संसार में सब जीव-जन्तु ‘प्राणी’ कहलाते हैं। जिनमें प्राण हैं, वे प्राणी हैं। सभी प्राणी सदा कुछ- न-कुछ काम करते ही रहते हैं। चींटी सदा इधर- उधर फिरती रहती है। कीड़े-मकोड़े भी कुछ-न- कुछ कार्य करते रहते हैं । पक्षी उड़ते या खाते-पीते रहते हैं । बुद्धिजीवी मानव अपने कार्यालयमें जाता है, वहाँ कुछ काम करता है। श्रमजीवी किसान खेती-बारी का काम करता है। मजदूर मजदूरी करता है । इस प्रकार मनुष्यमात्र विविध कामों में लगे रहते हैं । दुनिया में ऐसा कोई भी प्राणी नहीं है, जो बिना कुछ किये सर्वदा चुपचाप बैठा रहे। इसी बात को स्पष्ट करते हुए भगवान ने गीता में कहा है- न हि कश्चित् क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् । (३।५)
अर्थात –‘कोई भी क्षणभर के लिये भी बिना कुछ कर्म किये नहीं रहता।’ इस प्रकार हम देखते हैं कि मानव सदा कर्मरत रहता है। छोटे गाँव में रहने वालों के काम कम रहते हैं, बड़े शहरोंमें रहने वालों को अनगिनत काम रहते हैं । अब सोचना यह है कि ‘मानव को किस लिये सदा काम करते रहना पड़ता है ?’
मानव को इसी लिये सदा कर्मरत रहना पड़ता है कि वह जीवन में अनिष्ट दूर करना और सुखी रहना चाहता है और यह सुनिश्चित है कि मनुष्य तभी सुखी रह सकता है, जब वह किसी-न-किसी उपयोगी काम में लगा रहे। बेकाम रहना उसके लिये बड़ा दुःखदायक है। मनुष्य को काम करते रहने के लिये अंदर से सदा प्रेरणा मिलती रहती है। जैसे प्रत्येक जीव के अंदर ‘भूख’ नामक एक चीज है । वह भूख अपनी शान्ति के लिये प्रत्येक मनुष्य को काम करनेकी सदा प्रेरणा देती रहती है। यदि वह कोई काम नहीं करता है तो उसका पेट भूख की ज्वाला से जलने लगता है। अतः इस ‘भूख’ नामक रोग के शमन के लिये दवा की खोज में मनुष्य को काम करना ही पड़ता है। शिरोवेदना के लिये यदि हम कोई दवा लगा देते हैं, तो वह वेदना तुरंत मिट जाती है। कभी बहुत दिनों के बाद फिर शायद आती है । पर यह भूख ऐसा रोग नहीं है। दूसरे रोगों में और इस रोग में बड़ा अन्तर है । इस रोग के लिये तो प्रतिदिन, जब यह रोग दिखायी दे, तभी दवा लेनी पड़ती है। जबतक इसकी दवा न हो जाय, तब तक दूसरा काम होना कठिन होता है। इसके लिये सभी को प्रयत्न करना पड़ता है। बाघ या सिंह हिरन या बैल को मारता है तो वह इसी रोग को दूर करनेके लिये । मनुष्य भाँति- भाँति के वेष बनाकर, नाना प्रकार से सब तरहकी बुद्धि लगाकर पैसे कमाता है, तो इसी के लिये । भूखे-भटकते मानव को यदि ढूँढने पर कहीं दो मुट्ठी चावल मिल जाते हैं तो वह तुरंत उन्हें सिजाकर खा लेता है और बड़ा तृप्त होता है। यह काम भी उसका इसी लिये होता है। मनुष्य को जीवित रहने के लिये काम करना ही चाहिये । वह एक क्षण भी निकम्मा नहीं रह सकता।
फिर यह बात भी है कि मनुष्य यदि कुछ भी काम न करे तो उसका शरीर बेकार बन जाता है। अतः दरिद्र-धनी सब काम करते हैं। बल्कि धनी को । तो वस्तुतः मन-तन से अधिक काम करना पड़ता है; क्योंकि उसको यह चिन्ता लगी रहती है कि उसके पैसे सुरक्षित रहने चाहिये। इस चिन्ता से उसका मन सदा काम करता रहता है। यह सत्य है कि एक उञ्छवृत्ति वाले ब्राह्मण की अपेक्षा लाखों-करोड़ों वाला धनी बहुत अधिक काम करता है।
