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जैविक या आंतरिक घड़ी (Biological or Internal Clock) ही दिनचर्या का मूल आधार

admin 8 July 2022
Biological or Internal Clock
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प्रकृति सत्ता द्वारा रचित शरीर की संरचना जितनी कठिन है और जटिल है उससे कहीं ज्यादा रहस्यमयी है। हमारा शरीर यूं कहने को तो पंच तत्वों से बना है परंतु न जाने कितने अनगिनत रहस्यों को अपने अंदर समाये हुए हैं। पहले तो उसको समझना और जानना ही दुर्लभ कार्य है। तदुपरांत उसकी कार्य शैली को समझना उससे भी ज्यादा अविश्वसनीय एवं अकल्पनीय है।

मनुष्य में जैविक घड़ी (Biological or Internal Clock) का मूल स्थान हमारा मस्तिष्क है। हमारे मस्तिष्क में करोड़ों कोशिकाएं होती हैं जिन्हें हम न्यूराॅन कहते हैं। ये कोशिकाएं पूरे शरीर की गतिविधियों को नियंत्रित एवं निर्धारित करती हैं। एक कोशिका से दूसरे कोशिका को सूचना का आदान-प्रदान विद्युत स्पंद द्वारा दिया जाता है। हम रात को समय विशेष पर सोने जाते हैं तथा सुबह स्वतः जाग जाते हैं। आखिर हम कैसे जान जाते हैं कि सुबह हो चुकी है। कौन हमें जगा देता है। हम निद्रा में रहते हैं किंतु हमारा मस्तिष्क तब भी सक्रिय रहता है। औसतन हम एक मिनट में 15-18 बार सांस लेते हैं तथा हमारा हृदय 72 बार धड़कता है। आखिर यह कहां से संचालित होता है?

जैविक घड़ी (Biological or Internal Clock) से व्यक्ति के सोचने, समझने की दशा एवं दिशा, तर्क-वितर्क, निर्णय क्षमता एवं व्यवहार पर प्रभाव पड़ता है। कई दिनों से न सो पाए या अनियमित दिनचर्या वाले व्यक्ति, चिड़-चिड़े स्वभाव के हो जाते हैं। किसी बात को तत्काल याद नहीं कर पाते तथा किसी बात पर ध्यान केंद्रित नहीं कर पाते। शिफ्ट में ड्यूटी करने वालों की ये आम शिकायते हैं। ऐसा उनकी जैविक घड़ी में आए व्यवधान के कारण होता है।

हमारी जैविक घड़ी (Biological or Internal Clock) दिन-रात होने के साथ ही बाहरी स्थितियों से समायोजित होती है। रात्रि होने पर वह हमें सोने के लिए प्रेरित करती है तथा हमारे संवेदन एवं ज्ञानेद्रियों को धीरे-धीरे सुस्त कर आराम की स्थिति में लाती है जिससे हम सो सकें। सुबह पुनः हमें जगा भी देती है। जैविक घड़ी में आया व्यवधान धीरे-धीरे दूर हो जाता है तथा बाह्य स्थितियों से वह सेट हो जाती है। दिन एवं रात के अनुसार हमारे शरीर का तापमान भी निश्चित प्रारूप के अनुसार बदलता रहता है।

वैज्ञानिक कहते हैं कि मनुष्य के शरीर में अनुमानित 60 हजार अरब से 1 लाख अरब जितने कोश होते हैं और हर सेकंड 1 अरब रासायनिक संक्रियाएं होती हैं। उनका नियंत्रण सुनियोजित ढंग से किया जाता है और उचित समय पर हर कार्य का संपादन किया जाता है। सचेतन मन द्वारा शरीर के सभी संस्थानों को नियत समय पर क्रियाशील करने के आदेश मस्तिष्क की पिनियल ग्रंथि द्वारा स्रावों (हार्माेन्स) के माध्यम से दिए जाते हैं। उनमें मेलाटोनिन और सेरोटोनिन मुख्य हैं जिनका स्राव दिन-रात के कालचक्र के आधार पर होता है। शोधकर्ताओं ने उस जीन का पता लगा लिया है जो जैविक घड़ी (Biological or Internal Clock) की बुनियाद है। जैविक घड़ी का सीधा तालमेल पृथ्वी की परिक्रमा से जुड़ा है जिसके कारण जैविक घड़ी को दिन-रात होने का पता लगता है।

