो रहे थे, बच्चों का रोना तभी बंद हुआ जब उनके स्थान पर नए पेड़ लगाये गये। साथ ही साथ आस-पास के लोगों ने बच्चों से यह भी वादा किया कि वे इन पेड़ों की रक्षा करेंगे।
इस प्रकार की शिक्षा को लेकर कई स्कूलों को शुरुआत में लग रहा था अधिकतर बच्चे इसको नकार सकते हैं, लेकिन धीरे-धीरे उन्हें भी यह बात समझ आने लगी कि इस तरह की क्लास से बच्चों को जिंदगी की असली चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार किया जा सकता है क्योंकि ऐसी क्लास के दौरान बच्चे अपने मन से फैसले लेते हैं।

इसमें बच्चों की बात करें तो कई बच्चे तो ऐसे हैं जो खेतों में और नदियों के किनारे रहकर ही पढ़ना चाहते हैं और क्लासरूम में जाना पसंद ही नहीं करते। एक अध्यापक का कहना है कि इन बच्चों में से छह वर्ष की एम्मा इयूसन को मुर्गियां पकड़ना पसंद है, जबकि पांच वर्ष का रोखता खेत में पहुंचते ही पालतु पशुओं की ओर भागता है, मिट्टी में खेलता है, कीचड़ में सराबोर लोटता है और बाहर निकलो तो रोने लगता है। दूसरी और कुछ अन्य बच्चों का एक झुंड भी है जो घने जंगल में जाकर रहना चाहता है।

कई स्कूली अध्यापकों का कहना है कि इन बच्चों की रूचि और शिक्षा के अनुरूप कई शिक्षकों की विशेष टीमें इन बच्चों की निगरानी करती है इसलिए हमें इसमें कुछ अधिक खर्च भी उठाना पड़ रहा है, लेकिन, यह बच्चों के भविष्य के लिए बहुत लाभदायक है।

पत्रकारों से बात करते हुए एक टीचर ने बताया कि आठ वर्ष का एस्टन नामक बालक अचानक जोर-जोर से चीखकर सभी को अपने पास बुलाता है। हम भी उसकी ओर भागे तो देखा कि उसने एक खरगोश को देखा है। वह उसे छूने ही वाला था कि टीचर ने उसे रोक दिया और समझाया कि उसको छूने से खरगोर को क्या परेशानी हो सकती है।

एक खबर के अनुसार न्यूजीलैंड में अब ऐसे स्कूलों की संख्या पिछले पांच वर्षों में करीब 80 से अधिक हो चुकी है जो बच्चों को इस प्रकार से खेतों, खलिहानों, नदियों के किनारे और आस-पास के जंगलों में ले जाकर प्राइमरी स्कूलिंग और प्रकृति का अनुभव कराते हैं। इन स्कूलों में बच्चों का ही नहीं बल्कि शिक्षकों का भी मन लगने लगा है।

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