मनुष्य के द्वारा किये जानेवाले काम विभिन्न हेतुओं से विभिन्न प्रकार के होते हैं। मनुष्य कुछ काम अपने शरीर के लिये और अपने सम्बन्धियों के लिये करता है। उसको अपने बाल-बच्चे, स्त्री, माता-पिता आदि सम्बन्धियों का संरक्षण तथा भरण-पोषण करना पड़ता है। अतः उनकी देख-भालके लिये उसे काम करना पड़ता है। तदनन्तर अपने बैल, गाय, कुत्ते, बिल्ली, घर के नौकर-चाकर, अपने खेतों में काम करने वाले मजदूर आदि की भी देख-भाल करने के लिये कुछ काम करना पड़ता है। फिर मनुष्य के लिये ग्राम-समाज के सम्बन्ध में भी काम रहते हैं। जैसे घरवाले का कर्तव्य अपने घर को साफ-सुथरा तथा सुन्दर रखना है, वैसे ही गाँववालों का कर्तव्य है कि वे अपने गाँव को साफ, स्वच्छ तथा सुन्दर रखें। जिस प्रकार मनुष्य के लिये अपने कुटुम्ब का काम करना आवश्यक है, उसी प्रकार गाँव का काम करना भी प्रयोजनीय है। इसके पश्चात् देश के तथा राष्ट्र के काम आते हैं। जिम्मेवार मनुष्य उन कामों का सम्पादन भी करता ही है।
इस प्रकार विभाजित कामों में छोटे-बड़े सभी काम दन्तधावन करना, कपड़े साफ करना, स्नान करना, भोजन करना आदि काम अपने निजके प्रयोजनके लिये किये जाते हैं। घर बनाना, उसको साफ रखना, घर में आवश्यक चीजों का संग्रह तथा रक्षण करना इत्यादि परिवार-सम्बन्धी काम हैं। नाले बनाना, कूएँ- तालाबों का निर्माण तथा उनकी मरम्मत कराना, गाँव में दवाखाना खोलकर रोगों को दूर करने के लिये प्रबन्ध करना और शिक्षालयों की स्थापना करना आदि ग्राम- समाज के काम हैं। देशभर की भलाई के लिये अन्यान्य बहुत-से काम किये जाते हैं, जिनसे आजकल के लोग भली-भाँति परिचित हैं ।
जो सशक्त हैं, वे अशक्त की रक्षा करते हैं। मनुष्य अपने बच्चों को उनकी छोटी अवस्था में पाल-पोसकर बड़ा करता तथा योग्य बनाता है और बाद में अपनी वृद्धावस्था में वह उनके द्वारा पाला-पोसा जाता है । यह सब काम बराबर चलते आ रहे हैं। यह स्वभाव केवल मनुष्य-समाज में ही नहीं, परंतु पशु-पक्षियों में भी न्यूनाधिक रूपमें देखा जाता है।
सारी दुनिया में काम चलते रहते हैं। मनुष्य इन विभिन्न कामों में यथायोग्य भाग लेता है। बहुत-से लोग प्रधानता से समाज-कल्याण के लिये विविध कार्य करते हैं, साथ ही अपना काम भी करते जाते हैं।
मानव के लिये साधारणतः तीन ही चीजें अत्यन्त आवश्यक हैं- (१) भूख मिटाने के लिये आहार, (२) धूप-सर्दी आदि से अपने को बचाने के तथा मान संरक्षण के लिये वस्त्र और (३) विश्राम तथा निवास करने के लिये घर। इनके अतिरिक्त जो चीजें वह एकत्र करता है, वे उसके बाल-बच्चों के पालन-पोषण और उनके विवाह आदि तथा अन्यान्य सामाजिक, व्यक्तिगत आवश्यकता की पूर्ति या संग्रहवृत्ति की चरितार्थता के लिये करता है।
पहले भूख को रोग के रूप में और भोजन को उसकी दवा के रूप में बताया गया है। इसमें एक विशेषता है-
क्षुद्वयाधिश्च चिकित्स्यतां प्रतिदिनं भिक्षौषधं भुज्यतां स्वाद्वन्नं न तु याच्यतां विधिवशात् प्राप्तेन संतुष्यताम् ।