शोधानुसार मनुष्य में ‘जैविक घड़ी’ (Biological or Internal Clock) का मूल स्थान उसका मस्तिष्क है। मस्तिष्क हमें जगाता और मस्तिष्क ही हमें सुलाता है। जैसा हम जानते हैं कि औसतन हम 1 मिनट में 15 से 18 बार सांस लेते हैं तथा हमारा हृदय 72 बार धड़कता है। यदि यह औसत गड़बड़ाता है तो शरीर रोगी होने लगता है। यही कारण है कि हिन्दू धर्म में ध्यान और प्रार्थना को सबसे उत्तम माना गया है।

जैविक घड़ी (Biological or Internal Clock) के गड़बड़ाने से व्यक्ति के भीतर की प्रतिरोधक क्षमता में भी कमी आने लगती है। यदि किसी वजह से इस प्राकृतिक शारीरिक कालचक्र या ‘जैविक घड़ी’ में विक्षेप होता है तो उसके कारण भयंकर रोग होते हैं। इस चक्र के विक्षेप से सिरदर्द व सर्दी से लेकर कैंसर जैसे रोग भी हो सकते हैं। अवसाद, अनिद्रा जैसे मानसिक रोग तथा मूत्र संस्थान के रोग, उच्च रक्तचाप, मधुमेह, मोटापा, हृदय रोग जैसे शारीरिक रोग भी हो सकते हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार उचित भोजन काल में पर्याप्त भोजन करने वालों की अपेक्षा अनुचित समय कम भोजन करने वाले अधिक मोटे होते जाते हैं और इनमें मधुमेह की आशंका बढ़ जाती है।

जैविक घड़ी (Biological or Internal Clock) के अध्ययन से जुडे़ सभी शोधार्थियों ने यह स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि चैबीस घंटे के चक्र में मनुष्य पर किस तरह का प्रभाव पड़ता है। सूर्याेदय के आस-पास कार्टिसोल हारमोन बनता है, जिसकी वजह से हम बिस्तर छोड़कर रोज़मर्रा की गतिविधियों में जुट जाते हैं। सुबह 6 से 9 बजे के बीच ब्लड प्रेशर थोड़ा बढ़ जाता है, जिसका उद्देश्य शरीर को बाहरी दबाव के अनुसार ढालना है।

प्रातः नौ बजे से लेकर मध्यान्ह 12 बजे तक हमारा शरीर सबसे अधिक सतर्क रहता है। मध्यान्ह 12 बजे से दोपहर 3 बजे तक का समय सभी कार्यों के तालमेल के लिए सर्वश्रेष्ठ है। दोपहर 3-6 बजे के दौरान तीव्र प्रतिक्रियाएं होती हैं। सूर्यास्त के आस-पास हमारे शरीर का तापमान सबसे अधिक होता है। सायं काल 6 से रात 9 बजे तक ब्लड प्रेशर उच्चतम स्तर पर पहुंच जाता है। यह वही अवधि है जब हमें लगता है कि कुछ देर सुस्ताना चाहिए। रात्रि 9 बजे शरीर में मेलेटोनिन हारमोन बनने लगता है, जिसका उद्देश्य नींद आने के लिए उन्मुखीकरण है। इस दौरान शरीर का तापमान सबसे कम होता है।

वास्तव में दैनिक लय ने शरीर में विभिन्न चरणों में होने वाली गतिविधियों के साथ तालमेल स्थापित कर लिया है। इसका प्रभाव हारमोन के स्तर, नींद, व्यवहार, शारीरिक क्रियाओं, शरीर के तापमान आदि पर पड़ता है। आंतरिक घड़ी अथवा जैविक घड़ी और बाहरी वातावरण के बीच संतुलन गड़बड़ाने पर सेहत पर प्रतिकूल असर पड़ता है। मनुष्य पर लंबी हवाई यात्रा के दौरान जेट लैग का असर दिखाई देता है। इसमें यात्रियों को सिरदर्द, नींद और शरीर दर्द जैसे कष्टों का सामना करना पड़ता है।

