अजय सिंह चौहान || पाटेश्वरी देवी या पाटन देवी के नाम से प्रसिद्ध तुलसीपुर का ऐतिहासिक शक्तिपीठ (Pateshwari Shaktipeeth Tulsipur) मंदिर उत्तर प्रदेश राज्य में नेपाल की सीमा के पास बलरामपुर जिले के जनपद मुख्यालय से करीब 30 किलोमीटर की दूरी पर स्थित तुलसीपुर तहसील के अंतर्गत पड़ने वाले पाटन गांव से होकर बहने वाली सूर्या नदी के तट पर स्थित है। देवी पाटन या देवी पाटेश्वरी (Pateshwari Shaktipeeth) के इस शक्तिपीठ का उल्लेख हमारे स्कन्द पुराण, देवी भागवत पुराण, शिव चरित और अन्य महापुराणों में भी मिलता है।
मंदिर के गर्भगृह में पाटेश्वरी (Pateshwari Shaktipeeth) देवी की किसी मूर्ति की पूजा नहीं होती है। बल्कि मूर्ति के स्थान पर यहां चांदी जड़ित एक गोल आकार वाला चबूतरा बना हुआ है। उस चबूतरे पर एक कपड़ा बिछा रहता है और उसी कपड़े के ऊपर जिस ताम्रछत्र के दर्शन होते हैं उस ताम्रछत्र पर दुर्गा सप्तसती के श्लोक अंकित हैं। इसी ताम्रछत्र को देवी पाटेश्वरी के प्रतिक के तौर पर पूजा जाता है। इसके अलावा यहां गर्भगृह में इसी चबूतरे के नीचे भी कुछ अन्य रजत छत्र रखे हुए दिख जाते हैं।
ठीक इसी प्रकार की पूजा गुजरात के जुनागढ़ में स्थित अंबाजी शक्तिपीठ मंदिर में भी होती है। क्योंकि अंबाजी शक्तिपीठ मंदिर के गर्भगृह में भी कोई मूर्ति नहीं है इसलिए वहां माता के श्री यंत्र की ही पूजा होती है।
पाटेश्वरी देवी मंदिर (Pateshwari Shaktipeeth) के गर्भगृह में चबूतरे के पास सदैव प्रज्जवलित रहने वाली जिस ज्योति के दर्शन होते हैं यह वही अखण्ड दीपज्योति है जिसे मां दुर्गा की शक्ति रूप में माना और पूजा जाता है। कहा जाता है कि यह ज्योत यहां त्रेता युग में प्रज्जवलीत की गई थी। तब से लेकर आज तक यह जोत यहां प्रज्जवलजीत है।
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देवी पाटेश्वरी के इस पवित्र स्थान के महत्व और इसकी अन्य विशेषताओं के विषय में बात करने से पहले हमें यहां यह भी जान लेना चाहिए कि आखिर देवी पाटन या देवी पाटेश्वरी (Pateshwari Shaktipeeth) का यह नाम कैसे अस्त्तिव में आया। लेकिन, उससे भी पहले हमें यह जान लेना चाहिए कि कहीं भी या किसी भी प्रकार के व्यक्ति, वस्तु या स्थान विशेष के नामों में स्थानिय किंवदंतियों, भाषा, बोली और संस्कृति में आने वाले विभिन्न प्रकार के बदलावों के अनुसार ही उसके ऊच्चारण में भी धीरे-धीरे बदलाव होते रहते हैं।
उसी प्रकार से यहां पाटेश्वरी या पाटन देवी के शक्तिपीठ के इस नाम के विषय में भी अलग-अलग मान्यताएं एवं नाम प्रचलित हैं।
जबकि, देवी भागवत पुराण, स्कंद पुराण और कालिका पुराण जैसे ग्रंथों सहित शिव-चरित्र जैसे अन्य अनेकों तांत्रिक ग्रंथों तथा शक्तिपीठों और उपपीठों से संबंधित अन्य कई पुराणों एवं गं्रथों में इस शक्ति स्थल का वर्णन पाटेश्वरी के नाम से मिलता है। देवी सती के उसी पाटम्बर नाम से इस क्षेत्र को भी पाटन नगर नाम से पहचाना जाने लगा।