शीतोष्णादि विषह्यतां न तु वृथावाक्यं समुच्चार्यता-मौदासीन्यमभीप्स्यतां जनकृपानैष्ठुर्यमुत्सृज्यताम् ॥
( भगवत्पाद श्रीशंकराचार्य-साधनपञ्चकम् – ४)
अर्थात – इस श्लोक में भगवान् श्रीशंकराचार्य जी, ‘क्षुधा नामक व्याधि को अन्नरूपी औषध से दूर करो’ यह आदेश देते हैं। रोगी उतनी ही औषध खाता है, जितनी, उसे अपना रोग दूर करनेके लिये पर्याप्त हो । अपनी रुचि के अनुसार दवाओं को मनमाने तौरपर लाकर नहीं खाता। वहाँ भी, जो दवा सस्ते में मिलती है, उसी को खरीदकर खाता है। इस श्लोक का तात्पर्य है कि शरीर- धारण करनेके लिये साधारण भोजन ही पर्याप्त है।
इन आवश्यक चीजों को उपलब्ध करनेके लिये जो काम किये जाते हैं, उनके अतिरिक्त मानव को दूसरे काम भी रहते हैं। कभी-कभी मानव मन्दिर, मस्जिद या गिरजाघर बनाता है; भस्म-रुद्राक्ष आदि धारण कर पूजा-पाठ करता है; संध्या-उपासना आदि कर्म करता है; भजन करता है। इसपर यह प्रश्न होता है कि ‘इन कामों से क्या उसकी भूख मिटेगी? क्या उसे वस्त्र मिल जायगा और क्या रहने के लिये घर प्राप्त हो जायगा ?’ मोटी दृष्टि से देखनेपर तिलक धारण करना, मन्दिर बनाना, पितृ-श्राद्ध करना, पूजा-पाठ करना, अन्नदान करना आदि कर्म उपर्युक्त अत्यन्त आवश्यक चीजों को उपलब्ध करनेके लिये नहीं किये जाने के कारण अनावश्यक मालूम होते हैं। परंतु मानव अनादिकाल से ऐसे काम भी करता आ रहा है। अत: हमें विचार करना चाहिये कि इनसे क्या लाभ होते हैं ? मानव इनको क्यों करता है ?
मनुष्य का स्वभाव है कि वह एक दिन के लिये भोजन मिल जाने पर उससे तृप्त नहीं होता। भविष्य के लिये भी आज ही कुछ चीजें इस विचार से संग्रह करके अपने पास रखना चाहता और रखता है कि भविष्य में यदि तकलीफ आयी तो उस समय उसका सामना करने के लिये भी हमें तैयार रहना चाहिये। कुछ चीजें ऐसी हैं, जो पके अन्न की तरह थोड़े समय के लिये ही उपयोगी रह सकती हैं। कुछ और चीजें हैं, जो और अधिक समय तक काम में आती हैं। जैसे गेहूँ, चावल आदि कच्चा अनाज । परंतु धन आदि ऐसी चीजें हैं, जो तरह-तरह के उपयोग के लिये काम में आती हैं और अधिक दिनों तक सुविधा से रखी जा सकती हैं। बुद्धिमान् मनुष्य दीर्घकाल तक रख सकने योग्य चीजों को ही संग्रह के लिये चुनता है, न कि मूर्ख की तरह थोड़े दिन रहनेवाली चीजों को। आत्मा अमर है। शरीर का ही जन्म-मरण है। इसलिये इस नित्य आत्मा को सुखी रखने के लिये जो काम करना आवश्यक तथा उचित है, उसी में लगा रहना ही मनुष्य की बुद्धिमानी का परिचायक है।
मान लीजिये, हम किसी पहाड़ी की इस ओर रहते हैं। हमारे पास हजार रुपये हैं । यह पूरा धन पैसों के सिक्के के रूप में है। वहाँ चोर आते हैं। ऐसा भय लगा रहता है कि उनके और हमारे बीच में झगड़ा होगा। परंतु यदि हम पहाड़ी के ऊपर चढ़कर उस पार चले जायँ तो यह भय नहीं रहेगा। उसी समय भाग्यवश कोई मनुष्य आकर पूछता कि ‘क्या उन सिक्कों के बदले में आप एक हजार रुपये के नोट लेंगे ?’ तो हम क्या करेंगे? पैसों की गठरी उसे झट देकर नोट ले लेंगे और दौड़कर पहाड़ी के उस पार जाकर सुखी रहेंगे। परंतु यहाँ एक शर्त है। वह यह है कि हमें जो नोट मिले हैं, वे पहाड़ी के उस पार भी चलनेवाले होने चाहिये। प्रत्येक जीव की भी यही स्थिति है। अपनी शक्ति के अनुसार भविष्य के लिये जितना भी वह उपयोगी काम कर सकता है, उतना ही अच्छा है और वह उसी को करना चाहता है।