अब तो शोधकर्ताओं ने जैविक घड़ी की जीन स्तर पर व्याख्या करके नई संभावनाओं का मार्ग प्रशस्त किया है। पहला, चिकित्सक यह निर्णय कर सकेंगे कि कौन सा आॅपरेशन किस समय करना चाहिए। दूसरा, जो दवाइयां हम लेते हैं, उनका सबसे अधिक असर किस समय दिखाई देगा।

हमारे ऋषियों, आयुर्वेदाचार्यों ने जो जल्दी सोने-जागने एवं आहार-विहार की बातें बतायी हैं, उन पर अध्ययन व खोज करके आधुनिक वैज्ञानिक और चिकित्सक अपनी भाषा में उसका पुरजोर समर्थन कर रहे हैं।

अंगों की सक्रियता अनुसार दिनचर्या –
प्रातः 3 से 5- यह ब्रह्ममुहूर्त का समय है। इस समय फेफड़े सर्वाधिक क्रियाशील रहते हैं। ब्रह्ममुहूर्त में थोड़ा सा गुनगुना पानी पीकर खुली हवा में घूमना चाहिए। इस समय दीर्घ श्वसन करने से फेफड़ों की कार्यक्षमता खूब विकसित होती है। उन्हें शुद्ध वायु (आॅक्सीजन) और ऋण आयन विपुल मात्रा में मिलने से शरीर स्वस्थ व स्फूर्तिमान होता है। ब्रह्ममुहूर्त में उठने वाले लोग बुद्धिमान व उत्साही होते हैं और सोते रहने वालों का जीवन निस्तेज हो जाता है।

प्रातः 5 से 7- इस समय बड़ी आँत क्रियाशील होती है। जो व्यक्ति इस समय भी सोते रहते हैं या मल विसर्जन नहीं करते, उनकी आँतें मल में से त्याज्य द्रवांश का शोषण कर मल को सुखा देती हैं। इससे कब्ज तथा कई अन्य रोग उत्पन्न होते हैं। अतः प्रातः जागरण से लेकर सुबह 7 बजे के बीच मल त्याग कर लेना चाहिए।

सुबह 7 से 9 व 9 से 11- सुबह 7 से 9 आमाशय की सक्रियता का काल है। उसके बाद 9 से 11 तक अग्न्याशय व प्लीहा सक्रिय रहते हैं। इस समय पाचक रस अधिक बनते हैं। अतः करीब 9 से 11 बजे का समय भोजन के लिए उपयुक्त है। भोजन से पहले ‘रं-रं-रं…’ बीजमंत्र का जप करने से जठराग्नि और भी प्रदीप्त होती है। भोजन के बीच-बीच में गुनगुना पानी (अनुकूलता अनुसार) घूँट-घूँट पियें। इस समय अल्पकालिक स्मृति सर्वाेच्च स्थिति में होती है तथा एकाग्रता व विचारशक्ति उत्तम होती है। अतः यह तीव्र क्रियाशीलता का समय है। इसमें दिन के महत्त्वपूर्ण कार्यों को प्रधानता दें।

दोपहर 11 से 1- इस समय ऊर्जा-प्रवाह हृदय में विशेष होता है। करुणा, दया, प्रेम आदि हृदय की संवेदनाओं को विकसित एवं पोषित करने के लिए दोपहर 12 बजे के आस-पास मध्याह्न-संध्या करने का विधान हमारी संस्कृति में है। हमारी संस्कृति कितनी दीर्घ दृष्टि वाली है।