दरअसल, पौराणिक साक्ष्यों और मान्यताओं के अनुसार इस स्थान पर देवी सती के बांये कंधे का पाटम्बर या पितांबर वस्त्र गिरा था। इसलिए इस स्थान का नाम पाटम्बर से धीरे-धीरे पाटन हो गया और यही प्रचलन में आ गया। इसके बाद तो पाटन या पाटेश्वरी देवी (Pateshwari Shaktipeeth) के नाम से ही पहचाना जाने लगा। दरअसल, पाटम्बर एक प्रकार का वह रेशमी कपड़ा है जिसे साधारण भाषा में हम पितांबर के नाम से पहचानते है और यहां, यही नाम अब प्रसिद्ध हो गया चुका है।
Patan Devi Shaktipeeth : पाटन देवी शक्तिपीठ मंदिर यात्रा की संपूर्ण जानकारी
इसके अलावा यहां एक मत यह भी है कि इसी स्थान पर देवी सीता अग्नि परीक्षा के बाद दुखी होकर धरती में धरती में समा गयीं और पाताल लोक में चली गयीं थीं। तभी से इस स्थान का नाम पातालेश्वरी देवी भी पड़ गया।
यहां यह भी मान्यता है कि जिस रास्ते से होकर देवी सीता पाताल लोक में चली गईं थी उसी पातालगामी सुंग के ऊपर देवी पाटन पातालेश्वरी का यह मंदिर बना हुआ है। इसीलिए यहां पाटन देवी को पातालेश्वरी देवी के रूप में भी पूजा जाता है।
इसी स्थान पर भगवान शिव की आज्ञा से महायोगी गुरु गोरक्षनाथ जी ने सर्वप्रथम देवी की पूजा-अर्चना के लिए एक मठ का निर्माण करवाकर स्वयं लम्बे समय तक जगत जननी माता पाटेश्वरी की पूजा करते हुए साधनारत रहे। इसलिए इस स्थान को शक्तिपीठ के साथ-साथ सिद्ध योगपीठ भी कहा जाता है।
मंदिर का पौराणिक इतिहास बताता है कि त्रेता युग के समय में भगवान परशुराम ने यहां तपस्या की थी। इसके बाद द्वापर युग में सूर्यपुत्र कर्ण ने इसी स्थान पर भगवान परशुराम से दिव्यास्त्रों की शिक्षा प्राप्त की थी। पाटेश्वरी मंदिर के उत्तर में स्थित सूर्यकुंड वही कुंड है जिसमें प्रतिदिन स्नान करने के बाद कर्ण देवी की आराधना करता था और उसके बाद भगवान परशुराम से दिव्यास्त्रों की शिक्षा करता था।
शक्तिपीठ से संबंधित लगभग हर पुराण में इस मंदिर का उल्लेख मिलता है। इसलिए इस स्थान से संबंधित भगवती सीता, भगवान परशुराम एवं दानवीर कर्ण और महायोगी गोरक्षनाथजी जैसे महान नामों का भी इसमें स्पष्ट उल्लेख है। इसीलिए इस शक्तिपीठ को एक अत्यंत विश्वसनीय और अति प्राचीन देवी स्थान माना गया है। ऐसे में यहां यह कहना कठीन है कि देवीपाटन के इस स्थान पर मंदिर का निर्माण सबसे पहले किसके द्वारा करवाया गया होगा।
लेकिन, हमें जो पौराणिक और ऐतिहासिक तथ्य या साक्ष्य मिलते हैं उनके अनुसार सम्राट विक्रमादित्य ने यहां अपने शासन काल के दौरान देवी पाटेश्वरी के अति प्राचीन मंदिर के स्थान का जीर्णोद्वार करवा कर एक भव्य मंदिर का निर्माण करवाया था। इसके अलावा, यहां से प्राप्त एक शिलालेख के माध्यम से भी हमें साक्ष्य मिलता है कि यहां मंदिर निर्माण का श्रेय गुरु गोरक्षनाथजी को भी जाता है।
और, अगर हम आधुनिक काल की बात करें तो बाबर और औरंगजेब सहीत अन्य कई मुगल शासकों के शासन काल के दौरान अन्य मंदिरों की तरह ही इस मंदिर पर भी बार-बार आक्रमण हुए और लूटपाट की वारदातें होती रहीं। बार-बार मुख्य मंदिर तहस-नहस होता रहा और हर बार उसका निर्माण भी होता गया।