यहाँ प्रश्न उठता है कि ‘हमें तो इस लोक में सुख से जीवित रहना है, भविष्य के बारे में क्यों सोचना है।’ इस सम्बन्ध में एक कहावत है-
‘नास्ति चेन्नास्ति नो हानिरस्ति चेन्नास्तिको हतः ।’
अर्थात – आस्तिक कहता है-‘अभी अच्छे-अच्छे कर्म करो; क्योंकि इस जन्म के बाद दूसरा जन्म भी रहेगा, उस समय ये अच्छे कर्म काम आयेंगे।’ नास्तिक बोलता है— ‘कौन निश्चित रूप से यह कह सकता है, इस जन्म के बाद भी हम पुनर्जन्म लेंगे। अतः क्यों ऐसा करें ?’ पर यह सामान्य ज्ञान की चीज है कि यदि अब हम अच्छे उपयोगी कर्मों का संग्रह रखेंगे तो भविष्य में वे लाभ-दायक होंगे। इससे यदि भावी जन्म है तो सत्कर्म- संग्रह करने वाला आस्तिक लाभ में रहेगा और यदि भावी जन्म नहीं है तो उसकी कोई भी हानि नहीं हुई- उसने बुराई तो कुछ की ही नहीं । परंतु यदि भावी जन्म रहा तो सत्कर्म न करने वाले नास्तिक को कष्ट होगा ही ।
अतएव अच्छे कर्म करना सदा ही अच्छा है। यदि हम कहीं यात्रा करते हैं तो उस समय हमारा मन संतुष्ट रहना चाहिये। वैसे ही इस शरीर को छोड़कर कहीं दूसरी जगह जाते समय भी हमारा मन शान्त और संतुष्ट रहना चाहिये। उसके लिये यदि हम आवश्यक काम नहीं करेंगे तो बाद में हमें ही कष्ट होगा। इस दिशा में उपयुक्त कर्म क्या-क्या हैं – इस पर सोच-विचार करके मनुष्य उन्हें जान सकता है। जो भी काम हम आज करते हैं, उनका फल इस जन्म में नहीं मिला तो दूसरे जन्मों में अवश्य मिलना चाहिये । यह नियम आत्मा के विषय में अटल है । हमारे पूर्वजों ने न्यूटन के क्रिया-प्रतिक्रिया – नियम (Action Reaction)- को शताब्दियों पूर्व आत्मिक विषयमें भी प्रमाणित कर दिया था। हमारे शास्त्र इस बात की घोषणा करते हैं कि किसी भी क्रिया की प्रतिक्रिया अवश्य होती है।
क्रैस्तव (ईसाई) लोग जन्मान्तर को नहीं मानते हैं; परंतु उनकी कुछ बातों से पता चलता है कि वे अनजान होकर भी किसी-न-किसी रूप में पुनर्जन्म को मानते हैं। वे कहते हैं कि ‘शरीर-पतन के पश्चात् जीवात्मा का न्याय-निर्णय भगवान्के समक्ष होता है और तब वह नरक या स्वर्ग को भेजा जाता है। सुख:- दुःख का अनुभव करने वाला शरीर यद्यपि यहाँ पेटी में पड़ा रहता है, फिर भी जीव को इस शरीर के साधन से किये गये कर्मों के कारण सुख या दुःख – स्वर्ग या नरकमें भोगना पड़ता है।’ इसी को हम ‘पुनर्जन्म’ कहते हैं। उस देश में (स्वर्ग या नरक में) सुख-दुःख भोगने के पहले उनके कारण जो कर्म थे, उनके लिये एक जन्म अवश्य था। इसी तर्क के अनुसार हम कह सकते हैं कि इस जन्म के सुख-दुःख के कारण इसके पहले जन्म में किये गये कर्म हैं। इससे पुनर्जन्मवाद सिद्ध होता है।