दोपहर 1 से 3: इस समय छोटी आँत विशेष सक्रिय रहती है। इसका कार्य आहार से मिले पोषक तत्त्वों का अवशोषण व व्यर्थ पदार्थों को बड़ी आँत की ओर ढकेलना है। लगभग इस समय अर्थात भोजन के करीब 2 घंटे बाद प्यास-अनुरूप पानी पीना चाहिए जिससे त्याज्य पदार्थों को आगे बड़ी आँत की तरफ भेजने में छोटी आँत को सहायता मिल सके। इस समय भोजन करने अथवा सोने से पोषक आहार रस के शोषण में अवरोध उत्पन्न होता है व शरीर रोगी तथा दुर्बल हो जाता है।

दोपहर 3 से 5- यह मूत्राशय की विशेष सक्रियता का काल है। मूत्र का संग्रहण करना यह मूत्राशय का कार्य है। 2-4 घंटे पहले पिये पानी से इस समय मूत्र त्याग की प्रवृत्ति होगी।

शाम 5 से 7- इस समय जीवनी शक्ति गुर्दों की ओर विशेष प्रवाहित होने लगती है। सुबह लिये गये भोजन की पाचन क्रिया पूर्ण हो जाती है। अतः इस काल में सायं भुक्त्वा लघु हितं… (अष्टांग संग्रह) अनुसार हलका भोजन कर लेना चाहिए। शाम को सूर्यास्त से 40 मिनट पहले भोजन कर लेना उत्तम रहेगा। सूर्यास्त के 10 मिनट पहले से 10 मिनट बाद तक (संध्या काल में) भोजन न करें। न सन्ध्ययोः भुञ्जीत। (सुश्रुत संहिता) संध्या कालों में भोजन नहीं करना चाहिए।

न अति सायं अन्नं अश्नीयात्। (अष्टांग संग्रह) सायं काल (रात्रि काल) में बहुत विलम्ब करके भोजन वर्जित है। देर रात को किया गया भोजन सुस्ती लाता है यह अनुभवगम्य है। सुबह भोजन के दो घंटे पहले तथा शाम को भोजन के तीन घंटे बाद दूध पी सकते हैं।

रात्रि 7 से 9- इस समय मस्तिष्क विशेष सक्रिय रहता है। अतः प्रातः काल के अलावा इस काल में पढ़ा हुआ पाठ जल्दी याद रह जाता है। आधुनिक अन्वेषण से भी इसकी पुष्टि हुई है। शाम को दीप जलाकर दीप ज्योतिः परं ब्रह्म… आदि स्तोत्र पाठ व शयन से पूर्व स्वाध्याय अपनी संस्कृति का अभिन्न अंग है।

रात्रि 9 से 11- इस समय जीवनी शक्ति रीढ़ की हड्डी में स्थित मेरुरज्जु में विशेष केन्द्रित होती है। इस समय पीठ के बल या बायीं करवट लेकर विश्राम करने से मेरुरज्जु को प्राप्त शक्ति को ग्रहण करने में मदद मिलती है। इस समय की नींद सर्वाधिक विश्रांति प्रदान करती है और जागरण शरीर व बुद्धि को थका देता है।

ंरात्रि 9 बजने के बाद पाचन संस्थान के अवयव विश्रांति प्राप्त करते हैं। अतः, यदि इस समय भोजन किया जाये तो वह सुबह तक जठर में पड़ा रहता है, पचता नहीं है और उसके सड़ने से हानिकारक द्रव्य पैदा होते हैं जो अम्ल (एसिड) के साथ आँतों में जाने से रोग उत्पन्न करते हैं इसलिए इस समय भोजन करना खतरनाक है।

रात्रि 11 से 1- इस समय जीवनी शक्ति पित्ताशय में सक्रिय होती है। पित्त का संग्रहण पित्ताशय का मुख्य कार्य है। इस समय का जागरण पित्त को प्रकुपित कर अनिद्रा, सिरदर्द आदि पित्त विकार तथा नेत्र रोगों को उत्पन्न करता है। रात्रि को 12 बजने के बाद दिन में किये गये भोजन द्वारा शरीर के क्षतिग्रस्त कोशों के बदले में नये कोशों का निर्माण होता है। इस समय जागते रहोगे तो बुढ़ापा जल्दी आयेगा।