पहले कहा गया है कि हमें सदा इस अमर आत्मा को सुखी रखनेके लिये अधिक-से-अधिक सत्कर्म-अच्छे काम करने चाहिये। हमारे यहाँ का नोट रूस में नहीं चलता है। लेकिन कोई एक ऐसा राजा है, जो समस्त संसार का अधीश्वर है । उसका नोट कहीं भी चल सकता है। वह चतुर्दश भुवनों का अधिप एक है और वह है-परमेश्वर । उसके सब राज्यों में चलने वाला एक नोट है। वह सदा सभी जगह चलेगा। वही है – ‘धर्म’ ।
श्रीरामचन्द्रजी वनगमन के पहले अपनी माताजी से आज्ञा लेने जाते हैं। अपना प्रिय पुत्र जब यात्रा में दूसरे देश को जाता है, तब माता उसे मिठाइयाँ तथा और खाने की चीजें बनाकर उसके साथ भेजती है, ताकि उसको मार्ग में कष्ट न हो। कौसल्याजी सोचती हैं कि चौदह वर्ष के लिये वन जाने वाले मेरे प्रिय पुत्र के हाथ में क्या देकर भेजूँ! गम्भीर विचार के बाद कौसल्याजी श्रीराम से कहती हैं-
यं पालयसि धर्मं त्वं धृत्या च नियमेन च । स वै राघवशार्दूल धर्मस्त्वामभिरक्षतु ॥
(वाल्मीकिरामायण, अयोध्याकाण्ड २५ । ३)
अर्थात – हे ‘राघव ! तुम्हारी सुरक्षा के लिये मैं क्या करूँ ? केवल धर्म ही निश्चय तुम्हारी रक्षा करेगा। तुम जिस धर्म का धैर्य और नियम के साथ पालन करते आ रहे हो, वही धर्म तुम्हारी रक्षा करेगा। यही मेरा एकमात्र अनुग्रह है।’ यह भी नियम प्रसिद्ध है कि यदि हम धर्म की रक्षा और पालन करेंगे तो वह धर्म हमारा रक्षण तथा पालन करेगा – ‘धर्मो रक्षति रक्षितः ।’
श्रीकौसल्या जी के कथनानुसार जो धर्म श्रीरामचन्द्र की रक्षा करनेवाला था, वही धर्म परमेश्वर के अखण्ड चतुर्दश भुवनराज्य में चलनेवाला नोट है। अतः हमारे दूसरे कामों के साथ-साथ हमें ऐसे भी काम अवश्य करने चाहिये, जो ‘धर्म’ कहलाते हैं और जिनका उल्लेख पहले मन्दिर बनाने, भगवान् की भक्ति करने, अन्नदान करने, सेवा-परोपकार करने इत्यादि ‘अनावश्यक’ कामों के अन्तर्गत किया जा चुका है।
वास्तव में जो भी कर्म ईश्वरार्पण-बुद्धि से किया जाता है, वह धर्म के रूप में परिणत हो जाता है और निरन्तर आनन्द देने वाला होता है। अपने स्वार्थ के लिये न होकर, दूसरों की भलाई के लिये, ईश्वरार्पण- भावना से जो काम किया जाता है, वही ‘धर्म’ है। मन, वाणी और शरीर- इन तीनों कारणों के द्वारा हमें ऐसे ही काम करने चाहिये जो धर्म के रूप में परिणत हो जायँ । धर्मरूपी नोट किसी भी काल में और किसी भी देश में हमारे लिये उपयोगी और सुखदायक रहेगा। श्रीरामचन्द्र जी की विपत्तियाँ बहुत बड़ी थीं। परंतु उनकी रक्षा इसी धर्म ने की। धर्म मार्ग में रहने वाले के सब (पशु-पक्षी भी) अनुकूल और सहायक बन जायँगे। इसके विपरीत अधर्म-मार्ग में रहनेवाले को सगा भाई भी छोड़ देगा। इस तथ्य को श्रीमद्रामायण में हम देख सकते हैं-
यान्ति न्यायप्रवृत्तस्य तिर्यञ्चोऽपि सहायताम् । अपन्थानं तु गच्छन्तं सोदरोऽपि विमुञ्चति ॥
(अनर्घराघवनाटक १। ४)
अर्थात – ‘धर्म मार्ग में चलने वाले रामचन्द्रजी का पशु-पक्षियों ने भी साथ दिया। अधर्म मार्ग में चलने वाले रावण को सगे भाई विभीषण ने भी छोड़ दिया।’
(लेखक – अनन्तश्रीविभूषित श्रीकांचिकामकोटीपीठाधिपति जगद्गुरु श्रीशंकराचार्य स्वामीजी श्रीचन्द्रशेखरेंद्रसरस्वतीजी महाराज)
(परलोक और पुनर्जन्मांक से साभार)