रात्रि 1 से 3- इस समय जीवनी शक्ति यकृत में कार्यरत होती है। अन्न का सूक्ष्म पाचन करना यह यकृत का कार्य है। इस समय शरीर को गहरी नींद की जरूरत होती है। इसकी पूर्ति न होने पर पाचन तंत्र बिगड़ता है। इस समय यदि जागते रहे तो शरीर नींद के वशीभूत होने लगता है, दृष्टि मंद होती है और शरीर की प्रतिक्रियाएँ मंद होती हैं। अतः इस समय सड़क दुर्घटनाएँ अधिक होती हैं।
– ऋषियों व आयुर्वेदाचार्यों ने बिना भूख लगे भोजन करना वर्जित बताया है। अतः प्रातः एवं शाम के भोजन की मात्रा ऐसी रखें, जिससे ऊपर बताये समय में खुलकर भूख लगे।
– सुबह व शाम के भोजन के बीच बार-बार कुछ खाते रहने से मोटापा, मधुमेह, हृदय रोग जैसी बीमारियों और मानसिक तनाव व अवसाद ;डमदजंस ैजतमेे – क्मचतमेेपवदद्ध आदि का खतरा बढ़ता है।
– जमीन पर कुछ बिछाकर सुखासन में बैठकर ही भोजन करें। इस आसन में मूलाधार चक्र सक्रिय होने से जठराग्नि प्रदीप्त रहती है। कुर्सी पर बैठकर भोजन करने से पाचन शक्ति कमजोर तथा खड़े होकर भोजन करने से भी पाचन शक्ति कमजोर कमजोर होती है इसलिए ‘बुफे डिनर’ से बचना चाहिए।
– भोजन से पूर्व प्रार्थना करें या मंत्र बोलें या गीता के पन्द्रहवें अध्याय का पाठ करें। इससे भोजन भगवत्प्रसाद बन जाता है।
– भोजन के तुरंत बाद पानी न पियें, अन्यथा जठराग्नि मंद पड़ जाती है और पाचन ठीक से नहीं हो पाता। अतः डेढ़-दो घंटे बाद ही पानी पियें। फ्रिज का ठंडा पानी कभी न पियें।
– पानी हमेशा बैठकर तथा घूँट-घूँट करके, मुँह में घुमा-घुमा के पियें। इससे अधिक मात्रा में लार पेट में जाती है, जो पेट के अम्ल के साथ संतुलन बनाकर दर्द, चक्कर आना, सुबह का सिरदर्द आदि तकलीफें दूर करती है।
– भोजन के बाद 10 मिनट वज्रासन में बैठें। इससे भोजन जल्दी पचता है।
– पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र का लाभ लेने हेतु सिर पूर्व या दक्षिण दिशा में करके ही सोयें; अन्यथा अनिद्रा जैसी तकलीफें होती हैं।
– शरीर की जैविक घड़ी को ठीक ढंग से चलाने हेतु रात्रि को बत्ती बंद करके सोयें। इस संदर्भ में हुए शोध चैंकाने वाले हैं। देर रात तक कार्य या अध्ययन करने से और बत्ती चालू रख के सोने से जैविक घड़ी निष्क्रिय होकर भयंकर स्वास्थ्य संबंधी हानियां होती हैं। अँधेरे में सोने से यह जैविक घड़ी सही ढंग से चलती है।

आजकल पाये जाने वाले अधिकांश रोगों का कारण अस्त-व्यस्त दिनचर्या व विपरीत आहार ही है। हम अपनी दिनचर्या शरीर की जैविक घड़ी (Biological or Internal Clock)के अनुरूप बनाये रखें तो शरीर के विभिन्न अंगों की सक्रियता का हमें अनायास ही लाभ मिलेगा। इस प्रकार थोडी सी सजगता व सहजता हमें स्वस्थ जीवन की प्राप्ति करवाती रहेगी।

– संकलन श्वेता वहल

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